वरिष्ठ कामकाजी महिलाओं के द्वारा बड़े-बड़े ओहदों पर काबिज यौन उत्पीड़कों को बेनकाब करने वाले #मीटू अभियान की शुरू में (जैसी हमेशा होती है) खूब निंदा हुई। पर उसकी तहत यौन दुराचार की पीड़िता वरिष्ठ पत्रकार प्रिया रमानी ने मीडिया में बयान दिया कि 1993 में उसके साथ तब देश के सबसे सफलतम सपादकों में से एक ने (जो उस समय तक राज्यसभा सांसद तथा केंद्र में राज्यमंत्री बन गए थे) अखबारी नौकरी देने के नाम पर उसके साथ गंभीर छेड़खानी की थी। बात दूर तलक गई। रमानी की रपट में उत्पीड़क का नाम नहीं था, पर बात बढ़ने पर कथित आरोपी को मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। उसके बाद 2018 में दिल्ली की एक अदालत में तत्कालीन विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर ने यह आरोप लगा कर रमानी के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा दायर किया, कि वह उनके ही दफ्तर में काम करती रही थीं, लिहाजा उन्होंने कई बरस बाद झूठमूठ अपने विगत बॉस की सार्वजनिक छवि धूमिल करने वाला आरोप लगाया था। मुकदमे की सुनवाई 2021 तक चली। ताजा फैसला रमानी को राहत देता है लेकिन आरोपी के सामने फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देने संभावना खुली हुई है।
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बहरहाल मजिस्ट्रेट का यह फैसला स्वागत योग्य है। यह ताकतवर ओहदों पर बैठे पुरुषों को किसी भी स्तर की कामकाजी महिला की गरिमा और आत्मसम्मान को तोड़ने वाले सलूक की कड़ी निंदा करता है। ‘किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा की सुरक्षा किसी के सम्मान की कीमत पर नहीं की जा सकती है,’ कहने वाला यह फैसला बदलते समय का संकेत है। यह भी सराहनीय है कि प्रिया के मुंह खोलने के बाद भारत की दर्जनों वरिष्ठ सम्मानित महिला मीडियाकर्मी उनके समर्थन में सामने आईं और कुछ महिला सहकर्मियों ने निजी साक्ष्य देकर पीड़िता के बयान की तसदीक की। मीडिया में मीडिया के शिखर पुरुषों पर सुर्खियां बनवाने वाले इस प्रकरण से महिला उत्पीड़न की रोकथाम के संशोधित कानूनों को लागू करने वाली मशीनरी तथा दफ्तरों में ऐसे दुराचार की त्वरित सुनवाई के प्रकोष्ठों की कुछ कमियां भी उजागर हुई हैं जिनपर अब विचार होना चाहिए।
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पहली कमी निर्भया से लेकर हाथरस और उन्नाव तक के मामले दिखाते हैं। महिला यौन शोषण पर गरीब दलित बच्चियां हों या उच्च वर्गीय महिला मीडियाकर्मी, स्थानीय समाज और एक ताकतवर आरोपी के खिलाफ आरोप लगा रही महिला के प्रति पुलिस प्रशासन की पहली प्रतिक्रिया संवेदनशील नहीं दिखती। साफगोई मध्यवर्गीय महिलाओं की तरफ से आई तो उसे भी एक खाती-पीती लिबरल महिला का आत्म विलास बता कर खारिज करने वाले खुद गोदी मीडिया में भी कम नहीं थे। यह सही है कि आजादी के बाद मध्यवर्गीय परिवारों की पढ़ी-लिखी कामकाजी महिलाओं के बीच आत्मविश्वास और अपनी मानवीय गरिमा का अहसास बढ़ा है। आज के कई परिवार खुली अग्रगामी सोच रखते हैं और पति और उनके रिश्तेदार भी बहू के घर की चहार दीवारी से बाहर आकर मनचाहे क्षेत्र में काम करने की आजादी का समर्थन ही नहीं करते, पति भी प्रिया रमानी के पति की तरह मुकदमे के सारे दौरान अपनी पत्नी के साथ मजबूती से खड़े रहते हैं। यह नई जमात है जो आजादी के बाद के शुरुआती दशकों की महिलाओं की कामकाजी पीढ़ी के गिर्द की जमात से फर्क है। मध्यवर्ग की पढ़ी-लिखी लड़कियों की जिस पहली जमात ने तमाम तरह के कड़वे अनुभवों से गुजर कर भी उच्च शिक्षा संस्थानों में पढ़ाने से लेकर मीडिया तक हर क्षेत्र में पैठ बनाई और अपनी मेहनत और हुनर से लगातार तरक्की करती हुई उच्चतम ओहदों पर आईं, उनको अपने संघर्ष का फायदा परवर्ती पीढ़ियों को मिलता देख कर सच्ची खुशी हो रही है। यह नई पीढ़ी अब पहले की तरह समान वेतन या सेफ महिला शौचालय बनवाने या क्रेश सुविधा पाने की ही मांग नहीं करती। लोक लाज का डर छोड़कर वह अपनी कामकाजी जिंदगी के कटुतम अनकहे सच को भी कई साल बाद ही सही, बेझिझक सामने ला रही है। कई लोगों को यह अजीब लगा किरमानी इतनी देर बाद सामने क्यों आईं। निश्चय ही वे इस सच से अनजान बन रहे हैं कि आज से 25 साल पहले यौन शोषण पर महिलाओं द्वारा बिना नौकरी और सामाजिक प्रतिष्ठा गंवाए गंभीर प्रतिवाद करना असंभव था। चुटकुलों से लेकर छेड़खानी तक पुरुषों की छेड़छाड़ को महिलाओं ने सालों तक किसी तरह दांत भींच कर बर्दाश्त किया। पर उससे उनकी आत्मा पर जो खरोंचें पड़ीं, उनका काम दुष्प्र भावित हुआ, यह अनकहा ही रहा आया। अब समय बदल चुका है। दुनियाभर में पुरुष दबंगई और यौन दबावों पर महिलाओं के सशक्त पलटवार से आत्मविश्वास जुटा कर आज की भारतीय महिलाएं और उनके समर्थक हर यौन उत्पीड़क का खुलकर नाम लो और उसे शर्मिंदा करो (नेम एंडशेम) की पक्षपाती बन गई हैं।
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शहर से गांव तक घरों या कार्यक्षेत्रों में बच्चियों और युवतियों का यौन उत्पीड़न होता है, यह बात तो कई रिपोर्टें उजागर करती रही हैं। पर आज सम्मानित और वरिष्ठ महिला पत्रकारों के चुप्पी तोड़ने से मार्फत देश जान रहा है कि कम उम्र में काम पर आते ही महिला के चरण-दर-चरण यौन दुर्व्यवहार का स्वरूप और पुरुष सहकर्मियों का यौन दुष्कर्मी का बचाव किस तरह होता रहा है। हम यह भी पा रहे हैं कि कई उत्पीड़क किस तरह अपने बचाव में महिला की नीयत या चरित्र पर शक की उंगली उठा कर उसे ही गलत किस्म की महिला बताते हैं। साथ ही वे जानते हैं कि अधिकतर पीड़िताओं की हैसियत उनसे बहुत कम है इसलिए उनको बार-बार मानहानि के मुकदमे की तहत अदालत में लाना भी कई पीड़िताओं को सच बयानी को लेकर डर और हिचकिचाहट से भर देगा।
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मानहानि के इस मुकदमे से उभरी तीन बातों पर आगे काम होना चाहिए। एक तो यह कि अगर हम लगातार महिलाओं को अच्छी तालीम देकर उनको पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का सपना दिखाते हैं, तो क्या इसका दाय राज-समाज, खासकर कानून और प्रशासकीय संस्थाओं पर नहीं बनता कि युवतियों के शोषण की हर शिकायत को, खासकर अगर वे यौन उत्पीड़न से जुड़ी हों, संशोधित यौन उत्पीड़न निरोधी कानूनों के उजास में परख कर उनको तुरत- फुरत न्याय मिले? दूसरे, राजनीतिक स्पर्धा और चुनावी प्रचार को ढाल बनाकर यौन शोषण के मामलों को राजनीतिक शत्रुता की तहत रचा गया षड्यंत्र बताने का क्रम भी खत्म किया जाए। तीसरे, पीड़िता के समर्थन में आए मीडिया के सर सारा ठीकरा फोड़ते हुए इसे महज टीआरपी बढ़वाने का हथकंडा या सोशल मीडिया में पैठे ट्रोल्स का काला कारनामा बताकर रफा-दफा न किया जाए। औसत वोटर संविधान की बारीकियां नहीं जानता। पर वह यह अच्छी तरह जानता है कि बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को जबरन खाने वाला मत्स्य न्याय न आए, कानून का अंकुश प्रभावी बना रहे इसके लिए राष्ट्रीय जीवन के हर क्षेत्र में मन से या बेदिली से ही सही, कुछ पवित्र आचरणों का पालन जरूरी है। इनमें से एक है कि सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण जिस किसी पर इतने सारे घृणित आरोप हों, उनका राजनीतिक दुर्भावना की चिंदी सामने रखकर बचाव न किया जाए। वे खुद बेशर्मी दिखाते हुए चिपकें भी, तो भी उनको कम से कम कानूनी कार्रवाई का नतीजा आने तक वापिस पैविलिय नहीं न भेजा जाए, खेल मैदान से भी बाहर बिठाया जाए।
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तीन बातों से समझदार न्याय प्रिय लोगों को अब भी चुभन महसूस हो रही है और अगर हम लगातार महिलाओं को अच्छी तालीम देकर उनको पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का सपना दिखाते हैं, तो फिर इसका भी पूरा दाय राज- समाज, खासकर कानून और प्रशासकीय संस्थाओं पर है कि वे इनका निराकरण करें। एक- कार्य क्षेत्र में युवतियों के शोषण की हर शिकायत को, विशाखा कानूनों की तहत और निर्भया कांड के बाद वर्मा कमिटी के सुझावों से दोबारा संशोधित यौन उत्पीड़न निरोधी कानूनों के उजास में तुरत परखा जाए। और उत्पीड़ित को तुरत सुनवाई और न्याय मिले। दूसरे, राजनीतिक स्पर्धा और चुनावी प्रचार को ढाल बनाकर अपने लिए शर्मिंदगी पैदा करने वाले ऐसे किसी भी मामले को राजनीतिक शत्रुता की तहत रचा गया षड्यंत्र बताना बंद हो। तीसरे, मीडिया के सर सारा ठीकरा फोड़ते हुए इसे टीआरपी बढ़वाने का हथकंडा या सोशल मीडिया में पैठे ट्रोल्स का काला कारनामा बताकर हेकड़ी के साथ रफा-दफा न किया जाए। यह तीनों बातें आपस में जुड़ी हुई हैं, और संसद से सड़क तक परिमार्जित कानूनों का हवाला देकर या आरोपी को मृत्युदंड देने के परचम लहरा कर महिला सशक्तीकरण का दावा करने से स्थिति का कोई तसल्ली बख्श हल नहीं निकलेगा।
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