पता नहीं हमें ईमानदार पत्रकारों की असमय मृत्यु पर कितनी श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी और मीडिया की आजादी के पक्ष में खड़े हम लोगों का और कितना नुकसान सहना पड़ेगा। नीलाभ मिश्र बीमारी से लंबे संघर्ष के बाद हमें छोड़कर चले गए और उसे भी उन्होंने उतने ही साहस और शांतिपूर्ण तरीके से सहा जैसे उन्होंने अपनी जिंदगी जी।
उन्हें भी उन मुश्किलों से गुजरना पड़ा था जो भारत का हर स्वतंत्र पत्रकार झेल रहा है। जब एक पत्रकार समझौते से इंकार करता है तो उसे अपनी नौकरी गंवानी पड़ती है। और तब भी संघर्ष जारी रहता है, लेकिन शायद ही किसी को पूरी तरह पता है कि उन्हें कितनी तकलीफों और समस्याओं से गुजरना पड़ता है। नौकरी के साथ या बिना नौकरी के, नीलाभ मिश्र हमेशा मुस्कुराते रहे और जैसे ही उनके कैरियर ने बेहतरी के लिए एक निर्णायक मोड़ लिया और नेशनल हेरल्ड बोर्ड ने उनकी ईमानदारी और साहस को समझा, उनका निधन हो गया।
नीलाभ मिश्र ने हमेशा सितारों को देखा और जैसा कि ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा था, उन्होंने भी यह मानने से इंकार किया कि कोई भी कचरे के ढेर में है। उनके लिए अच्छे दिन हमेशा करीब और पहुंच में रहे, जबकि हमारे बीच के कई लोगों को लगा कि भविष्य धुंधला और वर्तमान स्याह है।
नेशनल हेरल्ड के प्रधान संपादक के तौर पर उन्होंने अतीत के एक अखबार को गरीबों, हाशिए पर खड़े और सताए गए लोगों की विचारधारा में बदल दिया। कांग्रेस पार्टी के विचारों से स्वतंत्र और उसके अलावा भी, नीलाभ मिश्र ने अखबार में ऐसी जान डाल दी कि हम कई लोगों अपने कैरियर में पहली बार उसमें छपने वाली रिपोर्टों को दिलचस्पी के साथ देखना शुरू किया। वास्तव में, दलितों, बेआवाज, हाशिए के और सताए लोगों से जुड़ी उन खास खबरों का इंतजार करने लगे जैसी वे अपने फेसबुक पेज पर साझा करते थे।
नीलाभ मिश्र बहुत कम बोलते थे और सेलिब्रिटी पहचान पाने के चक्कर में नहीं रहते थे। टेलीविजन पर भी बहुत कम आते थे और खुद को लिखित शब्दों की दुनिया तक सीमित रखते थे। लेकिन उन्हें जानने वाले और उनसे बातचीत करने वाले हम सभी लोगों को पता था कि वे किन विचारों के पक्ष में थे - सामाजिक न्याय औक सेकुलरिज्म की गहरी विचारधारा, एक विश्वदृष्टि जो सारी संस्कृतियों को अपने साथ लेकर चलती है और हां, खाना। सारी अच्छे पत्रकारों की तरह नीलाभ मिश्र भी खाने के शौकीन थे, और हम सबकी तरह अच्छे निवाले का काफी आनंद उठाते थे। वास्तव में, जब भी पत्रकार जुटते थे और वैकल्पिक नौकरी की चर्चा करते थे, हर बार कैफे खोलने को लेकर बात होती थी – कबाब और मार्गेरिटा पर खास जोर देते हुए।
नीलाभ मिश्र ने संस्थानों को निर्माण किया, और उन्होंने नेशनल हेरल्ड विवादों से निकालते हुए खड़ा किया और धीरे-धीरे लेकिन निश्चित तरीके से उसे एक जोशपूर्ण मीडिया घराने में तब्दील किया। आज के माहौल में प्रिंट मीडिया भी राजनीतिक और कॉरपोरेट दबावों के सामने घुटने टेक चुका है, और तब भी न्यूज की अपनी समझ के साथ वे काम कर रहे थे, खबरों के विस्तार पर ध्यान देते हुए, तथ्यों का सम्मान करते हुए, हर छपने वाली खबर पर अपनी निजी छाप छोड़ते हुए, और निश्चित तौर पर उनमें भारत के लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दिखती थी। हमें नहीं मालूम कि उन पर कोई दबाव था या नहीं, लेकिन नीलाभ मिश्र झुकने वालों में से नहीं थे और इसलिए ऐसा माना जा सकता है कि अपने आखिरी वर्षों में उन्हें अपने मन का किया। हाल के वर्षों में दुनिया छोड़कर चले गए हमारे कई सहयोगी शायद ही ऐसा कह सकते थे।
मैं आखिरी बार उनसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिली थी, और हम दोनों को किसी गैर-जरूरी मुलाकात के लिए जल्दी जाना पड़ा। और हमने बस थोड़ी सी बातचीत की और एक-दूसरे से वादा किया कि हम ‘जल्दी’ मिलेंगे। और वह जल्दी कभी नहीं आई, नीलाभ मिश्र की आंखों की चमक और हल्की सी मुस्कुराहट स्मृति में बसी रह गई है।
नीलाभ मिश्र जा चुके हैं, लेकिन उनसे जुड़े कई लोगों के प्यार और सम्मान के साथ। मैं नहीं जानती कि हमारे बीच के कितने पत्रकार आज कह सकते हैं कि वे हमारा शोकगीत बने रहेंगे।
(वेबसाइट ‘द सिटीजन’ से साभार)
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