शारदीय नवरात्रि की धूमधाम इस साल कुछ दबी-दबी-सी भले हो लेकिन श्रद्धालु हमेशा की तरह शक्ति स्वरूपिणी मां को सादर धरती पर सपरिवार पधारने को न्योत रहे हैं। इस वजह से हर तरह की उद्दंड राक्षसी प्रवृत्ति का विनाश करने वाली दशभजी दुर्गा की कई मधुर स्तुतियां हो रही हैं। लेकिन दुर्गा को शक्ति का आदि प्रतीक मानने वालों के देश में हाड़-मांस की स्त्रियों पर हो रही हिंसा की खबरें मधुर स्तुतियों या ‘नार्यस्तु यत्र पूज्यंते रमंते तत्र देवता’ नुमा पारंपरिक नारों से नहीं मिट सकतीं।
हाथरस सामूहिक बलात्कार की घटना की याद अभी ताजा है। पर निर्भया कांड की ही तरह इस वीभत्स मौत के बाद भी जब काफी हो-हल्ला मचा, तो पहले इसे राजनीति या जातिवादी सोच से प्रेरित बताकर रफा-दफा करने की कोशिश हुई। वह असफल रही, तो कहा गया कि लड़की का चाल-चलन जरूर शंकास्पद रहा होगा। कुछ गैर जिम्मेदार बयानों के अनुसार, यह हत्या का मामला था, बलात्कार का नहीं। मारपीट भले हुई हो, पर लड़की के साथ आरोपियों का यौन संसर्ग का प्रमाण नहीं मिला, वगैरा। जब ये सब हथियार भी उल्टे पड़े, तब प्रदेश पुलिस ने असुरक्षा बढ़ने का हवाला देते हुए मृतका के घरवालों की आज्ञा के बिना फटाफट आधी रात को ही लड़की का शव जलाकर बात को समाप्त करना चाहा।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
यह सब देख-पढ़ कर निर्भया कांड के साक्षी रहे अधिकतर लोगों को दु:ख भले हुआ हो, अचंभा नहीं हुआ होगा। जिस राज-समाज में इस घटना के बाद भी लगभग हर दिन चार बरस की बच्ची से लेकर कई बच्चों वाली महिलाओं तक के साथ इतने गैंग रेप और हत्या की वारदातें हो रही हैं, वहां कहीं ज्यादा अचंभे की बात यह है कि उस गरीब दलित लड़की के उत्पीड़कों को उनके इलाकाई जाति भाइयों की तमाम धमकियों के बाद राज्य की पुलिस ने अंतत: गिरफ्तार कर लिया।
इस मुहिम में मीडिया का रोल सकारात्मक रहा। पर अधिकतर हिंदी मीडिया इस बदसलूकी को सिर्फ हाथरस के या उत्तर प्रदेश के समाज की पतनशील जातिवादी दृष्टि और पुलिस की असंवेदनशीलता का ताजा प्रमाण मान कर भावुक छिछलेपन से ‘यह समाज कब बदलेगा? कब?’ नुमा सतत सवाल पूछता रह गया। इससे कोई फायदा नहीं, वरना भारत में हर कहीं बाहर सड़क या खेत में ही नहीं, सारे उत्तर भारत के घरों के भीतर भी हर तरह की स्त्री विरोधी हिंसा लगातार इतनी तेजी से नहीं बढ़ती।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
गौरतलब है कि लड़कियों की अकाल मौतों की एक बड़ी वजह तथाकथित लव जिहाद के शक में की जाने वाली ऑनर किलिंग्स की तादाद भी कम नहीं। पुलिस में औपचारिक तौर से दर्ज किए जाने से पहले ही इन अपराधों पर अक्सर (घर-परिवार की इज्जत, उत्पीड़कों के राजनीतिक रसूख या पुलिसिया असंवेदनशीलता की वजह से साक्ष्य मिटवा कर) पर्दा डाल दिया जाता है। इसके बाद भी ताजा राष्ट्रीय आंकड़े दहलाने वाले हैं। वे साफ दिखाते हैं कि घर के भीतर महिलाएं और बच्चे कितने असुरक्षित हैं, जब बलात्कार या यौन उत्पीड़न के अधिकतर मामलों में उनके कथित रक्षक या पारिवारिक मित्र ही उसके सबसे खतरनाक भक्षक साबित होते हैं।
राष्ट्रीय अपराध शोध प्रकोष्ठ (एनसीआरबी) के अनुसार, साल 2019 में महिला उत्पीड़न को रोकने वाली धारा 498 ए के बावजूद कुल दर्ज 1,25,298 मामलों में औरतों पर सबसे अधिक हिंसक मारपीट उनके अपने घरों में, अपने परिजनों (प्राय: ससुराल वालों) द्वारा की गई थी। हर उम्र की महिला पर बाहर सड़कों या कार्यक्षेत्र में हिंसक हमलों और अगवा किए जाने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं और बेहद नृशंस किस्म के सामूहिक रेप भी।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
इसकी बड़ी वजह यह है कि अधिकतर मामलों में पुलिस की दबंगई तथा समझदारी और पीड़िता की नासमझी और कमजोर सामाजिक स्थिति की वजह से ज्यादातर अपराधी देर-सबेर जमानत पर छूट जाते हैं। लंबी अदालती कार्रवाई का हश्र यह है कि 2019 में अदालतों में दर्ज करीब 25 हजार मामलों की पहली सुनवाई में 6 महीने लगे और लगभग 18 हजार मामलों की सुनवाई में तो पूरा साल निकल गया।
उत्तर प्रदेश हो कि दिल्ली, पुलिस ही नहीं, डॉक्टरों और महिला हित से जुड़ी गैर सरकारी संस्थाओं, सबका यही अनुभव है कि अपने ही घर की चारदीवारी के भीतर परिवारजनों के हाथों बरपा की जाने वाली हिंसा हमारी महिलाओं की शारीरिक और मानसिक असुरक्षा और टूटन का सबसे बड़ा स्रोत है। इन दिनों दर्जनों मामले रोज सामने आकर समाज में बढ़ रहे गहरे अवसाद, नर्वस ब्रेक डाउन, आत्महत्या के मामलों में भारी उछाल की सूचना दे रहे हैं उसकी असली वजह भी यही है।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
पारिवारिक हिंसा से जुड़े मामलों में लगातार बढ़ोतरी के बाद भी समय-समय पर जनमत के दबाव से किए गए 498 ए या नए यौन शोषण निरोधक काननू (2013) सरीखे कदम परिवारों या न्यस्त स्वार्थी गुटों के प्रबल विरोध की वजह से बहुत कम जमीनी स्तर पर लागू हो पाते हैं। जाति-बिरादरी वालों और धर्मगुरुओं के गुट तथा कई बार तो इलाकाई विधायक या सांसद- ये सब भी बेहतर नहीं। वे तो कई बार अपराधियों को खुला समर्थन देते दिखते हैं। रसूखदार परिवारों के बलात्कारियों का आसानी से छूटना और फिर अभियोजन पक्ष पर घात लगाकर हमले करना भी काफी आम है।
घरेलू हिंसा हमेशा तभी प्रकाश में आती है जब किसी मामले में पानी सर से ऊपर गजर गया हो, वर्ना आम तौर पर बात-बेबात महिलाओं पर हाथ उठाने या उनको लगातार शाब्दिक क्रूरता का निशाना बनाने को हमारे पुरुष नीत राज-समाज से (जिसमें पुलिस, न्यायिक व्यवस्था के सदस्य और जनप्रतिनिधि सभी शामिल हैं) परंपरा के नाम पर सांस्कृतिक स्वीकृति मिलती रही है।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
अचरज क्या कि ऐसे माहौल में पले-बढ़े अधिकतर लड़कों ही नहीं, लड़कियों तक को पुरुषों का गुस्से में या नशे में गाली-गलौज करना और कभी-कभार हाथ छोड़ना पौरुष का प्रतीक लगता है और उसे चुपचाप सह लेना नारीत्व का। और जब तक मारपीट लगभग जानलेवा न हो, पुलिस तथा परिवारजन सभी पीड़ित महिला को स्थिति से तालमेल बिठाने की नेक सलाह देते हैं। यह गांवों से उपजी एक कबीलाई सोच हर पड़ोसी को अंकल-आंटी या भाई साहब-भाभी जी कहने वाले महानगरीय मध्य वर्ग के मन में भी गहराई से पैठी हुई है।
यहां पर सोशल मीडिया पर खासकर कम उम्र लड़कियों के बीच दिख रही नारीवाद की अधकचरी समझ के खतरों के बारे में भी बात कर लेना उचित होगा। हमारे अधिकाधिक दर्शक और विज्ञापन खींचने को आतुर मीडिया का हर अंग- टीवी हो या मुख्यधारा का प्रिंट या फिर सोशल मीडिया, ऐसी किशोरियों, युवतियों (जिनमें बॉलीवुड, टीवी जगत की लड़कियां भी शामिल हैं) को तुरंत प्रसिद्धि और भरपूर कमाई का चारा फेंक कर अपने कार्यक्रमों, विज्ञापनों में खींच लाता है। उनके लक्षित उपभोक्ता छोटे-बड़े शहरों के औसत भारतीय हैं, जिनके मनों में औरतों और सेक्स को लेकर आज भी कई तरह की कुंठा व्याप्त है।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
कम उम्र लड़कियों में हर तरह की अदाओं से बड़ी आडियंस के बीच आकर फिल्म या मॉडलिंग की दुनिया के किसी बड़े किरदार की नजरों में आने और रातोंरात सितारा बनने, दौलत और लाखों फेसबुकिया फैन कमाने की ललक रहती है। पर जो वे नहीं समझ पातीं, वह यह कि यह करना उनके ही नहीं, तमाम और लड़कियों के लंबे शोषण की राह भी खोल देता है।
यौन शोषण के खिलाफ जब मी-टू सरीखे आंदोलन उठे तो उनसे उम्मीद बनी थी कि अब स्थिति बदलेगी। पर आंदोलन तर्कसंगत तरीके से आगे बढ़ कर नारी विरोधी सोच का तोड़ नहीं बन सका। चटपटे नारों के नाम पर हमारी मध्यवर्गीय शहरी लड़कियां मीडिया पर आकर अपने हकों के लिए आवाज उठाना, मोमबत्ती जलाना ही करती रहती हैं, पर उनमें अपने हकों का जिम्मेदारी से इस्तेमाल करना और सबसे अधिक हिंसा की शिकार निचले तबके की महिलाओं को भी अपने साथ लेकर चलना बहुत कम दिखता है।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
अपने आप में नारीवाद एक समग्र और एकतापरक दर्शन है। 70 के दशक से अब तक भारतीय राज-समाज में हर आय और आयु वर्ग की महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समता बहाल करने को अनगिनत नारीवादियों (जिनमें कई पुरुष भी शामिल रहे) ने बहुत गंभीरता और जिम्मेदारी से इस दर्शन को उजागर करते हुए कई क्षेत्रों पर काम किया और कई कुर्बानियां दी हैं।
उसी का फल है कि आज की युवा महिलाओं को (सीमित अर्थों में ही सही) घर और बाहर अपनी निजता कायम रखने लायक गरिमा और अपने मानवाधिकारों की सार्थक मांग उठाने-पाने लायक आत्मविश्वास मिल सके हैं। नई पीढ़ी की लड़कियों को समझना होगा कि अपनी गरिमा और लोकतांत्रिक चयन क्षमता की अनमोल धरोहर को सार्वजनिक मंचों पर फिर से एक भोग्या बनकर सिर्फ शरीर चटपटी और क्षणिक प्रसिद्धि या पैसा पाने को कुर्बान कर देना सयानापन नहीं, मूर्खता है।
Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST
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Published: 23 Oct 2020, 9:00 PM IST