आज वह जमाना ‘आईने अकबरी’ युग का लगता है जब दिल्ली मे चार महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पत्रकार संस्थाओं ने संस्थागत तौर से पैसा वसूलकर राजनीतिक दलों की खबरें छापने के नए चलन (पेड न्यूज) पर पत्रकारों तथा बड़े दलों के राजनेताओं के बीच सार्वजनिक विमर्श की शुरुआत की थी। पत्रकारिता को लोकतंत्र का महत्वपूर्ण पाया मानने वाले सभी लोगों की दृष्टि से ऐसा गंभीर विमर्श जरूरी बनता था जिसमें पत्रकारिता के अलावा उससे जुड़े बाजार और राजनीति के साथ कुछ अचर्चित रिश्तों पर भी ईमानदार चर्चा हो और सभी पक्ष परस्पर दोषारोपण की बजाय एकसाथ इस खतरनाक प्रथा को खत्म करने के तरीके खोजें।
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बातचीत के दौरान यह सचाई निकली कि पेड न्यूज इक्का-दुक्का संस्थानों या सिर्फ भाषायी अखबारों तक ही सीमित नहीं है। पत्रकारिता जगत में इसकी झलकियां कई दशक पहले ही मिल रही थीं जब कुछ पत्रकार पहले खेल और फिल्म जगत फिर राजनैतिक दलों या उद्योग जगत से दबे- छुपे पैसे या भेंट लेकर खास किरदारों, पार्टियों तथा औद्योगिक उपक्रमों पर सकारात्मक खबरें लिखने और उनके प्रतिद्वंदियों के खिलाफ दुष्पप्रचार करने को राजी हो गए। यह भांप कर कुछेक संस्थानों को लगा कि वे खुद ही इस बहती गंगा में हाथ क्यों न धोएं? चुनाव पास थे और विश्वव्यापी मंदी की अभूतपूर्व मार से उबरने के लिए सभी हाथ-पैर मार रहे थे। इसलिए चुनावी विज्ञापनों को चुपचाप खबर का जामा पहनाने की विधि को संस्थागत रूप दे दिया गया।
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भारत में निवेशकों को खुश रखने के लिए सिर्फ मुनाफा बढ़ाने के लिए उत्पाद में मिलावट कराना और धंधई मानदंडों से ज्यादा आत्मप्रचार को तवज्जो देना कोई नई बात नहीं। लेकिन पिछली सदी के अंत तक पत्रकारिता की मुख्यधारा में काफी हद तक चुस्त भरोसेमंद संपादक और अपने पुश्तैनी अखबार की साख को कायम रखने को उत्सुक मालिकान काफी हद तक मीडिया में ईमानदार तटस्थता, धंधई अनुशासन और उत्पाद की गुणवत्ता की आधारशिला बने रहे। पर नई सदी में जैसे-जैसे निजी टीवी खबरिया चैनलों की पकड़ बाजार और विज्ञापन जगत पर मजबूत हुई, अब तक बड़ी तादाद में कॉरपोरेट उद्योग बन चुके अखबारों ने पेशेवर मनीजरों को संपादकीय के सर पर ला बिठाना शुरू कर दिया। संपादकों तथा ब्यूरो के प्रमुखों के नाम पर ऐसे जीवों का पदार्पण शुरू हुआ जिनके सरकारी तथा कॉरपोरेट तबकों से मधुर संबंध जगजाहिर थे और जिनको हर दिन का अखबार छपने से पहले मनीजरों से पन्ननों के मैटर और ले आउट पर स्वीकृति लेने से परहेज न था। संपादकीय स्वायत्तता के ऐसे अतिक्रमण पर पेशेवर कैसे चुप रह गए? इस सवाल का जवाब जटिल है और वह गूगल सर्च में नहीं, पत्रकारों की ठेके पर नियुक्ति, यूनियनों के ह्रास तथा बड़ं अखबारों की प्रिंट लाइन और टीवी के एंकरों के नामों में अंतर्निहित हैं। बाजारू प्रतिस्पर्धा के बीच स्वामित्व तथा संपादकीय के हित एकसार हो गए, तो पाठकों के सरोकारों तथा निवेशकों के आर्थिक हितों के बीच टकराव होने पर अंतिम फैसला अक्सर लक्ष्मी के पक्ष में ही जाने लगा, सरस्वती के नहीं।
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हिन्दी पत्रकारिता सम्मेलनों में ‘हिन्दी पत्रकारिता व्यवसाय नहीं, यह एक मिशन है जिसका असंदिग्ध नेता संपादक ही है, ...’ जैसी बातें चाहे कितनी बार सुनी जाती हों, यह सच है कि मालवीय जी तथा पराडकर जी के वक्त में भी हिन्दी के अधिकतर अखबारों का शुरुआती सांगठनिक ढांचा सामंती या व्यावसायिक घरानों की पूंजी की मदद से ही खड़ा किया गया था। इसका बड़ा गहरा असर भाषायी पत्रकारिता पर पड़ा और उनकी मानसिकता ‘कोउ नृप होय हमें का हानी,’ की बनने लगी। लिहाजा सदी के दूसरे दशक में जब ‘जियो’ के साल भर के मुफ्त टॉक टाइम आफर की कृपा से घर-घर में स्मार्ट फोन आए, फिर कोविड ने शारीरिक मेलजोल कम कर दिया, तब शहर-गांव हर कहीं डिजिटल मीडिया की तूती बजने लगी। इस माहौल मेें भाषायी, खासकर हिन्दी मीडिया का पारंपरिक ‘खलक सत्तारूढ़ दल का, मुलुक लाला जी का और हुकुम उनके विश्वस्त अमुक जी का’ राजनैतिक दलों के लिए वरदान बन कर उभरा है। अंग्रेजी के संपादक तुलनात्मक रूप से हिन्दीवालों से अधिक तेजस्वी, अधिक स्वतंत्र माने जाते थे क्योंकि कि सत्तावान गुटों के साथ उनके करीबी तथा हंसमुख किस्म के वर्गगत रिश्ते थे। पर नई सदी हर जगह बड़ा बदलाव लाई है। जो मीडिया कंपनियां कभी किसी छोटे परिवार के स्वप्नदर्शी मुखिया का शुरू किया लोकल कुटीर उद्योग थीं, वे बड़े मीडिया घरानों ने खरीद कर अपने मीडिया उत्पाद में समाहित कर लिए। बढ़त बनाने को आतुर प्रतिस्पर्धी प्रतिष्ठानों ने अंग्रेजी अखबारों की देखादेखी अपने यहां भी ‘बिज’ स्कूलों से निकले विपणन विशेषज्ञ ला बिठाए जिनको भले ही हिंदी भाषा या भाषायी अखबारों के बारे में अधिक जानकारी न हो, पर उनकी तनख्वाह ही नहीं, निर्णय क्षमता भी संपादकीय टोली से कहीं ऊपर हैं।
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जब व्यवस्थापक ही भीतरखाने चोर से कहें चोरी कर, और पहरुए से कहें कि तू आवाज लगा कि जागते रहो, तो खबरों पर विज्ञापन का तथा सच्ची प्रयोगधर्मिता पर ‘इवेंट कल्चर ’ का तामझाम हावी होना, बिना संपादकीय से विमर्श किए खबर ड्रॉप करके अंतिम क्षणों में आए विज्ञापन पन्नों पर लगाना और प्रांतों में मनीजरों द्वारा सीधे स्ट्रिंगरों को कमीशन का वादा करके उनको हर जिले-कस्बे से विज्ञापन लाने का टार्गेट थमाना, यह सब होगा ही। इस बासी भात में खुदा का साझा बनकर घुसा डिजिटल नेट संचालित मीडिया अब इन सबसे आगे निकल गया है। उसका नुस्खा कम खर्च बालानशीं है कि एग्रीगेटरों और चंद एजंसियों से खबरें लो और लाखों गाहक जुटा लो जिनको खबर की गहराई से कम, उसकी सनसनी से ज्यादा प्यार है। फेक न्यूज और राजनीतिक दलों के पोसे ट्रोल्स अचानक वामदेव वशिष्ठ बन कर तमाम तरह की अपुष्ट खबरों से इस हो-हो करती भीड़ का मार्गदर्शण करने लगे।
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अभी सर्वोच्च न्यायालय के भाजपा की प्रवक्ता नूपुर शर्मा को अपनी टिप्पणी में कड़ी फटकार लगाकर दल विशेष के भक्तों का नजला झेल रहे दो जजों में से एक का बयान गौरतलब है। उनको लगता है कि नामहीनता की आड़ में सोशल मीडिया नितांत गैरजिम्मेदार और बेलगाम होता जा रहा है। उसकी आक्रामकता पर रोक लगाना जरूरी है। माननीय न्यायमूर्तियों द्वारा सोशल मीडिया के गले में घंटी बांधने का विचार उम्मदा बात है, पर यह जरूरी है कि नई नियामक नीतियां शास्त्री भवन या नीति आयोग के बाबुओं तक ही सीमित न हो, पेशेवर मीडियाकर्मी भी इस नियामन मेें शामिल किए जाएं। माना कि हमारे प्रेस में हजार खामियां हैैं लेकिन आज जब देश की सभी पार्टियां कमोबेश एकचालकानुवर्ती हैं, महंगाई, विदेश नीति या घरेलू सुरक्षा पर चर्चा के वक्त प्रतिपक्ष बंटा और कमजोर निकला है, बड़ं घरों के दागी बेटे नौ सौ चूहे खा के पैरोल पाकर फिर मारपीट करते हैं या विदेश चले जाते हैं, तब लोकतंत्र में आम आदमी की पहुंच के भीतर सोशल मीडिया ही ऐसा मंच है जहां से उसे कुछ साइट्स पर अखबारों से सायास ओझल की जा रही खबरें और फेक खबरों की बाबत निर्मम पड़ताल की उम्मीद है।
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इलेक्ट्रॉनिक और इंफोटेक मंत्रालय ने डिजिटल मीडिया नियामन की बाबत अपने 2021 के विवादित मसौदे को संशोधित करके जारी तो किया है लेकिन इंटरनेट तथा मोबाइल असोसिएशन और स्वायत्त संस्था डायलॉग को उसमें खामियां दिख रही हैं। सबसे बड़ी यह कि यह मसौदा इंटरमीडियरीज, यानी फेसबुक, ट्विटर, इंस्टा या वाट्सएप जैसी सोशल मीडिया का मंच उपलब्ध करानेवाली साइट्स को जिनके 1.50 बिलियन भारतीय उपभोक्ता उन पर हर पल खबरें जारी करते रहते हैं, को यूजर्स की हर कार्वाई का जिम्मेदार क्यों ठहराया जाए? शिकायत आए, तो पुलिसिया दस्ते की बजाय वह सही तरह से उनको पड़ताल के लिए भेजी जाए और उसके लिए उनको वक्त मिले। लिहाजा सोशल मीडिया ही नहीं, इंटरमीडियरीज को धमकानेवाली राजनीतिक ताकतों और सोशल मीडिया पर पुलिस की मौजूदा निरंकुशता (जो किसी भी नागरिक या ट्विटरिया शिकायत पर भी बिना कई बार अनाम शिकायतकर्ता का सत्यापन किए नागरिकों के संविधान प्रदत्त अभिव्यक्ति के हक की अनदेखी कर उनको उठाकर हिरासत तक भेज रही है), बाद को अदालत से अभियुक्त रिहा हो, तब तक उनकी बेबुनियाद फजीहत न हो। विवादित कंटेंट हटाने से उनको परहेज नहीं, पर उसकी पेशेवर पड़ताल की बाबत सरकार कोई तो समान कार्यगत तरीका (एसओपी) जारी करे ताकि वे पहले अपने स्तर से पड़ताल में शिकायत उचित पाएं, तभी विवादित कंटेंट को हटाएं। यह पड़ताल जटिल मशीनी टूल्स से होती है जिसे कोई थानेदार स्तर का व्यक्ति कैसे संचालित कर या समझ भी सकता है? उनकी भी विधिवत ट्रेनिंग होनी जरूरी है कि वे हडे ऑफिस से फोन आते ही कथित अपराधी का सर भाले की नोंक पर रख कर लाने को न हुचकें। आगे देखें क्या होता है?
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