हिमाचल में नदी घाटियों और पहाड़ी ढलानों की उन जगहों को वापस अपने कब्जे में लेने में प्रकृति को केवल एक विनाशकारी सप्ताह का समय लगा जिन पर इंसान ने दशकों के दौरान अतिक्रमण कर लिया था। जैसे-जैसे पानी घटने लगा है, हमारे घमंड, बेवकूफी और लालच के सबूत सामने आने लगे हैं।
इन पंक्तियों को लिखे जाने तक हिमाचल में लगभग 110 लोगों की जान जा चुकी है। दर्जनों गाड़ियां, सैकड़ों इमारतें और पुल और कई किलोमीटर तक सड़कें नष्ट हो चुकी हैं। जान-माल का सबसे ज्यादा नुकसान ब्यास और रावी नदी घाटियों और राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की 4-लेन वाली सड़कों परवाणू-सोलन और मंडी-मनाली और इसके किनारे हुआ है। यह कोई इत्तेफाक नहीं है कि ये वही इलाके हैं जहां हमारे नीति निर्माताओं ने पर्यावरण को सर्वाधिक नुकसान पहुंचाया है।
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इन इलाकों में इंसानी गतिविधियां, खास तौर पर निर्माण संबंधी, काफी ज्यादा रही हैं। इतनी ज्यादा कि प्रकृति के लिए न तो इसे सह पाना संभव हो रहा था और न ही भरपाई करना। वैध-अवैध खनन, पहाड़ों की खड़ी ढलानों और नदियों के बाढ़ क्षेत्रों में भवन निर्माण, पनबिजली परियोजनाओं जैसी घटनाओं के साथ-साथ लगातार किया गया विस्फोट और उससे निकले मलबे की डंपिंग, सड़क निर्माण और चौड़ीकरण, हजारों पेड़ों की कटाई- ये ऐसी इंसानी गतिविधियां रहीं जिनके खिलाफ प्रकृति की प्रतिक्रिया जुलाई में एक हफ्ते के दौरान देखने को मिली और यह सब अचानक नहीं हुआ। इसका बाकायदा अंदाजा था।
पर्यावरणविद लंबे अरसे से सरकार को पर्यावरण की ऐसी अनदेखी के नतीजों को लेकर चेतावनी देते रहे हैं। हाईकोर्ट द्वारा गठित 2010 की शुक्ला समिति की रिपोर्ट में जलविद्युत परियोजनाओं को रोकने और नदियों की सुरक्षा की जरूरत बताई गई थी और समिति ने साफ किया था कि ‘पर्यावरण-अनुकूल जलविद्युत परियोजना जैसी कोई चीज नहीं होती।’ ऋषि गंगा और उत्तरकाशी की तबाही से इसके व्यावहारिक सबूत भी मिल जाते हैं। लेकिन हमारी सरकारों ने आंख-कान बंद करके सभी वैज्ञानिक और विशेषज्ञ चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया और ‘पर्यटन’ और ‘विकास’ के नाम पर सबकुछ वैसे ही पुराने ढर्रे पर चलता रहा।
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यहां यह बात साफ कर देनी जरूरी है कि हिमाचल की हालिया तबाही का कारण जलवायु परिवर्तन या चरम मौसमी घटनाएं नहीं हैं। इसमें दो राय नहीं कि इनसे समस्या बढ़ी लेकिन इसके कारण समस्या पैदा नहीं हुई। समस्या अंधाधुंध निर्माण, गलत नीतियों, खराब इंजीनियरिंग, ढीली निगरानी व्यवस्था और वैज्ञानिक सिद्धांतों और विशेषज्ञ सलाह की आपराधिक उपेक्षा के कारण पैदा हुई।
जैसा कि अब वीडियो से पता चलता है, मनाली के दाहिने किनारे की सड़क को 4-लेन करने का ज्यादातर काम ब्यास नदी के तल पर किया गया, बाढ़ क्षेत्र पर दीवारें खड़ी करके और उन्हें भर दिया गया। भगवान के लिए, कोई बताएगा कि एनएचएआई के इंजीनियरों को डिग्री किसने दे दी? क्या उन्हें एक पहाड़ी नदी की विनाशकारी ताकत का अंदाजा भी है जो बड़े-बड़े पत्थरों, पेड़ों और गाद को लेकर पूरे प्रवाह के साथ नीचे आ रही हो? क्या उन्होंने कभी ब्यास के इतिहास और इससे पूर्व में हुए नुकसान की जानकारी लेने की जहमत उठाई? आज 4-लेन का कम से कम छह किलोमीटर हिस्सा बह गया है, कुल्लू और मनाली के बीच ये सड़क महीनों तक बंद रहेगी। इस पर गौर करना जरूरी है कि अकेली सड़क जो अभी चालू है, वह सड़क है जिसे एनएचएआई ने नहीं छुआ (खैरियत है)। यह हमारे लिए सबक है।
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परवाणू और धरमपुर के बीच चार लेन वाला राजमार्ग भी नहीं बचा। दो लेन को चार लेन में बदलने पर 4,000 करोड़ रुपये खर्चने और दस साल लगाने के बाद अब हमारे पास जो बचा है, वह मूल दो लेन राजमार्ग ही है! यहां इसका कारण कोई नदी नहीं बल्कि पहाड़ी ढलान और मूर्खतापूर्ण इंजीनियरिंग है। मूल सड़क को पहाड़ी ढलानों को सीधे काटकर चौड़ा किया गया था, कभी-कभी 15 से 20 मीटर तक। यह देखकर जरूर हैरानी होती है कि पीडब्ल्यूडी और एनएचएआई के इंजीनियरों ने हिमालय के इस हिस्से को मशीनों से रौंदने से पहले जरूरी तकनीकी अध्ययन किया भी था या नहीं?
उदाहरण के लिए, क्या उन्होंने पहाड़ों की भू-आकृति विज्ञान का अध्ययन किया था? क्या इस बात का अध्ययन किया था कि वहां की मिट्टी कैसी है, वह कितना भार बर्दाश्त कर सकती है, कितना पानी सुरक्षित तरीके से सोख सकती है? वहां का प्राकृतिक थोक घनत्व क्या है? क्या ढलानों के खोदे गए हिस्सों को स्थिर करने के लिए रॉक कंक्रीटिंग और एंकर बोल्टिंग जैसे कदम उठाए गए? नुकसान का आकलन करने से तो यही लगता है कि इनमें से कुछ भी नहीं किया गया और इसी कारण यहां भी 4-लेन अब केवल यादों में रह गई है। जनता का भारी-भरकम पैसा भी उफनती नदी के साथ बह गया।
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लगातार सड़क निर्माण ने लाखों टन मलबा पैदा किया है जिसे नदियों में ही फेंक दिया गया जिसका नतीजा यह हुआ कि नदियों का तल ऊंचा हो गया और उनकी चौड़ाई कम हो गई जिससे उनकी वहन क्षमता कम हो गई। अकेले कीरतपुर-मनाली 4-लेन में 21 सुरंगें हैं। इनसे निकले पत्थर और मलबा कहां गए? कागजों पर तो यह दिखाया गया कि उन्हें लैंडफिल में फेंक दिया गया लेकिन हकीकत में उसे नदी में ही फेंक दिया गया या बस पहाड़ी से नीचे लुढ़का दिया गया!
उसके बाद नदी के तल पर वैध-अवैध खनन और बाढ़ क्षेत्र में इमारतों का बड़े पैमाने पर निर्माण हर जगह बेलगाम हो रहा है। इसके कारण नदियां अक्सर अपना रास्ता बदल लेती हैं: इस बार ब्यास नदी के किनारे जो बहुत ज्यादा नुकसान हुआ, उसके लिए यह भी जिम्मेदार है। यह भी कुछ ऐसा है जिसकी हमारे राजमार्ग इंजीनियरों ने न तो उम्मीद की थी और न ही इसके लिए कोई योजना बनाई गई थी।
इसके अलावा, पनबिजली परियोजनाओं ने भी विनाश में अपनी भूमिका निभाई। वे नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा डालती हैं, मलबा और तलछट जमा होता जाता है, और जब बाढ़ के कारण बांध के दरवाजे खोले जाते हैं तो पानी के साथ पत्थर, मलबा और तलछट भी वेग के साथ बहते हैं। इमारतों और पुलों को सबसे ज्यादा नुकसान इसी से होता है।
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बांधों को बाढ़ रोकने का जरिया बताया जाता है, लेकिन हकीकत इससे उलट है, खास तौर से पहाड़ी नदियों के मामले में। वे अंतिम क्षण तक बड़ी मात्रा में पानी जमा करके रखते हैं और जब वे पानी छोड़ते हैं तो नीचे इसका नतीजा विनाशकारी होता है। इस बार पंडोह बाजार और मंडी में हुए विनाश का कारण पंडोह बांध के सभी पांच दरवाजों को एक साथ खोल देना रहा।
विनाश का ठीक-ठीक आकलन किया जाना अभी बाकी है। पुनरुद्धार का काम जल्द ही शुरू हो जाएगा, और मुझे इसी बात का डर है। करदाताओं के पैसे का उपयोग अतीत की गलतियों को दोहराने के लिए किया जाएगा। होना तो यह चाहिए कि हम इस आपदा से सीखें और अपनी इंजीनियरिंग, योजना और महत्वाकांक्षाओं को बदलें- कि हम नदी तल पर दोबारा निर्माण न करें, कि हम इस 4-लेन के पागलपन को रोकें, कि हम विस्फोट, सुरंग बनाने और पहाड़ के किनारों की खड़ी कटाई को रोकें, कि हम स्थानीय आबादी की आपत्तियों को सुनना शुरू करें और उनके विरोध को स्वीकार करें, कि हम आगे की जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दें।
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जो अभी हुआ है, क्या सरकार को उसमें विज्ञान और सामान्य ज्ञान नहीं तो उसकी गणित को नहीं देखना चाहिए? राज्य सरकार ने सालों के दौरान जो कमाई की, वह दो हफ्ते में खत्म हो गई। इसमें संदेह नहीं कि जलवायु परिवर्तन समस्या को और विकराल बना रहा है, लेकिन इस वजह से तो हमें और ज्यादा प्रकृति अनुकूल ‘विकास’ के तरीके खोजने चाहिए। जलवायु परिवर्तन बदलाव की प्रेरणा बनना चाहिए, न कि गलतियों को जायज ठहराने का बहाना।
अब समय आ गया है कि हर कुछ सालों के बाद एक ही तरह की बेवकूफी करने के इस चक्र से बाहर निकलें। प्रकृति ने उन चीजों को वापस लेना शुरू कर दिया है जो हमेशा से उसका था। बेहतर हो कि उसका सम्मान करें और उसे दोबारा उत्तेजित न करें।
(अभय शुक्ला पूर्व आईएएस अधिकारी हैं। यह http://avayshukla.blogspot.com के एक लेख का संपादित रूप है।)
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