विचार

आकार पटेल का लेख: वाजपेयी से ज्यादा नायपॉल को थी हिंदुत्व की समझ

नायपॉल ने निष्कर्ष दिया कि हिन्दू कुछ भी गहराई से देखने में असमर्थ थे क्योंकि सदियों के इस्लामिक शासन के जरिये वे बौद्धिक रूप से उपनिवेश बने रहे। उन्हें लगा कि बाबरी मस्जिद के खिलाफ चला आंदोलन सकारात्मक था और मस्जिद के ध्वंस से अच्छी चीजें सामने आएंगी।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी और लेखक विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल

दो मशहूर लोगों की मौत हो गई है और उनके बारे में कई चीजें लिखी जा चुकी हैं। यह भारत में हमारी परंपरा है – और कमोबेश दुनिया में भी – कि मृत लोगों के बारे में सिर्फ अच्छी बातें बोली जाएं। लेकिन कोई भी परफेक्ट नहीं होता और हमें इसे लेकर ईमानदार रहना चाहिए।

इसी समझ के साथ हम इन दोनों पर नजर डालते हैं जो दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं। उनमें ज्यादा दिलचस्प लेखक वीएस नॉयपाल हैं। उनका पहला नाम विद्याधर था और वे त्रिनिदाद के थे, उस जगह को हम भारतीय मूल के क्रिकेट खिलाड़ियों सुनील नारायण और दिनेश रामदीन की वजह से जानते हैं।

इन लोगों के बिहारी पुरखे 150 साल पहले वहां कुछ समय के लिए ठेके के गुलाम (जिसे बंधुआ मजदूर भी कहा जाता है) बनकर गए थे। उस जगह को हम वेस्टइंडीज कहते हैं। वे वहां चीनी मिलों में काम करने गए थे। लेकिन जब उनकी गुलामी का काल खत्म हो गया तब उनके पास घर लौटने के पैसे नहीं थे और इसलिए वे वहां रह गए। उन्होंने वहां अपनी भारतीय-कैरिबियाई संस्कृति विकसित की।

नॉयपाल कोई भारतीय भाषा नहीं जानते थे और सिर्फ स्पैनिश और अंग्रेजी बोलते थे। उन्हें लगता था कि उनका पहला नाम विदिया लातिन और अंग्रेजी में कहे जाने वाले वीडियो (जिसका मतलब होता है ‘मैंने देखा’) से आया था।

वे छात्रवृति पाकर ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ने गए और बाद में लंदन में बीबीसी में काम किया। 20 की उम्र पार करने के बाद उन्होंने कुछ उपन्यासों और यात्रा वृतांतों को लिखना शुरू किया। अपने लेखन में उन्होंने संस्कृतियों का परीक्षण किया और उनके अंतर और कमियों के बारे में ध्यान दिलाया। उनके पास चीजों का पर्यवेक्षण करने की असाधारण क्षमता थी, वे किसी भी चीज को सिर्फ देखकर उसकी गहराई तक चले जाने में सक्षम थे। उदाहरण के लिए, वे ईरान गए और उन्होंने तुरंत देखा कि ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में अपनाए गए ग्रेजुएशन गाउन का मूल स्त्रोत शिया धार्मिक नेताओं का पहनावा था जो अब पूरी दुनिया के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में चलता है।

नायपॉल ने लिखा कि भारतीयों के पास पर्यवेक्षण की यह क्षमता नहीं थी। भारतीय जो विदेश जाते थे, वे ग्रामीणों की तरह थे जो अपनी संस्कृति और विदेश में देखी गई चीजों में अंतर करने में असमर्थ थे, खासतौर पर पश्चिमी देशों की चीजों को लेकर। वे दुनिया को लेकर कई मायनों में दृष्टिहीन थे।

उन्होंने बाद में कमियों से भरे भारतीय का सिद्धांत गढ़ा। जब वे 1960 के दशक में भारत आए तो वे इस बात से काफी परेशान हुए कि यह क्यों इतना गंदा और अक्षम है। भारत पर उनकी पहली किताब ‘एन ऐरा ऑफ डार्कनेस’ इस बात को रिकार्ड करती है कि भारत में ज्यादातर चीजें कितनी खराब थीं। उन्होंने कहा कि उन्होंने जो देखा उससे वे इसलिए चकित थे क्योंकि अभिभावकों और संबंधियों ने यह कहानी बताई थी कि भारत एक अजूबा देश है। उन्होंने कहा कि ‘एन ऐरा ऑफ डार्कनेस’ लिखना उनके लिए आसान नहीं था।

नायपॉल को भारत में लगभग वे सभी नापसंद करते थे जिन्होंने उनकी किताबें पढ़ी थीं (ज्यादा लोगों ने नहीं पढ़ी थीं) या मीडिया में आई खबरों के जरिये इस बात से वाकिफ थे कि उन्होंने क्या कहा। यह ज्यादा सामान्य तरीका था जिसके जरिये लोग इस लेखक के अस्तित्व को जानते थे। भारतीयों के खिलाफ नायपॉल का एक और आरोप यह था कि हम पढ़ते नहीं हैं। उन्होंने दावा किया कि ज्यादातर भारतीयों ने न गांधी की आत्मकथा पढ़ी है और न नेहरू की, लेकिन दोनों पर उनकी काफी मजबूत राय है। बॉम्बे के कवि निसीम इजेकिल ने ‘एन ऐरा ऑफ डार्कनेस’ पढ़ा और उन्होंने उसकी प्रतिक्रिया में ‘नायपॉल का भारत और मेरा भारत’ लिखा।

फिर भी नायपॉल ने भारत के अपने सिद्धांत को बाद में विकसित किया। उन्होंने निष्कर्ष दिया कि हिन्दू दृष्टिहीन और भीतर की ओर देखने वालों में थे और कुछ भी गहराई से देखने में असमर्थ थे क्योंकि सदियों के इस्लामिक शासन के जरिये वे बौद्धिक रूप से उपनिवेश बने रहे। उन्हें लगा कि बाबरी मस्जिद के खिलाफ चला आंदोलन सकारात्मक था और मस्जिद के ध्वंस से अच्छी चीजें सामने आएंगी। कुछ मामलों में हिंसा हिंदुओं के मनोबल को बढ़ाएगी और उन्हें ज्यादा जीवंत करेगी। यह कहने के बाद उन्हें फिर से कई भारतीयों द्वारा नापसंद किया गया। यह सच्चाई है कि किसी साक्ष्य के जरिये वे इस बात को साबित करने में सक्षम नहीं थे। यह तो बस उन्हें महसूस हुआ था।

अब हम दूसरे मशहूर व्यक्ति पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर आते हैं जो हमें छोड़कर चले गए। उन्हें आज एक भद्र पुरुष समझा जाता है जो कई वजहों से अपनी पार्टी के बाकी लोगों से अलग थे। यह उनका सबसे खास पहलू था। वाजपेयी को हर तरह की राजनीति करने वाले लोग पसंद करते थे क्योंकि अल्पसंख्यकों पर हमला करने वाली राजनीति और संस्कृति से जुड़े होने के बावजूद वे उदार थे। उनके नेतृत्व में बीजेपी ने तीन मुद्दों को अपनाया - बाबरी मस्जिद, जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायतत्ता खत्म करना और भारत के मुसलमानों के पर्सनल लॉ को समाप्त करना। उन्होंने इन तीनों मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए आडवाणी के साथ मिलकर काफी मेहनत की, वे धर्म-आधारित ताकतवर भावनाओं को हमारी राजनीति में शामिल कराने में सक्षम हुए, जो राष्ट्रीय स्तर पर पहले चार दशकों में नदारद थी। बीजेपी को इससे काफी फायदा हुआ और वाजपेयी और आडवाणी के कार्यों की वजह से ही बीजेपी आज हमारे देश की मुख्य राजनीतिक पार्टी बन सकी है।

Published: 19 Aug 2018, 9:55 AM IST

वाजपेयी विचारधारा के प्रति समर्पित थे क्योंकि उन्होंने ईमानदारीपूर्वक हिंदुत्व में भरोसा किया था लेकिन वे कट्टरपंथ या हिंसा को पसंद नहीं करते थे। इस चीज ने उन्हें उस पार्टी में बेमेल बना दिया, जो अनिवार्य रूप से लड़ाई-झगड़ों के लिए उत्साही थी जैसा कि नायपॉल उसे होते हुए देखना चाहते थे। पहली एनडीए सरकार के दौरान गौरक्षकों की हिंसा जैसी चीजें इसलिए नहीं हुईं क्योंकि वाजपेयी में एक दोहरापन था। वे गाय को बचाना चाहते थे लेकिन इस भावना द्वारा फैलने वाली हिंसा के साथ वे सहज नहीं थे। इस अंतर्विरोध की वजह से वाजपेयी को पसंद किया गया और जार्ज फर्नांडिस और ममता बनर्जी जैसे लोग उनकी सरकार से जुड़े।

इस स्थिति की समस्या 2002 में तब सामने आई जब वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री को हटाना चाहा लेकिन कार्यकर्ताओं ने यह होने नहीं दिया। किसी भी संस्था में जो कट्टर विचारधारा से चलती है, वहां उदार नेता हमेशा कट्टर नेता के आगे कमजोर साबित होता है क्योंकि समर्थक यही चाहते हैं। यह उस आंदोलन की एक स्वाभाविक परिणति थी जिसे वाजपेयी और आडवाणी ने शुरू किया था। हालांकि वाजपेयी शायद इसे समझ नहीं पाए, लेकिन नायपॉल ने इसे जरूर समझा था।

Published: 19 Aug 2018, 9:55 AM IST

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Published: 19 Aug 2018, 9:55 AM IST

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