अपने यहां कहा जाता है कि एक समय ऐसा था जब सारी धरती जल में डूबी हुई थी, तब विष्णु ने ‘जलौघमग्ना’ धरा का वाराह अवतार में आकर जल और फिर कीचड़ से उद्धार किया और मानव जाति को दोबारा इस पर बसाया। उधर, पश्चिमी धर्मग्रंथ बाइबिल का पुराना टेस्टामेंट भी कहता है कि पृथ्वी पर एक बार भीषण बाढ़ आई और सब कुछ डूब गया। तब दैवी प्रेरणा से सिर्फ नोआ नामक एक भला आदमी (जिनको इस्लामी ग्रंथ हजरत नूह भी कहते हैं) बच सका। इससे पहले उसने पूर्वसूचना पाकर अपनी बड़ी-सी नाव में जतन से तमाम तरह के बीज और जीवों की जोड़ियां लादीं जो बाढ़ के बीच भी सलामत रहीं। जब बाढ़ उतरी, तो इन्हीं बचे-खुचे जीवों और बीजों के जहूरे से दुनिया में फिर आदम की संतानें और तरह-तरह के पशु-पक्षी आबाद हुए तथा अन्न-धन पैदा होने लगा। कहानी और आगे जाती है कि किस तरह होश में आकर मनुष्यों ने तय किया कि एक बहुत बड़ी मीनार बनाएं जिसमें हर जाति, धर्म और भाषा बोलनेवाले अलग-अलग तल्लों पर रहें। टावर ऑफ बेबल नाम की एक मीनार बनी, पर मीनार बनते ही उसमें भाषा और धर्म पर विभिन्न मंज़िलों के बीच झगड़े शुरू हो गए। ईश्वर को उससे उठते हो-हल्ले से बहुत परेशानी होने लगी। आखिरकार तंग आकर उन्होंने तय किया कि यह मीनार ढहा दी जाए ताकि उसमें बसे अलग-अलग भाषा बोलनेवाले दुनिया भर में बिखर जाएं और फिर उनको एक-दूसरे की भाषा समझ ही न आए। न रहेंगे भाषा-धर्म के बांस, न बजेंगी बांसुरियां।
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90 के दशक में जब इंटरनेट आया, तो अलग-अलग देशों-सूबों में बिखरी दुनिया ने अंतर्जाल की मार्फत चैट रूम्स, बलॉग्स और कई तरह के बोर्ड एकसार करके अपने लिए एक नई तरह का टावर ऑफ बेबल रचना शुरू किया। फिर 2000-2009 के बीच गूगल जैसे सर्च इंजन, फेसबुक, ट्विटर, माय स्पेस जैसे सूक्षष्म कमेटें मंच बने और जिनकी मार्तफ नए टावर ऑफ बेबल में हर कोई बंदा, पात्रता हो या न हो, बिना किसी प्रमाणपत्र या क्लियरेंस के, अपने विचार व्यक्त करने के लिए इस आभासी दुनिया में जगह पाता चला गया। 2011 में गूगल ने अनुवाद की सुविधा दी, तब से तो हो-हल्ला इस कदर बढ़ा है कि छन भर में किसी भी भाषा का कमेंट अनूदित हो कर दुनिया की हर भाषा में वायरल होने लगा है।
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पर इसी के साथ हम देख रहे हैं कि मनुष्य की फितरत है कि अगर सूचना और अभिव्यक्ति की दुनिया इतनी विस्फोटक बन जाए, तो लंबा और तर्क पर आधारित सोच-विचार फैलने की बजाय सिकुड़ने लगता है और उसकी जगह छिटपुट फब्तियां और फतवे लेने लगते हैं। यह होना बहुत खतरनाक है। एक आम आदमी किसलिए जीता-मरता है? साख के लिए। पर अगर बरसों की मेहनत से कमाई साख छन भर में किसी फेक न्यूज और फिर उस पर बिन पूरा मसला समझे उमड़ पड़े, सैकड़ों लाइक्स या जहरीले कमेंट्स की बाढ़ टूट पड़े, तो वह तुरत मिट सकती है। कंगाली में इस आटे को और गीला होना था। जो टावर बना था जनहितकारी सूचना और लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के लिए, आज उसमें दुनिया भर में राजनीतिक दलों के स्वार्थ के तहत काम करनेवाले हैकर्स तथा ट्रोल्स दीमकों की तरह पैठा दिए गए हैं। कुछ सरकारों द्वारा ऐसी नई तकनीक खरीदने की भी सूचना है जिसकी मदद से आप देश के किसी भी जन के कंप्यूटर में घुस कर जानकारी ही नहीं चुरा सकते, उसमें कई तरह की आपत्तिजनक सामग्री भी प्लांट कर सकते हैं। ऐसे लोगों को बाद को अकारण जेल की हवा खिलवाई जा रही है। उदाहरण साफ हैं और उनको यहां गिनाने की जरूरत नहीं।
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कुल मिलाकर कभी अरब स्प्रिंग, यानी लोकतांत्रिक जागृति की आवाज बना हुआ सोशल मीडिया 2022 में सामाजिक सहभागिता के मंच की बजाय बाजार का वह कोलाहलमय चौराहा बन गया है जहां झूठी खबरों, वीडियोज और छिछोरेपन से भरपूर बिना पृष्ठभूमि दिखाए आंशिक झलक के बूते लगाए आक्षेप गंदे कपड़ों की तरह दिन-रात फींचे जा रहे हैं। नतीजा यह कि जनता को किसी पर भरोसा नहीं रहा। न सरकार पर, न विपक्ष पर, न ही मीडिया, कार्यपालिका या न्यायपालिका पर। अब ऐसी सार्वजनिकता का तोड़ क्या हो जो लोकतंत्ररों में दंगे और शैतानी राजनीतिक झूठ और अधिनायकवाद न्योतती है और जनता को लगातार धड़ेबंद, शंकालु, भ्रमित और मूक बना रही है?
आज का सच तो यह है कि डिजिटल क्रांति जो कभी दुनिया को सचाई का शीशा दिखाती थी, राजनीतिक और कॉरपोरेट हितस्वार्थियों के टकराव से किरचों में बिखर चुकी है। हर कोई एक किरच उठाकर उसमें झलकती आंशिक सचाई को ही अपने हित पोसने के लिए सही पिक्चर मानने-मनवाने पर उतारू है। यह अनायास नहीं कि दुनिया के इतने तमाम देशों में हमको सोशल मीडिया अधिनायकवाद और नस्ली हिंसा के उफान को खाद- पानी देता मिल रहा है।
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जब कोविड आया, तो उम्मीद बनी थी कि महामारी से विकल दुनिया में सोशल मीडिया जानकारी और ज्ञान का सार्वजनिक मंच बनेगा और घर में बंद लोगों के पास इतना समय होगा कि वे इसकी मार्फत मानव जीवन और लोकतंत्र की बुनियादी सचाइयों पर पीड़ाजनक और ईमानदार तरीके से समवेत सोच- विचार करेंगे। पर बड़ों की दुनिया तो नहीं बदली लेकिन इसका बेहद बुरा असर उन बच्चों और किशोरों पर पड़ रहा है जो कोविड पीरियड में घर कैद झेलते हुए इस आभासी दुनिया में कैद हो गए। आज घर-घर में ऐसे किशोर हैं जो अंतर्मुखी, कुंठित और समाज से पूरी तरह कटे हुए हैं। राजनीति हो कि अर्थनीति, बतौर नागरिक मतदाता उनकी मनोवृति ‘कोऊ नृप होय हमें का हानी’ की दिखाई देती है। सीमाहीन नेट पहुंच मिलती रहे, ओटीटी प्लेटफॉर्म और वीडियो गेम्स मिलते रहें, फिर किसका परिवार, कैसा राज-समाज? यह नशा मादक पदार्थों से कम खतरनाक नहीं। हाल में एकाधिक मामलों में पबजी या ऐसे ही गेम्स के लती बच्चों ने टोके जाने पर अभिभावक को मार डाला। क्या ऐसी जमात वक्त रहते हालात न सुधारे गए, तो एक सबको साथ लेकर चलनेवाले राज-समाज, एक जिम्मेदार लोकतंत्र का निर्माण कर पाएगी?
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अमृत वर्ष में नाना तरह के पॉजिटिव ब्योयरों का अमृत बरसाया जा रहा है। गिनाने को बहुत कुछ हुआ है। जीवन बीमा निगम से इंडियन एयरलाइंस तक सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण हो चुका है। करोड़ों को मुफ्फ राशन मिलेगा। हर घर में नल लग गया है। (जल नहीं, यह दूसरी बात है) सड़कों का विस्तार हुआ है। पर्यटन में नई जान आई है आदि। नेता विदेश जाकर तेल उत्पादक देशों से हाथ मिलाकर उनकी झिड़की सुनकर भी कान पकड़ कर वादा कर आए हैं कि हां, हम पर्यावरण और अल्पसंख्यकों की रक्षा करेंगे। हां, हम टीवी, सोशल मीडिया पर बकवास पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई करेंगे और दोषियों को तुरत दंड दिया जाएगा। पर घर भीतर फिर वही बुलडोजर, वही भद्दी नारेबाजी जबकि पर्यावरण क्षरण के सूचकांक रसातल को जा रहे हैं और पानी छीजने से करोड़ों लोग जैसे-तैसे जान हथेली पर रख कर लाए गए एक कनस्तर जल पर जिंदा हैं।
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सवाल आज और अधिक नेट तक पहुंच या और ज्यादा राजनीतिक सत्ता का नहीं, नेट के दिए मंचों और उनके कुहासे में रची गई सत्ता के स्वरूप का है। सारे लोग सहमत हैं कि आज सरकार के हाथों में और दोनों सदनों में भी जितनी सत्ता है, उतनी नेहरू या इंदिरा काल में भी नहीं थी। सरकारी नुमाइंदों के वक्तवयों में गर्व साफ झलकता है कि उनमें वह निर्ममता है जिसकी कमी से नेहरू ने कश्मीर का एक भाग गंवा दिया और इंदिरा जी शिमला में टेंटुआ दबाकर वह जनाब भुट्टो से वापिस नहीं करवा सकीं। लेकिन इतनी निर्ममता सत्ता के बीच विश्व के लोकतांत्रिक देशों के बीच भारत इतना एकाकी और असहाय क्यों नजर आ रहा है? वह रूस की भी जै-जै, अमीरात, कुवैत, ओमान अमेरिका सब को विनम्र जै-जै करता नजर आता है। चीन लगातार जो सीमा पर सड़कें, पुल बना रहा है, गांव बसा रहा है, उस पर और तमाम सूबों में हुए सांप्रदायिक दंगे एक जबर्दस्त संदेश से रुकवाने की बजाय खामोश है।
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लोकतंत्र जागने के मौके देता है, जागे हुओं को सत्ता के शेयर दे देता है (हमारा श्रेष्ठिवर्ग ऐसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी फूलता रहा है), पर हमारे यहां लोकतंत्र की सीमित वैरायटी है जो 75 सालों से सत्ता जगाने का हल्ला भले करे, जनता को चुसनियां देती रहती है, सचमुच जगाती नहीं। कई बार तो प्रिवी पर्स निरस्तीकरण या नेट के बॉलीवुड मार्का राष्ट्रभक्त फिल्मों के करमुक्त सार्वजनकि प्रदर्शन से ऊंघते लोगों को अफीम चटाकर और गहरी नींद सुला देती है। हमारे नेट की विकृतियां भी इसी ऊंधती सतत दुविधामयी की देन हैं। अधिकतर लोग सोशल मीडिया पर बर्ताव ऐसा करते हैं जैसे वे खाते-पीते मध्यवर्ग के नहीं, सर्वहारा जन के बीच खड़े हों। जब दवा और रोग, थीसिस और एंटीथीसिस के बीच समझौते अलग-अलग पिछवाड़ों में मिल कर होने लगें, तो लगता है इस टावर ऑफ बेबल में पलीता लगाने पर गंभीरता से विचार करने का क्षण आ रहा है। वरना पर्यावरणविदों की मानें, तो महाविनाशक बाढ़ बस कोने तक पहुंच ही चुकी है। तब तक इस नेट को ही नोआ की किश्ती समझ कर सवारी करें और टंच रहें।
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