चुनाव अप्रैल अंत तक निबट चुके होंगे और जितनी तेजी से टीकाकरण का काम हो रहा है, उम्मीद है कि कुछ महीनों के भीतर महामारी निबटे न भी, तो भी एक हद तक काबू में आ चुकी होगी। लेकिन पिछले एक बरस में तालाबंदी के बाद से जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौतियां विमोचित हुई हैं, वे इतनी जल्द खत्म नहीं होंगी। जो तथ्य सामने आ रहे हैं, उनसे जाहिर है कि देश की नंबर वन समस्या बेरोजगारी इस दौरान लगभग बेकाबू हो गई है। तालाबंदी से हमारे कुल श्रमिकों में से 50 फीसदी की नौकरी खत्म हुई है। इनमें से दस फीसदी (जिनमें खेती में दिहाड़ी पर या फैक्टरियों में असेंबली लाइन पर काम करती रहीं औरतें सबसे अधिक थीं) तो नियमित श्रम क्षेत्र से बाहर ही हो गए। इस बरस के पहले तीन महीनों में जिनको रोजगार मिले भी, लगभग सब अनियमित और पहले से कहीं कम तनख्वाह दिलाने वाले हैं।
बड़े शहरों के चौराहों, खुले में लगने वाले साप्ताहिक बाजारों या माल से भरे लेकिन ग्राहकों से सूने पर्व विशेष के बाजारों में इस वर्ग से सामना होता है। कई दुकानों पर ताले लटके हुए हैं और बाहर खुले में ये बेरोजगार अस्थायी बनकर सामान फैलाए ग्राहकों का इंतजार कर रहे हैं। सबके सब बताते हैं कि पिछले एक साल में वे किस तरह अचानक जबरन स्वाश्रयी बनने को लाचार हुए। संस्थागत सहारा या लोन उनके लिए है नहीं, सो आज इनमें से कोई बाल पॉइंट पेन या अगरबत्तियां बेच रहा है, तो कोई झाड़ नया प्लास्टिक के खिलौने। कुछ लोग मंहगे बाजारों में उधारी पर लाए हुए डब्बों में कीमती स्ट्रॉबेरी जैसे फल धरे मक्खियां मार रहे हैं। उनकी इस जिजीविषा को नमन तो करना ही होगा जो मुसीबत में भी कायम है। लेकिन यह धीरज, यह जूझने का जज्बा बिना राज्य से वाजिब मदद मिले, कितने दिन चलेगा?
Published: 04 Apr 2021, 8:00 PM IST
हमारे यहां समय-समय पर नियमित रूप से जो श्रम संबंधी सर्वे होते हैं, उनके ताजा (अप्रैल से जून, 2020 की तिमाही के) आंकड़ों के अनुसार, शहरों में 15 साल से अधिक उम्र वालों के बीच बेरोजगारी का आंकड़ा इस दौरान पहले (20.80 प्रतिशत) से दूना हो गया है। हर किस्म की अनीति से भरे इस चुनावी माहौल में भाषणों में तेजाबी गहमागहमी के बीच करने योग्य कामों और विचारों का अंतर और भी खुल कर सामने आ गया है। किसानों ने नए किसानी कानूनों पर महीनों से धरना लगा रखा है जिस पर विदेशों में भी काफी प्रतिक्रिया होती दिखी। लेकिन घर भीतर उनसे बातचीत तो दूर, सरकारी तथा सरकार परस्त मीडिया से भी वे लगभग ओझल बनाए जाते रहे। अब साफ कहा जा रहा है कि कानून नहीं बदलेंगे। किसानों को खुद ही किसानी की बाबत नए सिरे से सोचना होगा। बिजली, पानी और खाद पर सरकारी सब्सिडी लेकर जरूरत से अधिक अन्न उपजाते जाना फिर सरकार से उसे ऊंचे भाव पर खरीदी को कहना बेकार है। यह बात अचर्चित रही है कि चंद्रमा की कलाओं की तरह घटती-बढ़ती तमाम सब्सिडियां उनको राजनीतिक दलों ने ही लगातार अपने विशाल ग्रामीण चुनावी वोट बैंक को बनाए रखने को दी थीं। जैसे-जैसे कृषि में बड़ी निजी पूंजी की आवक बढ़ रही है, नए मालिकान को जमीन और कुदरती संसाधनों की जरूरत पड़ रही है ताकि वे कोठार बना कर खरीदा माल सहेज सकें। उनकी जरूरत के तहत ही यह भी कहा जा रहा है कि पारंपरिक मंडियां समय की धारा में पिछड़ चुकी हैं। सो, छोटे किसानों को छोटे जमीन के टुकड़ों का मोह त्याग कर शहद की मक्खी पालने, मत्स्य उत्पादन या पशुपालन जैसे धंधों से आय पैदा करने की तैयारी करनी चाहिए।
Published: 04 Apr 2021, 8:00 PM IST
अब कहने वालों ने तो कह दिया, पर नई तरह की इस उत्पादकता के तंत्र को ठीक से चलाने के लिए, किसानों को प्रशिक्षण, कच्चा माल और बुनियादी पूंजी मुहैया कराने वाला क्या कोई कारगर सरकारी तंत्र है? मीट कारोबार को पहले ही गोवंश रक्षा के नाम पर ग्रहण लग चुका है। सूखी गाय-भैंस बेचना असंभव देख किसान दुधारू पशु रखने से कतराने लगे हैं। अगर उनको पशुपालन को प्रोत्साहित करना हो तब तो पशुओं की खरीद-फरोख्त पर ये तमाम अड़चनें दूर करनी ही होंगी। क्या राज्य सरकारें इसके लिए राजी होंगी? पारंपरिक तरीके का अन्न उत्पादन या पशुपालन हमारे कृषि पर टिके देश के राज-समाज को बहुत बड़े पैमाने पर संचालित करने वाला इंजन रहा है। उसके गिर्द लोकल दिहाड़ी मजूरों, मंडियों, माल की आवाजाही और पशुधन की सार संभाल के वे तमाम खास तरीके सदियों में विकसित हुए हैं जो अकाल-बाढ़ से जमकर जूझ सके। उन सबकी प्रतिष्ठा और जरूरत को आज योजनाबद्ध तरीके से समाप्त तो किया जा रहा है लेकिन पुरानी व्यवस्थाओं की जगह कोई नई कारगर व्यवस्था नहीं बन रही है जो आम किसान, पशुपालक के लिए व्यावहारिक और फायदेमंद हो। व्यवस्था बने तो कैसे? सरकार और उसके संस्थानों : सिविल सर्विस, पुलिस, शिक्षण केंद्र, चुनाव आयोग, नीति आयोग और संसद तथा विधानसभा सत्र हर जगह सारी ऊर्जा तो कई-कई चरणों में लंबे खिंचते जा रहे चुनावों पर ही केंद्रित है। आज बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल, और फिर अगले साल उत्तर प्रदेश और पंजाब। फिर केंद्र में। सीक्रेट मुलाकातें, बड़े नेताओं की हवाई यात्राएं, होटलों में लाए गए विधायकों की इस दल से उस दल में आवाजाही, गवर्नर शासन का लगना, चुनी हुई सरकारें गिराना, नई सरकार को आधी रात या सुबह चार बजे शपथ दिलवाना इन्हीं सब में नेतृत्व का समय और सोच पर फोकस है। कोविड और उथल-पुथल भरे पलायन के इस दई मारे साल में पांचसाला चुनावों को करवाने में राज्यों के पुलिस प्रशासन को लोकल कामकाज की फुर्सत नहीं। बंगाल से ममता चीख रही हैं कि बाहरी राज्यों की पुलिस मत भेजो लेकिन आठ चरणों में रचे गए चुनाव का व्यूह सुरक्षित रखना जरूरी है। इस सबके बीच बजट जैसा महत्व का सत्र भी किस तरह निपटाया गया, देशवासी देख चुके हैं।
Published: 04 Apr 2021, 8:00 PM IST
सरकारों और मतदाताओं के बीच का भरोसा इधर महामारी, बेरोजगारी और इस राजनीतिक मारामारी के बीच बुरी तरह हिल गया है। वे किसी दल के प्रत्याशी को चुनें, कुछ समय बाद बंदा किसी पंचतारा रिसॉर्ट में चंद दिन रहकर मूल पार्टी त्यागकर सत्तारूढ़ दल में शामिल नजर आता है। इस कूटनीति की कीमत पर विभिन्न जाति-धर्म ही नहीं, क्षेत्रीय मतदाता और बाहरिया कामगरों के बीच भी भयंकर तनाव बढ़ रहे हैं जिनमें चुनाव जीतने को उतावले राजनेता जलती आग बुझाने की बजाय घी डालने का काम कर रहे हैं। यह खतरनाक है, अनैतिक तो है ही।
विकास के नाम पर चुनावी रैलियों में सगर्व घोषणा सहित इधर निर्माण कार्यों के फीते कटने जारी हैं। विशेषज्ञों की ताकीद के बाद भी इन सरकारी अश्वमेधी घोड़ों की ओट में होने वाली खुली लूट और पर्यावरण प्रदूषण छुपाए नहीं छुपते। जो बुरा होता है उसे कांग्रेसी काल की विरासत बताने से पहले लोग सहमत हो जाते थे, अब नहीं होते, पर उससे क्या? आर्थिक तराजू पर नकली बांट रख कर कुदरती संसाधनों और सार्वजनिक उपक्रमों को तोलना और फिर उनका टुकड़ा-टुकड़ा निजीकरण करना जारी है। कई विगत योजनाओं पर बदनामी झेल रहा विश्व बैंक जब इन विकास परियोजनाओं पर पर्यावरण संरक्षण का डिठौना लगाने लगा तो ग्रीन ट्राइब्यूनल को बायपास करने के तरीके ईजाद कर लिए गए। एक ख्यातनामा गुरु ने यमुना के तट पर विशाल आयोजन किया जिससे वह क्षेत्र अब तक नहीं उबर सका है। उनपर जुर्माना भी लगा जो चुकाया गया या नहीं, किसी को शायद ही पता हो। गुरु जी आज भी मानव जाति को मानसिक शांति और आध्यात्मिक परिष्कार पर भाषण देते हुए चांदी काट रहे हैं, यमुना के कछार तबाह हों, तो उनका क्या? वे विदेह राजा जनक हैं जिन्होंने कहा था, काठ की मिथिला जल गई तो मेरा क्या? उसे तो जलना ही था!
Published: 04 Apr 2021, 8:00 PM IST
पिछले सप्ताह सूने बाजार में रंगों और पिचकारियों का स्टाल लगाए बैठे एक स्वाश्रयी दुकानदार ने बड़े गुस्से से कहा : ‘मां जी, पहले तालाबंदी करा के हमारी नौकरियां खतम कर दी गईं, और अब हमको कहा गया स्वासरयी बनो (एक अश्राव्य गाली) पर गाहक को कह दिया है सोसल दिसटेंसिंग रखो, कतई खरीदारी को बाजार को मती निकलो! ऐसे में हम स्वासरयी बनकर क्या तो कमाएं, क्या खाएं? हमको तो अम्मा जे सक होने लगो है कि जे कोविड का हल्ला हम गरीबन को मिटाने की साजिस है।’
‘ऐसा नहीं है भाई,’ मैंने खिसियाया प्रतिवाद करना चाहा, ‘खतरा सचमुच का है। लाखों लोग मर चुके हैं इस छुतहा रोग से। इसीलिए चेताया जा रहा है।’
‘और इस बीच दिहाड़ी पर जीने वाले हमारे जैसे लोग जो भूख से घर-घर मरेंगे उनका के?’
उसके सवाल का जवाब मेरे पास नहीं था।
Published: 04 Apr 2021, 8:00 PM IST
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: 04 Apr 2021, 8:00 PM IST