पंद्रह अगस्त,1947 से आजाद भारत का जनता के चुने नेताओं के साथ का साझा सफर शुरुआती शंकाओं को धराशायी कर अपने 74वें साल की दहलीज पर खड़ा है। पर 2020 में जश्न-ए-आजादी, जनता का, जनता के लिए बने लोकतंत्र का जनता द्वारा अभिनंदन दिवस नहीं लगता है। हाथी के दांतों की तरह इसके खाने और दिखाने के रूप भिन्न हो चले हैं। एक रूप है जनसेवक बनकर राष्ट्रवाद के नाम पर देश के शिखर पुरुष की ओजस्वी तकरीर का लालकिले को गुंजायमान करना। पर दूसरी तरफ टीवी के पर्दों पर सारे सूबों में शीर्ष पुरुष (महिलाएं लगभग नगण्य) जन प्रतिनिधिकी बतौर एक ऊंचे मंच से राष्ट्र के झंडे को सामंती सलामी देते और फूलों की बरसात तले सशस्त्रबलों की टुकडियों से सलामी लेते दिखते हैं। ये छवियां वायसरॉय वाले युग की याद दिलाती हैं, जैसे शाम को भव्य राजभवनों के विशाल लॉनों पर तुर्रेदार पगड़ीवाले चपरासियों से सेवित भद्र लोगों के लिए चाय- पानी का दूरदर्शनी आयोजन।
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दिल्ली के लालCकिले की प्राचीर पर सुबह लालकिले पर तिरंगा फहराने का क्षण जनता का नहीं, उत्तर भारत के हर महत्वाकांक्षी नेता का सपना साकार करता है। दक्षिण भारत की तुलना में भले ही उनके सूबे कमतर हों, प्रधानमंत्रित्व का चुनावी गणित हमेशा उत्तर भारत के पक्ष में जाएगा। यह समझकर उत्तर भारत से निकले नेता अपने इलाके की राजनीति से जल्द पल्ला झाड़कर अपने लिए अगले दिल्लीश्वर की राष्ट्रीय छवि बनाते रहे हैं। लालकिले पर झंडा फहराकर जोशीला भाषण देते हुए अपनी इलाकाई जनता उनके लिए हाशिये पर होती है। उनके विपरीत दक्षिणी नेता चुनाव जीतकर अपने सूबों में पिलकर काम करते हैं। यही वजह है कि कोविड, बाढ़, सुखाड़, और पर्यावरण क्षरण की मार के बावजूद उत्तर की तुलना में दक्षिणी राज्य आर्थिक, स्वास्थ्य कल्याण और आपदा प्रबंधन के पैमानों पर बीस ही साबित होते हैं।
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उपेक्षित होने के बाद भी क्या वजह है कि भारत का बहुमत उत्तरी महानायक की ही झोली भरता है? ‘आईडेंटिटी’(आत्मछवि) नामक ताजा पुस्तक में जाने- माने लेखक इतिहासकार फुकुयामा ने दुनिया के सभी लोकतांत्रिक देशों की जनता को उभरते व्यक्ति पूजन और लोकलुभावन राष्ट्रवाद से बचने की सलाह दी है। 2020 में कई लोकतांत्रिक देशों में एक के बाद एक ऐसे ही करिश्माती लेकिन एकाधिकारवादी नेता काबिज हो गए हैं, जो आम चुनावों में बहुमत की सीढ़ी पर सवार होकर शिखर तक आते हैं और जल्द ही राष्ट्रवाद के नाम पर उसी सीढ़ी को हटाकर अलोकतांत्रिक, एकाधिकारवादी, नस्लवादी और अपने अमीर चुनावी मददगारों के पक्षधर बन जाते हैं। राष्ट्रीय असुरक्षा का हौव्वा खड़ाकर जनता के सारे मंचों : संसद, विधायिका या न्यायपालिका की मुश्कें कस दी जाती हैं। और समुदाय विशेष को गैर-राष्ट्रवादी बताकर देश की सारी कमान महानायक अपने हाथों में ले लेते हैं। इधर यह काम आसानी से होता है, क्योंकि डिजिटल तकनीकी कौशल से ऐसे महानायकों के गढ़े-गढ़ाए व्यक्तित्व की छलनी जनता को थमाकर उसी से राष्ट्र को देखने-परखने का हुक्म दिया जाने लगा है।
फुकुयामा याद दिलाते हैं कि लोकतांत्रिक राष्ट्र किसी करिश्माती नेता की सनकी अवधारणा से नहीं, नेतृत्व और जनता के बीच संवाद से ही बनते हैं। आइए, इस 15 अगस्त को मोह निद्रा त्यागकर कुछ पल इस चेतावनी पर सोचें।
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