नरेंद्र मोदी सरकार तीन कृषि-व्यापार कानूनों को वापस लेने की प्रक्रिया शुरु कर चुकी है। ऐसे उसे मजबूरी में ही करना पड़ रहा है। लेकिन विभिन्न किसान संगठनों के समूह- संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री मोदी को लिखे पत्र में अपनी अन्य मांगों की ओर उनका ध्यान दिलाया है। इनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और इसकी गणना है।
यह गणना ही महत्वपूर्ण है। अभी फसल के लिए लगाए गए सभी खर्च और श्रम मूल्य को जोड़ा जाता है। इसे ए 2+एफएल कहते हैं। मोर्चा का कहना है कि इसे सी 2+50% फॉर्मूला होना चाहिए, मतलब, लगाई गई लागत समेत व्यापक खर्च और किसान की अपनी जमीन के किराये के आधार पर इसका आकलन करना चाहिए। इसे स्वामीनाथन फॉर्मूला कहते हैं। 2007 में प्रो. एम एस स्वामीनाथन के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने इसकी सिफारिश की थी। सत्ता में आने से पहले 2014 में बीजेपी ने किसानों से इसी फॉर्मूले को लागू करने का अपने चुनाव घोषणा पत्र में वादा किया था।
कॉरपोरेट समूह के लोग और बाजार-समर्थक ध्वजवाहक एमएसपी को सोशलिस्ट युग की निशानी मानते हैं जिसे वह यह समझे बिना हटा देने की जरूरत बताते हैं कि खुले बाजार की अर्थव्यवस्था को लेकर किसानों का अनुभव न सिर्फ कड़वा है बल्कि यह अभूतपूर्व आर्थिक और इसलिए सामाजिक बेचैनी से भरा है। ध्यान देने की बात है कि कृषि संकट अब तीसरे दशक में पहुंच चुका है और इसके समाप्त होने के कोई लक्षण नहीं हैं।
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इस अर्थ में, किसानों के विरोध ने पिछले सात साल के दौरान एमएसपी और सरकार द्वारा खरीदे जाने वाली खाद्यान्न संरचना को तहस-नहस करने की भाजपा-नीत केन्द्र सरकार की कोशिशों को विफल कर दिया है। इसके तहत ही सरकार जरूरतमंदों को खाद्यान्न के बदले सीधे उनके खाते में नगद देकर सार्वजनिक वितरण व्यवस्था (पीडीएस) को खत्म करने के प्रयास में है। हरित क्रांति के तीन आधार थे- अच्छी पैदावार, अच्छी और लाभकारी कीमत और समय पर सरकारी खरीद। इससे ही गरीबों को अनाज मिले और देश में अतिरिक्त खाद्यान्न भंडार भी बढ़ता रहा। यह कोई भी समझ सकता है कि एमएसपी व्यवस्था और कृषि व्यवस्था की वर्तमान स्थिति में कोई समस्या नहीं है। लेकिन किसी ऐसी सर्वसमावेशी रणनीति, जिसमें किसानों की बातें भी शामिल की जाएं, ईमानदार सरकारी मदद और आय में बढ़ोतरी के बिना ही पुरानी व्यवस्था में बदलाव किसी अबोध बालक को गहरे पानी में छोड़ देने जैसा है। समझदार पूंजीवादी आर्थिक औचित्य एक बात है, मित्र-भाई- भतीजावाद वाली पूंजी व्यवस्था एकदम दूसरी। पहले के पक्ष में बात करते हुए दूसरी व्यवस्था लागू करना न तो ईमानदार राजनीति है, न ही यह अच्छी अर्थव्यवस्था है।
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अगर एमएसपी से लागत खर्च न भी पूरी हो रही हो, तब भी यह इस बात को जानने-समझने के लिए एकमात्र पैमाना बना रहता है कि लगभग उन 23 फसलों के लिए किसान क्या खर्च कर रहे हैं जिन पर एमएसपी तय किए जाते हैं। फसल उगाने के खर्च इलाका-दर-इलाका बदल जाते हैं। और यह तब तक पर्याप्त नहीं हैं जब तक सरकार दखल नहीं देती, उसी कीमत पर उन उत्पादों की खरीद मंडी में नहीं होती है, अन्यथा कीमतें एमएसपी से नीचे चली जाएंगी।
ऐसे अनगिनत अध्ययन हैं जो बताते हैं कि जिन फसलों पर एमएसपी लागू नहीं हैं, उनके लिए किसानों को कैसे कम कीमतें मिलती हैं और वे इसे औने-पौने बेचते हैं और निजी खरीददार नियमित मंडी से बाहर उन खाद्यान्नों को किस तरह हासिल करते हैं। एक उदाहरण तो बिहार का ही है जहां सरकार शायद ही दखल देती है और निजी मंडियों की कम ही पैठ है। दूसरी तरफ, पंजाब में मजबूत एमएसपी-सरकारी-खरीद व्यवस्था है और किसान अपनी उपज वाले अनाज की काफी ऊंची कीमत प्राप्त करते हैं और दूसरी जगहों तथा बिहार में किसान जिस दर पर बेचते हैं, उनकी तुलना में कहीं अधिक पर बेचते हैं।
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आज भी निजी व्यापारी बाजार में जा सकते हैं और एमएसपी से अधिक कीमत चुकाकर माल खरीदसकते हैं। कई राज्यों में वे ऐसा करते भी हैं। दरअसल, एमएसपी ऐसा मानक या पैमाना है जिससे नीचे कृषि उत्पाद की कीमतें कम नहीं होनी चाहिए। इस व्यवस्था को ही खत्म कर एमएसपी को बेकार बना देने के खेल को मोदी सरकार के कामों के जरिये किसानों ने समझ लिया। स्वाभाविक है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन्होंने जी-जान लगा दी।
कृषि उपज बाजार समितियां (एपीएमसी) 1940 के दशक में बनीं। वैसे, यह विचार अंतरराष्ट्रीय विकास मिशन के लिए अमेरिकी एजेंसी के मुख्य कृषि विशेषज्ञ डॉ. फ्रैंक डब्ल्यू पार्कर ने भी 1960 के आसपास दिया। डॉ. पार्कर केन्द्रीय खाद्य और कृषि मंत्रालय के सलाहकार भी थे। पहले उन्होंने फसल काटने के समय किसानों को कम फसल कीमत मिलने की समस्या की ओर ध्यान दिलाया और भारत सरकार से सिफारिश की कि उसे फसल आने से कम-से-कम एक साल पहले सभी प्रमुख फसलों के लिए न्यूनतम या समर्थन मूल्य की घोषणा करनी चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि फसल पैदावार के लिए सबसे बड़ा आर्थिक प्रोत्साहन कीमतों का संतुष्टिपूर्ण और भरोसेमंद स्तर है।
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बाद में, केन्द्रीय खाद्य और कृषि मंत्री सी सुब्रह्मण्यम ने 1964 में उस विचार पर अमल किया और दो संस्थाएं बनाईं: कृषि मूल्य आयोग जो अब कृषि लागत और मूल्य आयोग या सीएसीपी है और भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) जिसका प्राथमिक काम एपीएमसी में एजेंसियों की तैनाती कर एमएसपी-आधारित सरकारी खरीद की देशव्यापी व्यवस्था की देखरेख था। लेकिन काफी वक्त से किसानों की यह शिकायत रही है कि एमएसपी पर कोई कानूनी बंधन नहीं है। अगर खुले बाजार में कीमतें एमएसपी से कम हो जाती हैं जैसा कि अक्सर हो जाता है, और जब तक सरकारी खरीद नहीं होती है, इसे लागू किए जाने की कोई गारंटी नहीं है।
संयुक्त किसान मोर्चा की मांग का कारण यही है। बाजार की अनिश्चितता, वैश्विक बाजार में अस्थिरता की वजह से असर, द्विक्षीय और बहुपक्षीय व्यापार समझौतों की श्रृंखला ने कई बार किसानों को घाटा पहुंचाया है। उन्हें यकीन है कि अगर एमएसपी को कानूनी तौर पर लागू किया जाए, तो कीमतों में स्थिरता रहेगी।
(लेखक नागपुर में रहते हैं। वह पीपुल्स आर्काइव ऑफ इंडिया की कोर टीम के सदस्य हैं। उनकी किताब है- ‘रामरावः द स्टोरी ऑफ इंडियाज फार्म क्राइसिस’)
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