दुनिया में बाढ़ से होने वाली मौतों में 20 फीसदी भारत में होती है। विश्व बैंक ने भी इसे कबूलते हुए चिंता बढ़ा दी है। इससे वर्ष 2050 तक भारत की आधी आबादी के रहन-सहन के स्तर में और गिरावट होगी।
इस बार पिछले 100 बरस के इतिहास में सबसे बड़ी तबाही केरल में हुई है। गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देशभर में केवल 2018 में अब तक बाढ़ और इसके हादसों में कम से कम 1000 लोगों की जान जा चुकी है। अकेले केरल में 417 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं। 29 मई से मानसून की बारिश शुरू होते ही मौतें भी शुरू हो गई थीं। लेकिन 8 से 18 अगस्त तक 265 लोगों और मारे गए। अब भी 8.69 लाख लोग 2,787 राहत शिविरों में हैं, लगभग 7000 घर पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं जबकि 50,000 को आंशिक नुकसान हुआ।
सरकारी आंकड़ों को ही सच मानें तो भी भयावहता कम नहीं है। गृह मंत्रालय के नेशनल इमर्जेंसी रिस्पांस सेंटर (एनईआरसी) के 13 अगस्त तक के आंकड़ों के मुताबिक, बाढ़ और बारिश से केरल में 187, उप्र में 171, पश्चिम बंगाल में 170 और महाराष्ट्र में 139, गुजरात में 52, असम में 45 और नगालैंड में 8 लोगों की लोगों की जान गई, जबकि कई लापता हैं। वहीं महाराष्ट्र के 26, असम के 23, प. बंगाल के 22, केरल के 14 उप्र के 12 नगालैंड के 11 और गुजरात के 10 जिले ज्यादा प्रभावित हुए हैं। उत्तराखंड, मप्र, हिमाचल के कई इलाकों का बुरा हाल है।
पृथ्वी पर 150 लाख वर्ग किलोमीटर में केवल 10 प्रतिशत हिमखंड बचे हैं जो कभी 32 प्रतिशत भूभाग तथा 30 प्रतिशत समुद्री क्षेत्रों में था और हिमयुग कहलाता था। सबसे बड़े ग्लेशियर सियाचिन के अलावा गंगोत्री, पिंडारी, जेमु, मिलम, नमीक, काफनी, रोहतांग, व्यास कुंड, चंद्रा, पंचचुली, सोनापानी, ढाका, भागा, पार्वती, शीरवाली, चीता काठा, कांगतो, नंदा देवी श्रंखला, दरांग, जैका आदि अनेक हिमखंड हैं। इनके प्रभाव से गर्मियों में जम्मू-कश्मीर, सिक्किम, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश और अरुणाचल में सुहाने मौसम का लुत्फ मिलता है। लेकिन यहां भी पर्यावरण विरोधी इंसानी हरकतों ने जबरदस्त असर दिखाया।
अंग्रेजों ने दामोदर नदी को नियंत्रित करने खातिर 1854 में उसके दोनों और बांध बनवाए, लेकिन 1869 में ही तोड़ भी दिया, क्योंकि समझ चुके थे कि प्रकृति से छेड़छाड़ ठीक नहीं। अंग्रेजों ने फिर आखीर तक किसी नदी को बांधने का प्रयास नहीं किया।
कम ही लोगों को पता होगा कि फरक्का बैराज और दामोदर घाटी परियोजना विरोधी एक विलक्षण प्रतिभाशाली इंजीनियर कपिल भट्टाचार्य थे। योजना की रूपरेखा आने पर 40 वर्ष पहले ही उन्होंने वो प्रभावी और अकाट्य तर्क दिए कि उसका खंडन कोई नहीं कर सका। अलबत्ता, उन्हें बर्खास्त जरूर कर दिया गया। अब उनकी बातें हू-ब-हू सच हो रही हैं।
उन्होंने लेख लिखकर चेताया था कि दामोदर परियोजना से, पश्चिम बंगाल के पानी को निकालने वाली हुगली प्रभावित होगी, भयंकर बाढ़ आएगी, कलकत्ता बंदरगाह पर बड़े जलपोत नहीं आ पाएंगे। नदी के मुहाने, जमने वाली मिट्टी साफ नहीं हो पाएगी, गाद जमेगी, जहां-तहां टापू बनेंगे। दो-तीन दिन चलने वाली बाढ़ महीनों रहेगी। सारा सच साबित हुआ, बल्कि स्थितियां और भी बदतर हुईं।
1971-72 में फरक्का बांध के बनते ही बैराज द्वारा सूखे दिनों में गंगा का प्रवाह मद्धिम पड़ने से नदी में मिट्टी भरने लगी। फलत: कटान से नदी का रुख बदला। गंगा का पानी कहीं तो जाना था सो बिहार-उप्र के तटीय क्षेत्रों को चपेट में लिया। उधर मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में सोन नदी पर बाणसागर बांध बना। तयशुदा पन-बिजली तो नहीं बनी अलबत्ता हर औसत बरसात में मप्र, बिहार, जम्मू-कश्मीर व उप्र के कई इलाके बाढ़ के मंजर से जूझने लगे, जबकि उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में बाढ़ की वजह, बीते दशक में ताबड़तोड़ पन बिजली परियोजनाएं, बांधों, सड़कों, होटलों का निर्माण और कटते जंगल हैं।
वर्षा की अधिकता वाले जंगलों की अंधाधुंध कटाई से पराबैंगनी विकरण को सोखने और छोड़ने का संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। प्रतिवर्ष लगभग 73 लाख हेक्टेयर जंगल उजड़ रहे हैं। ज्यादा रासायनिक खाद और अत्याधिक चारा कटने से मिट्टी की सेहत अलग बिगड़ रही है। जंगली और समुद्री जीवों का अंधाधुंध शिकार भी संतुलन बिगाड़ता है। बाकी कसर जनसंख्या विस्फोट ने पूरी कर दी।
20वीं सदी में दुनिया की जनसंख्या लगभग 1.7 अरब थी, अब 6 गुना ज्यादा 7.5 अरब है। जल्द काबू नहीं पाया गया तो 2050 तक जनसंख्या 10 अरब पार कर जाएगी। धरती का क्षेत्रफल तो बढ़ेगा नहीं, सो उपलब्ध संसाधनों के लिए होड़ मचेगी, जिससे पर्यावरण की सेहत पर चोट स्वाभाविक है।
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'विश्व बांध आयोग' की रिपोर्ट कहती है कि भारत में बड़े-बड़े बांधों में आधे से ज्यादा ऐसे हैं, जिनमें अनुमानित विस्थापितों की संख्या जहां दोगुने से भी ज्यादा है, वहीं दक्षता, सहभागी निर्णय प्रक्रिया, टिकाऊपन और जवाबदारी जैसे पांच बुनियादी सिद्धांतों का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने के साथ ही बांध के दूसरे सारे विकल्पों की भली-भांति जरूरी जांच सवालों में है।
योजनाएं बनाने वाले 'ब्यूरोक्रेट्स' तो सालों साल वही रहेंगे, लेकिन उनको अमलीजामा पहनाने वाले जनतंत्र के 'डेमोक्रेट्स' क्या अगली बार सत्ता में होंगे? ज्यादातर जनप्रतिनिधियों को रीति-नीति, सिद्धांतों और बाद के प्रभावों से क्या लेना देना! तभी तो आंखें मूंद बिना अध्ययन या विचार के सब स्वीकार लेते हैं।
माना कि प्राकृतिक आपदा पर पूरी तरह अंकुश नामुमकिन है। लेकिन यह भी सही है कि प्रकृति के साथ इंसानी क्रूर हरकतें बेतहाशा बढ़ रही हैं। अभी भी वक्त है, सभी को चेतना होगा, वरना हर मौसम में प्रकृति के अलग रौद्र रूप को झेलने के लिए तैयार रहना होगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार और स्तंभकार हैं)
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