चीन हमारी सीमा में घुसा हुआ है, हटने को तैयार नहीं और हम बातचीत-बातचीत खेल रहे हैं। इससे, फिर उससे, फिर किसी और से बात कर रहे हैं। नीचे के लेवल से एकदम ऊपर, फिर एकदम नीचे से मिडिल लेवल तक आकर, फिर नीचे, फिर ऊपर यानी सी-सा गेम खेल रहे हैं।
जितना समय गुजरेगा, लोग उतने ज्यादा भूलते जाएंगे, हिन्दुत्व की दूसरी भूलभुलैयाओं में खो जाएंगे। फिर चीन भी मौज करेगा, हमारी सरकार भी। उन्हें हमारी जमीन मिल जाएगी, हमारी सरकार का सिरदर्द खत्म हो जाएगा, बल्कि हो चुका है! प्रधानमंत्री ने कल हमारे सैनिकों की बहादुरी का जिक्र जिस तरह किया है, उससे तो लगता है कि घुसपैठिए चीन को हम पीछे धकेल चुके हैं। फिर भी देखो, हम चीन से बात कर रहे हैं! बहुत अच्छे हैं न हम!
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सच यह है कि चीन ढीठ बना हुआ है और हम अत्यंत विनम्र और बेहद मृदु। विनम्रता और मृदुता, पता नहीं इस सरकार को थोड़ी-सी, न जाने कहां से नसीब हो गई है। थोड़ी सी है, इसलिए उसने इसे अमेरिका, यूरोप, इजरायल और चीन आदि के लिए रिजर्व कर रखा है। भारत के लोगों के लिए बाकी जो भी उसके पास है, सबका सब रिजर्व है। मसलन ... छोड़ो। मसलन की लिस्ट बहुत लंबी है। स्वतंत्रता दिवस पर हुए प्रधानमंत्री के डेढ़ घंटे के भाषण से भी लंबी।
जैसे कोई प्रेमी, उस लड़की के पीछे पड़ा रहता है, जो उसे पसंद नहीं करती, उसे झिड़क देती है, कुछ ऐसा ही दृश्य आज सामने है। प्रेमी को प्रेमिका के झिड़कने में भी प्रेम की नई संभावनाएं नजर आती हैं। वह निराश नहीं होता, दुगने उत्साह से भर जाता है। लड़की की शादी हो जाए तो उसकी ससुराल के चक्कर लगाने लगता है। ससुराल वाले जूते से भी आगे जाकर जब तक उसकी 'सेवा' नहीं कर देते, वह मानता नहीं। वैसे मेरी सहानुभूति हर उसके साथ है, जो कभी निराश नहीं होता।
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तो हम निराश नहीं हैं। समस्या सुलझ चुकी है, लेकिन हम न जाने क्यों बात कर रहे हैं। ढीठ से बातचीत करने का आनंद ही कुछ और है। आजकल कोरोना के कारण घरों में बंद हम सुविधाजीवी भी बातचीत और बातचीत और बातचीत ही कर रहे हैं। जो दो-दो साल तक एक-दूसरे की खबर तक नहीं लेते थे, पांच मिनट का समय भी नहीं निकाल पाते थे, वे आजकल घंटे-घंटे भर बात करके भी संतुष्ट नहीं हैं। इस घर का हर सदस्य, उस घर के हर सदस्य से बात कर रहा है।
एक जमाना था, जब बातचीत संक्षिप्त हुआ करती थी, विदेश में बैठे परिवारजनों से तो इस तरह होती थी, जैसे कि फोन नहीं, तार कर रहे हों, बशर्ते कि फोन उसने नहीं, हमने किया हो। बिल बढ़ने की धुकधुकी बातचीत पर हावी रहती थी। अब यह समस्या नहीं है। अब तो व्हाट्सएप वगैरह होने से डर शून्य से भी नीचे के तापमान पर पहुंच चुका है। बातचीत के हल्दीघाटी के मैदान में हरेक आजकल महाराणा प्रताप बना हुआ है, जबकि सामने मुगल सेना नहीं है। मैदान खाली है, डंडा घुमाकर जीत का आनंद लिया जा सकता है।
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तो समस्या सुलझ चुकी है, मगर कोरोना- काल है, इसलिए हम बातचीत के लिए बातचीत कर रहे हैं। समय काटने में बिना मांगे चीन की सहायता कर रहे हैं। वैसे आजकल पड़ोसी, पड़ोसी से नहीं, बारह हजार किलोमीटर दूर बैठे आदमी से बात करता है। तो इस समय सरकार और जनता की नीति सेम टू सेम है- बात करो और टाइम काटो। झूले में झुलाने बुला नहीं सकते, इसलिए बात करो।हम भी आपस में बेनतीजा बात करते हैं, सरकार भी यही कर रही है। इस प्रकार हम और सरकार आजकल एक वेवलेंथ पर हैं। बिना वेवलेंथ मिलाए, हमारी वेवलेंथ मिली हुई है।
प्रधानमंत्री के पास तो आजकल समय ही समय है, क्योंकि लंबे-लंबे भाषण देने के अवसर अत्यंत सीमित हो चुके हैं। लालकिले पर भाषण देने का अवसर उन्हें न मिलता तो बताइए उनका क्या हाल होता! वैसे वह चीन से बात करने वालों से बात करके दिन में अट्ठारह-अट्ठारह घंटे काम करने का रिकॉर्ड टूटने नहीं दे रहे हैं।
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प्रधानमंत्री जी समय काटने के लिए ही सही मगर अडाणी-अंबानी के अलावा और भी लोगों से बात कर लिया करो। किसानों से, मजदूरों से, रेहड़ीवालों से, छोटे व्यापारियों से, शिक्षकों से, आशा वर्करों से, चाय और पकोड़े बेचने वालों से, रेलकर्मियों से, कर्मचारियों से बात कर लिया करो। वे खुश हो जाएंगे कि देखो, प्रधानमंत्री ने खुद हमसे बात करने की पहल की। उधर आपको खुशी मिलेगी कि आज मजदूरों को अच्छा बेवकूफ बनाया, कल किसानों को बेवकूफ बना दिया था।
इस तरह लोगोंं को बेवकूफ बनाने की और आपको बेवकूफ बनने की खुशी मिलेगी। आपका समय कटेगा और उनका नुकसान नहीं होगा। किसान-मजदूर भ्रम में रहेंगे तो कम से कम छह महीने चुप रहेंगे। तब तक उम्मीद है कि कोरोना गुजर चुका होगा। मैं देश नहीं बिकने दूंगा,अभियान के अंतर्गत देश बिक चुका होगा और फिर चीन हो या पाकिस्तान, कोई फिक्र नहीं। खरीदने वाला जाने तो जाने, न जाने तो उनकी बला से।
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