विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: सहज हिंदी के साधक और बाधक

हिंदी के अनेक स्वयंभू भविष्यवक्ता बरसों से सितंबर में हिंदी पखवाड़ा पास आते ही आने वाले समय में हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने या फिर अंग्रेजी के महानद में गायब होकर मिट जाने की भविष्यवाणियां करते हुए अपनी दुकानदारी लगातार और खूब अच्छे से चलाते रहे हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

वे चतुर हैं। जानते हैं कि जो भाषा विज्ञापन जगत और बाजार के नियंता अंग्रेजी वालों को समझ में आ जाए उसे पेट काट कर भी अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में दाखिला दिलवाने वाली जाति का मध्य वर्ग हाथों-हाथ अपनाने में संकोच नहीं करेगा। मजे की बात यह कि जो अभिभावक और मीडिया मालिक हिंगलिश के पक्षधर हैं और आकाशवाणी या पाठ्यक्रम की ‘शुध’ हिंदी पर कई लतीफे सुनाते रहते हैं, वे जब अंग्रेजी के साहित्य या अखबारों में अप्रचलित और कठिन अंग्रेजी लफ्ज आते हैं, तो बच्चों या मातहतों को धीरज से डिक्शनरी उठा कर मतलब खोजने और अपनी शाब्दिक थाती बढ़ाने की सलाह देते हैं।

Published: 12 Sep 2021, 8:01 PM IST

रहे गांव, वे देर-सबेर शहरों का ही अनुसरण करते रहे हैं, महाजनो येन गत: स पंथा: मान कर। साधो, हिंदी बढ़ रही है, के इस प्रचार के पीछे के झूठ को समझिए। विद्वज्जनों के बीच हिंदी दिवस पर कविता या उपन्यास मर रहा है, राजभाषा कैसी हिंदी हो? हिंदी बदलेगी तो ही चलेगी...जैसे बैनर लगा कर जूम पर ग्लैमरस गोष्ठियां प्रायोजित कराई जा रही हैं। ये गोष्ठियां अंततः नकारात्मक विचारों पर बुलवाई जा रही हैं। उनमें व्यक्त विचारों से आपको भी लगेगा कि दुनिया के किसी भी भाषाई इलाके को सायास अपनी सहज भाषा से इतना असंतषु्ट नहीं बनाया जा रहा है जितना कि हिंदी पट्टी को। विडंबना यह कि एक तरफ तो मिली-जुली बोलियों से समृद्ध आमफहम हिंदी की पहुंच जनता के बीच लगातार बढ़ रही है लेकिन हिंदी के विद्वानों के बीच आचार्य किशोरीदास जी, भोलानाथ तिवारी जी, हजारी प्रसाद जी या डॉ. नामवर सिंह जैसे जमीनी पकड़ वाले विद्वान अलोप हो रहे हैं। हिंदी की विशाल शब्द संपदा की ऐतिहासिक जड़ों को गंभीरता से परखने वाले, हिंदी शब्दों की व्युत्पत्ति समझाने में समर्थ और उसके परतदार मिश्रित इतिहास को अगली पीढ़ियों को देने के लिए सहज हिंदी में जो काम उपरोक्त लोग कर गए वे आज विश्वविद्यालयीन परिसरों में मिलने दुर्लभ हैं। परिसरों में हिंदी विभागों में जो लोग बिठाल दिए गए हैं, उनका सारा जोर अपने राजनीतिक सरपरस्तों को खुश रखने पर रहता है। हिंदी के ‘शुद्धीकरण’, यानी उससे परदेसी (यानी अरबी-फारसी) शब्द निकाल कर संस्कृत तथा अंग्रेजी से पाटना उनका प्रिय शगल है। इधर, हाल के अकादमिक स्वनामधन्यों के साथ बड़बोले शिखर नेतृत्व के भाषण एक-के-बाद-एक सुनिए तो बात समझ में आ जाएगी।

रचनात्मक हिंदी के नक्कारखाने में इस तमाम हाहाहूती से घोर कोलाहल मचा हुआ है। गैर हिंदी इलाके से, क्षेत्रीय राजनीति से उसके सामने तेज हुंकारें उठ रही हैं कि हिंदी का औपनिवेशिक मंसूबा गैर हिंदी क्षेत्रों के लिए अग्राह्य है, और उसे ‘थोपा’ नहीं जा सकता। खुद हिंदी पट्टी के अंग्रेजी माध्यम में पले-बढ़े आम शहरी युवा भी हिंदी पढ़ते हुए नाक-भौंह चढ़ा कर लेखकों से पूछते हैं कि उनकी रचना में बिना डिक्शनरी की मदद के समझ न आने वाले इतने सारे शब्द क्यों हैं? उधर, सरकारी पक्ष के लिए कोई भी पद या पुरुस्कार देने से पहले अलिखित पैमाना यह है कि लेखक अरबी-फारसी शब्दों की भरमार से अशुद्ध बनी हिंदी के शुद्धीकरण का पक्षधर है या नहीं? यह बात और है कि सचिवालयों में या गूगल की मदद से जबरन रची जा रही सरकारी हिंदी में जो सरकारी घोषणाओं या पोस्टरों में यत्र-तत्र-सर्वत्र विराज रही है, अप्राकृतिक तौर से इतनी ‘शुद्धता’ भर दी गई है कि बात खुद सरकारी लोगों की भी समझ में नहीं आती। आम जन उसे क्या खाक समझे?

Published: 12 Sep 2021, 8:01 PM IST

कुछ बरस पहले दिल्ली की एक संगोष्ठी में बोलते हुए गीतकार जावेद अख्तर ने इस बात पर गहरा क्षोभ जताया था कि हिंदी फिल्मों की तरफ बड़ी तादाद में खिंचे चले आ रहे मुंबई के नए फिल्मकारों और शीर्ष युवा अभिनेताओं में से अधिकतर साहित्यिक तो छोड़िए, सामान्य बोलचाल की हिंदी या उर्दू से भी कतई अपरिचित हैं। वे अपने लिए पटकथा लेखन और डायलॉग सब अंग्रेजी में करवा रहे हैं। यही वजह है कि आज पटकथा लेखकों और संगीतकारों के लिए ‘मुगल-ए-आजम’, ‘शोले’ या ‘साहिब बीबी और गुलाम’- सरीखी हिट फिल्में और कालजयी संगीत रचना लगभग नाममुकिन बन गया है। एक बड़े चर्चित फिल्म निर्माता को जब उन्होंने बताया कि शब्द बहुल शेक्सपीयर की झोली में तकरीबन अढाई हजार से ज्यादा ही अंग्रेजी शब्द होंगे तो उनकी प्रतिक्रिया थी कि अरे, मैं तो हिंदी के सिर्फ अढाई सौ के करीब शब्द जानता हूं फिर भी बढ़िया हिंदी फिल्में बना चुका हूं।

पर इसी का दूसरा पहलू हिंदी के वे स्वघोषित प्रचारक हैं, जो इन दिनों कपड़ा फाड़ किस्म की गालियां बकते हुए अंग्रेजी का कतई चक्का जाम करा हिंदी प्रचार को एक समाजवादी जिहाद की शक्ल दे रहे हैं। हिंदी उनके लिए बुद्धिमान जीवंत तर्क नहीं बल्कि इतिहास की राख से शोधा गया बाधाहरण कलावा है, जिसको वे संसद से सड़क तक सरकारी जिजमानों की कलाई पर बांध रहे हैं। उनके अनुसार, शेष भाषाओं के भले लोग चुपचाप अपनी भाषा में लिखते, पढ़ते, रचते हैं, लेकिन हिंदी हित में वे जो कर रहे हैं, वह राष्ट्रसेवा है, और उसके विरोधी तमाम लेखक देशद्रोही और पाकिस्तान भेजे जाने काबिल हैं। सच तो यह है कि हिंदी को उस तरह की राष्ट्रीयता के दिव्य जोश का प्रतीक मानने-मनवाने के दिन लद चुके हैं। हिंदी का गौरव इससे नहीं बढ़ेगा कि वह कितने बड़े भूखंड की भाषा है। बल्कि इससे कि वह किस हद तक औसत भारतीय के लिए ताजगी भरी मौलिकता की वाहक है।

Published: 12 Sep 2021, 8:01 PM IST

आने वाले वक्त में लिखित नहीं, वाचिक परंपरा का बोलबाला होने जा रहा है। अगर बड़े सितारों और चकरा देने वाले बजट के बावजूद कई हिंदी सीरियल बॉक्स ऑफिस पर औंधे मुंह गिरे, और मिर्जापुर या पाताल लोक-सरीखे सीरियल हिट हुए, तो वजह यह, कि मिडियाकर और जड़विहीन निर्माताओं की अटपटी हिंदी में अंग्रेजी फिल्मों की बुद्धिहीन नकल या दूरदर्शन के धार्मिक थीम पर बने सीरियल बहुसंख्यक युवा दर्शकों को नहीं जमते। उनको ताजगी भरे तेवर वाली मिश्रित जड़ों से सहज उगी हिंदी चाहिए। संभव है कि महानगरों में पले और बड़ा पैसा कमाने की ललक से भरे युवा फिल्मकार जब हॉलीवुड की फिल्मों के आगे खड़े होते हैं तो उनको बौनेपन का अहसास होता हो। पर इस चुनौती का सही जवाब यह है कि वे भाषाई माध्यमों को अपनी निजी पहचान के हथियारों से तराशें, जैसा दूसरी भारतीय भाषाओं में सत्यजित रे, रित्विक घटक, गिरीश कासरवल्ली या अडूर गोपालकृष्णन ने सफलतापूर्वक किया। यह तर्ककि उनकी फिल्में या सीरियल तो अनिवासी भारतीयों के बीच हिट हैं और जानकारों के बीच उनके फिल्मांकन की भी गजब सराहना हुई है, सिर्फ पलायनवाद है और उनके रचनाकारों की आत्मसंतुष्टि खोखली है।

यही बात साहित्य पर भी लागू होती है। दुनिया में उच्च अध्ययन की शर्त यह है कि लोग-बाग एकाधिक भाषाएं पढ़ें। इससे बाहर देखने के कई नए दरवाजे खुलते हैं और क्षितिजों का विस्तार होता है। लेकिन बाहरी भाषा और साहित्य के असर को बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से अपने भीतर जज्ब कर पाना भी उतना ही जरूरी है। हिंदी में यह बहुत कम हो रहा है। आज हिंदी का अधिकतर काम बड़े विदेशी प्रकाशकों, लेखकों के नाम, उद्धरण और हवाले चेंपे बिना, मौलिक दृष्टि के बूते अपनी बात पढ़े-लिखों के बीच भी अधिक दूर नहीं जाता। हिंदी भाषा, छापेखानों और नए-पराुने मीडिया के इतिहास क्षेत्र में जो ठोस काम रॉबिन जेफरे, फ्रांचेस्का ओरचीनी या उरीके स्टार्क-जैसे विदेशी विद्वानों ने किया है, उस तरह की मौलिक सूझ और समकालीन चलन की हिम्मतभरी उपेक्षा का जोखिम उठाने वाला काम हिंदी में उसके कितने तथाकथित सेवक कर रहे हैं?

Published: 12 Sep 2021, 8:01 PM IST

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Published: 12 Sep 2021, 8:01 PM IST

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