हाल में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दो सबसे बड़े मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशियों से एक ही चैनल पर दो भेंटवार्ताएं सुनीं। सत्तारूढ़ पक्ष से बातचीत करनेवाली एंकर का रुख निहायत सौम्य और शालीन था। बातचीत में असहज करनेवाले कोई सवाल नहीं थे। सारी बातचीत एक तरह से मुख्यमंत्री जी के पांच साला कार्यकाल के दौरान हुए और हो रहे विकास कार्यों के बखान पर ही केन्द्रित थी। और यह साफ था कि बातचीत का लक्ष्य मुख्यमंत्री की सहज, शालीन और दृढ़ छवि को पुष्ट करने का ही था। दूसरे वार्तालाप में मामला तकरीबन उलटा था। वहां अन्य तेजतर्रार एंकर विपक्षी दल सपा के युवा नेता अखिलेश यादव से बात कर रही थीं और उनका रुख लगभग अभद्र होने की हद तक आक्रामक और असहज था। उनका लक्ष्य यही लगता था कि जैसे भी हो, वे बातचीत को पिछड़ा राजनीति की कमियों, उनके कथित जातिवादी पूर्वाग्रहों और हिंसक अड़ियलपने पर ही फोकस करती रहें। बारबार वह अखिलेश यादव को खींचकर बात को प्रदेश के जातिगत गणित और पिछड़े वर्गों के विगत हिंसक उभार की तरफ ले जाती थीं। जबकि यह साफ था कि अखिलेश बातचीत को इसकी बजाय प्रदेश में हालिया समय में जुनूनी बहुसंख्यक धार्मिकता के उफान और अपने कार्यकाल के विकास कार्यों के तुलनात्मक विवेचन की तरफ ले जाना चाहते थे।
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इस लेखिका की तरह बहुत बड़ी तादाद में लोगों ने अगर दोनों बातचीतों को गौर से सुना-देखा तो इसलिए नहीं कि वे टीवी साक्षात्कारों की बेहतरी को उजागर करती थीं, बल्कि महज इसलिए कि उत्तर प्रदेश का चुनाव 2024 के आम चुनावों का फुल ड्रेस रिहर्सल होता रहा है। और लगभग 20 करोड़ मतदाताओं वाले देश के सबसे आबादी बहुल (24 करोड़) सूबे उत्तर प्रदेश के चुनाव सारे देश के लिए महत्व रखते हैं। महज इसलिए नहीं कि वहां की भीमाकार असेंबली में 403 और साथ ही 100 सीटें लेजिस्लेटिव कौंसिल की हैं। इसलिए भी कि यूपी से लोकसभा के (543 में से) 80, और राज्यसभा के (245 में से) 31 सांसद भेजे जाते हैं जिसका अंतिम फलादेश 75 सालों से देश की संसद को स्वरूप देने में बहुत महत्वपूर्ण रोल निभाता रहा है। जो बात दोनों बातचीतों से एंकरों की महिमा से बार-बार गायब होती रही, वह यह कि उत्तर प्रदेश जातीय ही नहीं, संस्तिकृति , समाज और भाषा हर नजरिये से भी विविधताओं का पिटारा है। और यहां की जनता ने अब तक किसी भी मुख्यमंत्री को दोबारा चुनकर विधानसभा में नहीं भेजा है। सभी बड़े दल अकसर यहां पांच साला सत्र के बीच में अपने मुख्यमंत्री बदलने को बाध्य होते रहे हैं। क्यों? यह तो आम जानकारी है कि उत्तर प्रदेश को जीते बिना किसी दल या गठजोड़ की सरकार दिल्ली के तख्त तक नहीं पहुंच सकती। और यह भी कि प्रदेश का मुख्यमंत्री चयन दलों की राज्य इकाई की बजाय दिल्ली या दलों के एकछत्र हाईकमान कहलानेवाला नेतृत्व ही करता है।
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तो क्या यह सवाल भूतपूर्व और मौजूदा मुख्यमंत्रियों से पूछने लायक न था कि मायावती का अपवाद छोड़ दें (जो खुद टू इ न वन हाईकमान और मुख्यमंत्री थीं), दोनों ईमानदारी से बताएं कि इस सूबे का मुख्यमंत्री राजकाज चलाने को कितना स्वायत्त होता है, कितना दलगत मोहरा? दूसरा अनपूछा सवाल सूबे में जातियों के ऐतिहासिक समीकरणों से उपजता है। उत्तर मंडल काल में 40 फीसदी तादाद वाले पिछड़ों के बीच से यादव मुख्यमंत्री चुना जाना, उसके बाद 21 फीसदी तादाद वाले दलितों और फिर यादवों का मुख्यमंत्री बनना और 2017 में 17 फीसदी ब्राह्मणों की बजाय भाजपा की रहनुमाई के बल पर कुल आबादी का 8 प्रतिशत होते हुए भी प्रदेश में ठाकुर को कमान थमाकर उनको पांच बरस टिकाए रखना (अब तक यह काम कुल तीन मुख्यमंत्री ही यहां कर सके हैं) एनो मीनिंग सूं छे? सवाल नंबर तीन, सूबे की आबादी का सिर्फ 2 प्रतिशत होते हुए भी खेतिहर जाट मतदाताओं की हरियाणा और पंजाब के किसानों के साथ लामबंदी जिसने दिल्ली की किल्ली ढिल्ली कर नेतृत्व से सार्वजनिक तौर से माफी मंगवाई, जातिगत आधार पर हुई थी, कि पेशे के आधार पर?
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कुछ सवाल और भी हैं जो इनसे भी कहीं न कहीं जुड़ते हैं। 2017 के चुनावों में भाजपा नेतृत्व ने दिल्ली के विकासपरक कामों की हुंकार भरते हुए अखिलेश सरकार को विकास विमुख, यादवों के प्रति पक्षपाती और हिंसकता तथा अपराधों को उकसानेवाली करार देते हुए मतदाताओं से जाति की बजाय विकास के लिए मत देने की गुजारिश की थी। पर पांच बरस बाद क्या वजह है कि इस बार के चुनावों में धर्मसंसद की सांप्रदायिक रणभेरी के साथ यह- चुनाव- 80 प्रतिशत-बनाम-20 प्रतिशत- आबादी के बीच है, कहा जा रहा है? अगर विकास इतना ही प्रभावी, इतना ही साफ दिखता होता, तो फिर उनकी झांकियों को दिखाने की बजाय काशी से अयोध्या तक सड़क से मीडिया तक मंत्रोच्चार के बीच आरतियों और बिजली के लट्टुओं से जगमगाते प्रतिमा नाटकों की कतार का क्या मतलब? कहावत है कि खरबूजे को देख खरबूजा रंग पकड़ने लगता है। सो, जल्द ही अखिलेश भी पूजा वंदन और मंदिरों का गमनागमन करते दिखने लगे। सैन्य स्कूल और विदेश में तकनीकी शिक्षा पाए अखिलेश का यह करना विस्मयकारी था। और जब सूबे में, सबसे धार्मिक कौन? सीरियल और लोकप्रिय हुआ तो मशहूर क्षत्रियहंता परशुराम का अवतार बड़ी तेजी से उभरने लगा। अखबारों की मानें तो अखिलेश ने अपने गांव के किसी मंदिर में परशुराम का पूजन किया। उसकी छवियां मीडिया में आते ही योगी जी ने लखनऊ में उनकी बड़ी सी प्रतिमा लगवाई।
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यहां पूछने की बात यह भी थी कि गोरखपंथी पीठ के मुखिया योगी जी सनातनी धर्मध्वजा के वाहक और प्रबल मुस्लिम विरोधी किस तरह माने जाएं? क्या उनके आदि गुरु गोरखनाथ ने वेदबाह्य बनकर मध्यकाल में ऐसे ही कर्मकांडी रूढ़िवाद से विद्रोह करते हुए गोरखपंथ की स्थापना नहीं की थी? क्या यह सच नहीं कि मूल गोरखपंथ जाति ही नहीं, सांप्रदायिक भेदभाव भी वर्जित करता है। और बड़ी तादाद में मुसलमानों में हीन माने जाने वाले जुलाहों ने पूर्वी भारत में बड़ी तादाद में पंथ की दीक्षा ली थी। 1901 की जनगणना में गोरखपंथ के हजारों मुसलमान जुलाहे अनुयायी दर्ज हैं।
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इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनाव आयोग ने महामारी की रोकथाम के मद्देनजर 15 जनवरी तक पारंपरिक चुनावी रैलियों पर रोक लगा दी है। उपरोक्त बातचीत राजधानी लखनऊ के बड़ेनामी पंचतारा होटल में हो रही थी, शायद इस कारण उसमें यह कांटे का सवाल बाहर ही रह गया कि तब इन नेताओं की पार्टियां ग्रामीण मतदाताओं के बीच चुनाव प्रचार किस तरह करेंगी? बतौर माध्यम, गांव-गांव पहुंच चुके टीवी और स्मार्ट फोन भले गिनाए जा रहे हैं लेकिन मुख्य बात जो महामारी के दौरान उभरी यह है कि अधिकतर मतदाताओं के परिवार पिछड़े प्रदेश के पिछड़े इलाकों में इलेक्ट्रॉनिक मंचों तक पहुंच की हैसियत नहीं रखते। यह भी गौरतलब है कि महामारी की तीसरी लहर तेजी से सर उठा रही है जो विशेषज्ञों के अनुसार मार्च से पहले नहीं उतरेगी। इस बीच बेरोजगारी, कर्फ्यू और महामारी की मार से छटपटाते मतदाता राजनीति के दांव पेंचों में कितनी हद तक रुचि लेंगे, कहना कठिन है। शहरी संपन्न मतदाता जिस हद तक चुनावों को राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और आस्तित्ववादी चौखटों में देखता है, वह ग्रामीण भारत के इस विपन्न भाग के लिए आज भी एक अजूबा है। यह कहा जा सकता है कि इस प्रदेश की जनता ने भले ही लगातार कई प्रधानमंत्री देश को दिए हों, पर खुद वह आधे क्या, चौथाई मन से भी सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री को वोट नहीं देती। क्या योगी जी से यह नहीं पूछा जाना चाहिए था कि इस बार राम जी की महिमा से उनको आज तक कभी किसी मुख्यमंत्री को दोबारा न चुनने वाली प्रदेश की जनता दोबारा चयनित कर गिनीज बुक स्तर का रिकॉर्ड बनाने का मौका देगी?
समाजवादी और हिन्दुत्ववादी- दोनों ही गरीबों के नाम की माला फेरते हैं लेकिन सचमुच के गरीबों का ताल्लुक उनसे कितना है देश के सबसे पिछड़े सूबों में से एक की दशा में दिखता है। अंतिम सवाल पूछने का यही था कि क्या दोनों विचारधाराएं मध्य वर्ग की नहीं हैं? और क्या उनकी इच्छाएं और आकांक्षाएं मूलत: सच्चे विकास के खिलाफ नहीं दिखतीं?
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