2024 में विवेक (बदला हुआ नाम) तीसरी बार नेशनल एलिजिबिलिटी कम एट्रेंस टेस्ट (नीट) में बैठा। बिना किसी कोचिंग के उसने औसत से ज्यादा अंक पाए जो अपने आप में उपलब्धि है। सामान्य परिस्थितियों में इस प्रदर्शन से वह लगभग 1 लाख एमबीबीएस सीटों में जगह पा लेता लेकिन उसके अरमानों पर पानी फिर गया क्योंकि पिछले प्रयासों की तुलना में ज्यादा अंक पाने के बाद भी उसकी रैंक नहीं सुधरी।
विवेक चार भाई-बहनों में सबसे बड़ा है। उसके पिता एक स्ट्रीट वेंडर हैं और घर के अकेले कमाने वाले हैं। अगर नीट एक निष्पक्ष परीक्षा प्रणाली होती तो उसका परिवार उम्मीद कर सकता था कि कुछ साल के बाद जब विवेक डॉक्टर बन जाएगा तो दिन फिर जाएंगे। उन लोगों की किस्मत तब भी पलट जाती अगर विवेक के परिवार के पास निजी मेडिकल कॉलेज में सीट खरीदने का साधन (कुछ करोड़ रुपये) होते, या वह कुछ लाख रुपये में परीक्षा का पेपर खरीद पाता। विवेक उन 24 लाख नीट उम्मीदवारों में से एक है जिनका भविष्य नीट पेपर-लीक कांड के कारण अधर में लटका हुआ है।
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16 जून तक तो सरकार यह मान भी नहीं रही थी कि इसमें किसी तरह की कोई अनियमितता हुई। कई छात्रों और प्रतिष्ठित शिक्षकों के आरोपों और बिहार में दर्ज एफआईआर के बावजूद शिक्षा मंत्री ने 13 जून को भी दावा किया कि यह विपक्ष के नेतृत्व में चलाया गया हल्ला-गुल्ला है। वैसे, परिणाम घोषित होने के समय से ही इसमें घोटाले की बू आ रही थी जिसमें 67 टॉपर्स को 720/720 का परफेक्ट स्कोर मिला था।
इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि 2016 में नीट शुरू होने के बाद से परफेक्ट स्कोर वाले टॉपर्स की संख्या दो तक ही रही थी। लेकिन इस बार तो जैसे खतरे की घंटी ही बज गई। जल्द ही पता चला कि हरियाणा के एक ही केंद्र में छह टॉपर एक के पीछे एक बैठे थे। बढ़ते जन दबाव और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के साथ और भी अनियमितताएं और मुद्दे सामने आए। इसमें नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) द्वारा यह स्वीकार करना शामिल था कि उसने ग्रेस मार्क्स दिए थे जो उसकी सामान्य प्रथा के विरुद्ध है और उसकी अपनी पुस्तिका में भी इसका उल्लेख नहीं है।
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इस बीच पेपर लीक होने, ‘पेशेवर परीक्षार्थियों’ द्वारा छात्रों के बदले परीक्षा देने और कुछ परीक्षा केन्द्रों में हुई जमकर धांधली की रिपोर्टें लगातार आ रही हैं।
नीट के मामले ने हमारे शिक्षा क्षेत्र की वास्तविकता को उजागर कर दिया है। यह योग्य छात्रों को सफल होने के बहुत सीमित मौके देता है जबकि पैसे बनाने वालों के सामने तो संभावनाओं का पूरा आकाश खुला होता है। यह प्रक्रिया कोचिंग रैकेट से शुरू होती है। कोचिंग सेंटर अपने यहां से निकले टॉपर्स के बारे में ऐसी शेखी बघारते हैं कि उनके झांसे में आकर छात्र और उनके माता-पिता इनमें दाखिले कि लिए ‘भीख मांगते हैं, उधार लेते हैं, चोरी करते हैं’।
नीट की परीक्षा देने वाली दीपाली (बदला हुआ नाम) की कहानी भी दिलचस्प है। उसने दो प्रयास किए और इस दौरान कोचिंग सेंटरों पर कुछ लाख खर्च कर दिए लेकिन वह 643 स्कोर पाने के बावजूद अच्छी रैंक हासिल करने में विफल रही है। यह स्कोर उसे बीडीएस (बैचलर ऑफ डेंटल सर्जरी) या आयुर्वेद कोर्स तो दिला सकता है लेकिन एमबीबीएस सीट नहीं। अगर वह तीसरी बार किस्मत आजमाने का फैसला करती है, तो उसे अतिरिक्त पैसे खर्चने होंगे। औसत से कम अंक पाने वालों से अधिक फीस ली जाती है।
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अनुमान है कि लीक हुए नीट पेपर की कीमत प्रति छात्र 30-35 लाख रुपये है। यह वह राशि है जिसे माता-पिता अपने बच्चों के लिए सरकारी मेडिकल कॉलेजों में सीमित सीटें सुरक्षित करने के लिए खर्च करने को तैयार हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि निजी कॉलेजों की सीटों की संगठित लूट के झांसे में आने से तो बेहतर है कि इसी रास्ते को अपनाया जाए क्योंकि निजी कॉलेजों में भारी डोनेशन देना पड़ता है।
मेडिकल सीटों की संख्या बढ़ाने में सरकार की विफलता निष्पक्ष रूप से परीक्षा आयोजित करने में विफलता से कहीं अधिक गंभीर है। इससे छात्र देश से बाहर के जोखिम भरे विकल्प चुनने को मजबूर होते हैं। सस्ती शिक्षा की तलाश में भारतीय छात्र मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप के देशों में पढ़ रहे हैं। वे यह फैसला विशुद्ध रूप से आर्थिक कारणों से लेते हैं क्योंकि इन देशों में न तो शिक्षा का स्तर बेहतर है और न ही वहां से पढ़कर नौकरी पाना आसान होता है। फर्क केवल इतना है कि इन जगहों से पढ़ाई करने पर खर्च भारत की तुलना में बहुत कम होता है।
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हाल ही में किर्गिस्तान में मेडिकल छात्रों पर स्थानीय लोगों ने हमला बोल दिया और वे मुश्किल स्थिति में फंस गए। नवंबर 2023 में युद्धग्रस्त यूक्रेन में फंसे भारतीय मेडिकल छात्रों को निकाला गया जिसका फायदा बीजेपी ने ‘मोदीजी ने युद्ध रुकवा दिया’ के विज्ञापन स्टंट से उठाने की कोशिश की।
नीट-शैली की कॉमन मेडिकल प्रवेश परीक्षा या राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी की बिल्कुल जरूरत नहीं थी। शिक्षा हमेशा से राज्य का विषय रहा है और राज्य परीक्षाओं के माध्यम से प्रवेश की प्रक्रिया काफी हद तक सुचारू थी। लेकिन केन्द्रीकरण और नियंत्रण, जैसा कि मोदी-शाह की बीजेपी की राज्य इकाइयां और नेता भी अच्छी तरह जानते हैं, शासन के मूल बन गए हैं।
वैसे, नीट प्रणाली की कई अन्य समस्याएं भी हैं। इसके साथ गलत अनुवाद और गड़बड़ पेपर वितरण जैसी समस्याएं रही हैं और गैर-अंग्रेजी पृष्ठभूमि वाले छात्र खुद को हानि की स्थिति में पाते हैं। शायद ही ऐसा कभी हुआ हो कि एनटीए बिना किसी बड़ी गड़बड़ी के नीट परीक्षा करा सका हो। फिर भी, इसके घटिया प्रदर्शन की न तो पड़ताल हुई न ही इसकी जांच संसदीय समिति से कराई गई।
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सरकार की एनईपी (राष्ट्रीय शिक्षा नीति) जैसी पहलों के साथ शिक्षा का निजीकरण करने और एनटीए के साथ शिक्षा को केन्द्रीकृत करने का विकल्प चुनना आपदा को न्योता देने जैसा है। स्थिति को सुधारने के लिए कई तरह के कदम तत्काल उठाने की जरूरत है लेकिन पेपर लीक रैकेट मामले से निपटने या कोचिंग माफिया से लड़ने के लिए जिस तरह की राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, वह इस सरकार के पास तो दिखती नहीं। अन्यथा अब तक इस तरह के कदम उठाए गए होतेः
नीट 2024 को रद्द करना और फिर से परीक्षा आयोजित करना।
सीबीएसई जैसी एक अलग एजेंसी से कुछ सार्वजनिक ट्रस्ट के साथ फिर से परीक्षा आयोजित कराना।
एनटीए निदेशक की बर्खास्तगी।
नीट 2024 की अनियमितताओं की सीबीआई या सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच।
संसदीय उप-समिति से एनटीए और उसके कामकाज की जांच।
नीट और एनटीए को खत्म कर पुरानी प्रणाली की बहाली जिसमें राज्य मेडिकल प्रवेश परीक्षा आयोजित कराएं।
सार्वजनिक परीक्षा (अनुचित साधनों की रोकथाम) विधेयक, 2024 में संशोधन कर इसमें प्रभावित छात्रों को मौद्रिक मुआवजे का प्रावधान करना।
क्या कोई संभावना है कि यह ‘लीकेज सरकार’ ऐसा कुछ करेगी?
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