विचार

खरी-खरीः अंधकार में देश का मुस्लिम समाज, क्रांति के लिए मुल्ला-मौलवी नहीं, एक और सर सैयद चाहिए

कोई भी सामाजिक क्रांति घोर अंधकार में ही उत्पन्न होती है। मुस्लिम समाज को भी इस समय सामाजिक क्रांति की आवश्यकता है। और यह क्रांति किसी राजनीतिक दल के सहारे नहीं उत्पन्न हो सकती। यह क्रांति स्वयं मुस्लिम समाज को ही उत्पन्न करनी होगी।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

इस समय इस देश का मुस्लिम अल्पसंख्यक समाज जितना असहाय और लाचार महसूस कर रहा है, ऐसी बेबसी का एहसास उसको स्वतंत्र भारत में कभी नहीं हुआ। देश के बंटवारे के समय भी उसको घोर अंधकार का सामना करना पड़ा था, लेकिन तुरंत ही गांधी जी के नेतृत्व ने उसको संभाला और जवाहरलाल नेहरू ने उसे आत्मविश्वास दिया।

परंतु अयोध्या-2 प्रकरण के बाद उसे अपने भविष्य की चिंता है, क्योंकि नरेंद्र मोदी के शासन में कोई भी ऐसी बात नजर नहीं आती है जिससे उसे सांत्वना मिले अथवा आशा की किरण दिखाई दे। पिछले छह वर्षों में इस समाज पर जो बीती है, उसे एक बुरा सपना ही कहा जा सकता है। साल 2014 में मोदी शासन के साथ ‘मॉब लिचिंग’ का उदय हुआ और ‘अखलाक प्रकरण’ ने उसको स्वयं अपने घरों में असुरक्षित महसूस करने पर मजबूर कर दिया।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

फिर, भारतीय राजनीति ने हिंदुत्व की रफ्तार इतनी तेजी से पकड़ी कि मुसलमान दूसरी श्रेणी के नागरिक की पंक्ति में खड़ा दिखाई पड़ने लगा। पिछले छह महीनों में उसके अधिकार देखते-देखते उसकी आंखों के सामने खत्म होते गए। अब नौबत यह है कि उसकी नागरिकता तक खतरे में है। वह तो कोरोना की महामारी ने अभी उसको कुछ राहत दे दी, नहीं तो राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर की तैयारी के साथ-साथ पहले वह ‘डी कैटेगरी’ नागरिक की श्रेणी में धकेला जाता और इस प्रकार उसका वोट डालने का अधिकार भी चला जाता। अंततः वह असम के मुसलमानों की तरह डिटेंशन कैंपों में पड़ा होता। लेकिन नागरिकता के संशोधित कानून की तलवार अभी भी उसके सिर पर लटक रही है और पता नहीं कब वह अपनी नागरिकता से हाथ धो बैठे।

भगवान किसी समाज पर ऐसा बुरा वक्त न डाले! आज भारतीय मुसलमान का कोई नेतृत्व नहीं है, उसकी कोई आवाज नहीं है, उसका वोट बैंक बेमानी हो चुका है और किसी भी राजनीतिक दल में उसका कोई वजन नहीं है। उसका वर्तमान और भविष्य- सब अंधकार में है। वह जाए तो जाए कहां और करे तो क्या करे, यह बताने वाला और इस अंधकार में उसको आशा की किरण दिखाने वाला कोई गांधी और नेहरू नहीं है। अब तो केवल मोदी शासन है और संघ की राजनीति है। वह क्या करे और कौन सा रास्ता अपनाए, यह प्रश्न उसके सामने एक पहाड़ के समान खड़ा है, जिसका उत्तर किसी की भी समझ में नहीं आता है। चारों ओर पतन ही पतन दिखाई पड़ता है, जिससे उबरने की राह दिखाई नहीं पड़ती है।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

वैसे, मुस्लिम समाज के पतन की कहानी कोई नई नहीं है। साल 1857 में मुगल शासन के पतन के समय से मुस्लिम समाज का जो पतन आरंभ हुआ तो वह थमने का नाम ही नहीं लेता है। हैरत की बात यह है कि मुस्लिम समाज ने तब से लेकर आज तक अपने पतन के कारणों और उसके समाधान की ओर ध्यान ही नहीं दिया। आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया परंतु जब मोहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग की सियासत शरू कर दी तो एक बड़ा समूह जज्बात में उधर बह निकला। बंटवारा हुआ और भारतीय मुसलमान अपने ही घर में असहाय हो गया।

आजादी के बाद भी मुस्लिम समाज में अपनी उन्नति और प्रगति के लिए कोई हलचल नहीं दिखाई पड़ी। सर सैयद अहमद खां ने मुस्लिम समाज को आधुनिकता से जोड़ने के लिए जो एक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाया था, उसके अतिरिक्त वैसा कोई दूसरा प्रयास कहीं फिर दिखाई नहीं पड़ा। हां, गांधी जी के नेतृत्व में दिल्ली में जामिया मिल्लिया इस्लामिया जैसा एक और विश्वविद्यालय जरूर खुला। इसके अतिरिक्त शिक्षा के क्षेत्र में कोई सराहनीय कदम नहीं उठा। नतीजा, आज मुस्लिम समाज में ग्रेजुएट की संख्या दलित समाज के ग्रेजुएट की संख्या से भी कम है।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

जिस समाज में शिक्षा नहीं, वह इस दौर में पतन के अलावा और क्या झेलेगा। किसी एक समाज की उन्नति और प्रगति का बीड़ा राजनीतिक दल नहीं उठा सकते हैं। यह जिम्मेदारी स्वयं समाज की अपनी होती है। भारतीय मुस्लिम वर्ग में आजादी के बाद ऐसा कोई सामूहिक प्रयास कहीं नहीं दिखाई पड़ता है। स्पष्ट है कि शिक्षा नहीं तो केवल पतन ही पतन है, जो मुस्लिम समाज झेल रहा है।

फिर, मुस्लिम समाज ने जो दूसरी बड़ी गलती की, वह नेतृत्व के संबंध में थी। खासकर पिछले लगभग तीन दशकों में इस समाज का नेतृत्व ऐसा रहा, जिसने न केवल मुस्लिम समाज के लिए गड्ढे खोदे अपितु देश में हिंदुत्व की राजनीति को भी ताकत दी। शाहबानो प्रकरण के बाद वह चाहे तीन तलाक का मुद्दा रहा हो अथवा बाबरी मस्जिद का मुद्दा हो, इन सारे मामलों में मुस्लिम प्रतिक्रिया से हिंदू प्रतिघात (बैक्लैश) ही उत्पन्न हुआ।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

तीन तलाक की मुस्लिम मांग ने संघ और बीजेपी को यह मौका दिया कि वह हिंदू समाज में यह दुष्प्रचार कर सके कि तीन-चार शादियां करके भारतीय मुसलमान इस देश में हिंदू आबादी को अल्पसंख्यक बनाना चाहता है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इस मामले में जितना शोर मचाया, संघ प्रचार की उतनी ही साख बनती गई और देश में हिंदू प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई।

इसी प्रकार बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने जिस प्रकार का धार्मिक और जज्बाती आंदोलन चलाया, उससे संघ और बीजेपी को इस प्रकार कहने का मौका मिला कि मुसलमान जहां चाहे मस्जिद बनाएं परंत क्या उसके ‘रामलला’ के लिए उनकी जन्मभूमि पर भी मंदिर नहीं बन सकता है। बस, बीजेपी को राजनीति और धर्म के मिश्रण का ऐसा अवसर मिल गया कि उसने देखते-देखते ऐसा सशक्त हिंदू वोट बैंक तैयार कर लिया कि अब उसके आगे सभी राजनीतिक दल असहाय हैं और भारत हिंदू राष्ट्र का स्वरूप ले रहा है।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

अब स्थिति यह है कि बस अंधकार ही अंधकार है। परंतु घबराइए मत ! सामाजिक क्रांति घोर अंधकार में ही उत्पन्न होती है। मुस्लिम समाज को भी इस समय सामाजिक क्रांति की आवश्यकता है। यह क्रांति किसी राजनीतिक दल के सहारे नहीं उत्पन्न हो सकती है। यह क्रांति स्वयं मुस्लिम समाज को उत्पन्न करनी होगी। सामाजिक क्रांति का सीधा संबंध सामूहिक विचारधारा से होता है। मुस्लिम समाज को अब एक नवीन विचारधारा की आवश्यकता है।

और वह विचारधारा अतीत से नहीं उत्पन्न होगी, अपितु वह धारा वर्तमान से ही मिलेगी। सर सैयद ने उसका एक रास्ता आधुनिक शिक्षा के जरिये दिखाया था। उसके बिना तो कोई समाज उन्नति कर ही नहीं सकता है। परंतु केवल आधुनिक शिक्षा से ही काम चलने वाला नहीं है। मुस्लिम समाज को खुद को आधुनिकता से जोड़ना होगा, अर्थात उसकी फिक्र आधुनिकता से जुड़ी हो।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

यह काम हिंदू समाज में जवाहरलाल नेहरू ने किया था। मुस्लिम समाज में इस काम को सर सैयद-जैसा आधुनिक विचारों का व्यक्ति ही कर सकता है। इस काम को मुस्लिम मौलवी अथवा मुल्ला समूह या उसका रवायती नेतृत्व जैसे पर्सनल लॉ बोर्ड अथवा बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी- जैसे जज्बाती प्लेटफॉर्म नहीं कर सकते हैं।

इस अंधकार में मुस्लिम समाज को एक वैचारिक क्रांति के लिए स्वयं को सामूहिक रूप से आधुनिकता अर्थात नए दौर के तकाजों से जोड़ना होगा। और यह काम मौलवी-मुल्ला अथवा जज्बाती नेतृत्व से नहीं हो सकता है। इस काम के लिए मुस्लिम समाज को एक नए सर सैयद की आवश्यकता है क्योंकि सर सैयद- जैसी दृष्टि ही मुस्लिम समाज में फैले अंधकार और पतन को दूर कर सकती है।

Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

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Published: 07 Aug 2020, 8:00 PM IST

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