आपने देखा होगा कि हमारे समाज में कोविड के आने से पहले ही डिजिटल संचार तकनीकी की कृपा से लोग बाहरी ही नहीं, अपने घर के लोगों से भी लगातार कटते चले जा रहे थे। आम जन से भले नेता जी या युवकों का सीधा संवाद ठप्प हो लेकिन बटन दबा कर पलक झपकते दुनिया भर में अपनी छवि वायरल बना कर आभासी भक्त तथा लाइक्स बटोरना ज्ञान और ताकत की नई कसौटी बन गया था। 2021 में राज और समाज इसका खामियाजा चुका रहे हैं। पूरे तामझाम से पांच राज्यों में चुनावी नतीजे दिखा रहे हैं कि झोली भर पैसा खर्च करके बनवाई गई महारथी छवि के बावजूद वजनी नेताओं ने भी जनाधार खोया है। युवाओं ने भी पाया कि तमाम सूचना संचार गैजेट्स, ओहदेदार बापों, ऊंची तनख्वाह या रसूख के बावजूद उनके कई परिजन तथा हम उम्र हस्पताली सघन चिकित्सा, जरूरी उपचार और वैक्सीन के अभाव में कैसे मौत के कगार पर पहुंच रहे हैं। और फिर मौत के बाद उनको अपने प्रिय व्यक्ति को भी अकेले में बिना ठीक-ठाक संस्कार किए सूनेपन के बीच विदा देनी पड़ रही है। जबकि मान्यतानुसार हमारे यहां पारंपरिक दाह संस्कार के समय परिजनों का मृतकों ही नहीं पुरखों से भी संवाद होता है। विश्वास है कि मृतात्माह में मृत्यु तक ले जाती है और उसे साथ ले जाते पुरखे हमको वापिस जीवन जीने को भेजते हैं। गांवों में भी, जहां जन्म, विवाह या मरण के संस्कारों की सनातन परंपराएं शहरों से कहीं अधिक निभाई जाती थीं, निर्धनता, लकड़ियों की कमी और संक्रमण के डर से लोगबाग अपने मृत परिजनों को नदी में बहा देने या तट की रेती में गाड़कर छोड़ देने को मजबूर हैं। अच्छा होता गरीब से गरीब नागरिक की निजी गरिमा और मृत्यु जैसे विषयों पर बात निकली थी तो गंभीरता से बढ़ाई जाती। अपनी हार से शिक्षा लेकर सच्चे जनहितकारी कामों : निरोधी टीकों की आपूर्ति और वितरण को ठीक से अंजाम दिया जाता। पर किसे फुर्सत है? पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड में अगले विधानसभा चुनावों की तैयारी और छवि चमकाने की मुहिम शुरू हो गई है। लिहाजा टीकों और दवाओं के वितरण का मसला राजनीतिक पश्चाताप की बजाय राजनीतिक हित साधन का नया हथियार बन चला है।
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कोविड की दूसरी लहर को बल देने में तमाम विरोध के बावजूद निर्धारित समय से एक साल पहले ही आयोजित किए गए कुंभ मे ले का बड़ा हाथ रहा। उत्तराखंड के विपक्ष का कहना है कि चुनाव से पहले धार्मिक पर्यटन की कमाई बढ़ाने और प्रांत की देवभूमि की छवि बेचने को लालायित क्षेत्रीय नेताओं ने मेले पर रोक लगवाने में रुचि नहीं दिखाई। नतीजतन आज वहां भी गांव-गांव तक महामारी पहुंच गई है। और फिर भी जिस चार धाम यात्रा को पिछली 24 अप्रैल को पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कोविड के कारण प्रतिबंधित कर दिया था, उसे राज्य सरकार चरणबद्ध तरीके से खोलने जा रही है। हरिद्वार और ॠषिकेश से शुरू होकर गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ तथा केदारनाथ धामों को मापने वाली यह यात्रा बेशक धार्मिक पर्यटन का ऐसा लगातार बढ़ता आकर्षण रही है, कि2019 में इसमें भाग लेने को 4 लाख, 66 हजार 699 यात्री आए। फिलवक्त जाड़ों में बंद रहने वाले चारों मंदिरों के पाट यथा समय खोले जा चुके हैं और कहा जा रहा है कि पहले चरण में उनको इन तीन जनपदों के श्रद्धालुओं के लिए खोला जाएगा। फिर अगर सब ठीक रहा तो कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए बाकी लोगों को भी अनुमति दे दी जाएगी। पर गौरतलब है कि यात्रा जिन तीन जनपदों : रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी से हो कर जाती है, वे तीनों पर्यावरण की दृष्टि से बहुत नाजुक, और वाहनों तथा पर्यटकों की भारी आवाजाही के लिए अनुपयुक्त हैं। 2013 में केदार घाटी तथा 2021 में चमोली की विनाशक बाढ़ तथा भूस्खलन से यह बात स्पष्ट भी हो चुकी है। तिस पर जब इलाके में महामारी पसरी हुई है, इस यात्रा को खोलने का तर्क समझ नहीं आता।
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हरिद्वार के विधायक तथा राज्य भाजपाध्यक्ष ने हाल में कहा कि उनकी चेष्टा होगी कि कोविड पर हर तरह से काबू कर लिया जाए लेकिन फिर भी आशंका तो है ही कि इसका असर फरवरी-मार्च, 2022 में निर्धारित राज्य के चुनावों पर पड़ेगा। इसलिए लोकल हस्पातालों की सुविधाओं को बढ़ाते हुए दवा निर्माताओं से समुचित मात्रा में दवाएं मंगवाई भी जा रही हैं। लेकिन जानकारों की राय में इस सबका लाभ अब तक शहरी आबादी को ही मिल रहा है, गांवों को नहीं जहां हस्पताल ही नहीं हैं, और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में भी जरूरी उपकरणों और सुशिक्षित परिचार कों का हमेशा अभाव रहता है। यह उत्तराखंड का दुर्भाग्य है कि जब से यह एक स्वायत्त राज्य बना, इसका राजनीतिक आंगन डांवाडोल रहा है। नारायण दत्त तिवारी को छोड़कर कोई भी मुख्यमंत्री यहां भितरघात और दबावों के कारण अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका। राज्य छोटा है, पर यह बात रेखांकित करनी जरूरी है, कि यहां देश की सबसे बड़ी दो सदानीरा नदियों के जनक ग्लेशियर तथा हिमालयीन क्षेत्र के दुर्लभ लेकिन नाजुक संतुलन के तराजू स्थित हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से और पर्यटकों की बढ़ती भीड़ से उपजे निर्माण कार्यों ने इन तीनों पर संकट के बादल विमोचित कर दिए हैं। और विशेषज्ञों की राय है कि अगर कुदरती नियमों और पर्यावरण असंतुलन की उपेक्षा बढ़ती गई तो सारा उत्तर भारत जल का भीषण संकट झेल सकता है। साथ ही यह इलाका भूकंप प्रवण है। यहां संरक्षित जंगलों के बीच छ: लेन की सड़कों तथा नदियों पर पावर प्लांट या बांध बनाने का काम अगर बिना वैज्ञानिकों की स्वीकृति के किया जाता रहेगा तो यह इस लघुकाय राज्य को ही नहीं, सारे उत्तर भारत को बहुत भारी पड़ेगा। फिर सामरिक तौर से भी तिब्बत और नेपाल की सीमा से जुड़े इलाके का भारी महत्व तो है ही।
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खैर, पुरानी गलतियों की छोड़ें, छोटे राज्यों की सचाइयों की अनदेखी पर उतरें, तो भी सूची लंबी है। आज दिल्ली समेत हिंदी क्षेत्र में आमतौर पर उत्तराखंड को उत्तर प्रदेश या बिहार की तुलना में नगण्य और पिछड़ा माना जाता है। औपचारिक रूप से जो कहा जाए तो लोकल जनता जानती है कि केंद्रीय हाईकमान द्वारा ही यहां के मुख्यमंत्री हटाए-रखे जाते हैं। निरंतर केंद्र की राय जानने को उत्सुक नेतृत्व लोकल अनुभवों की उपेक्षा करता रहा है और आज यहां की लगभग सारी सरकारी विकास योजनाएं पर्यावरण विदों और महामारी विशेषज्ञों की राय को दरकिनार करते हुए लागू हो रही हैं। विद्युत संयंत्रों और सड़कों के लिए पहाड़ काटना, कटने वाले जंगलों और उससे हो रहे विस्थापन को विकास के यज्ञ की आहुति माना जाता है। अब जब से इलाका देवभूमि बना है, तब से तमाम तरह के मेले और यात्राएं भी केंद्र की सलाह से शुरू या समाप्त की जाने लगी हैं। विशेषज्ञ साफ देख सकते हैं कि विकास के इस मॉडल की तबाही चारों तरफ बह कर आई चट्टानों और विशाल पत्थरों के रूप में पर्यावरण पर स्थायी शिलालेख खोद रही है। उपेक्षित हिमालयीन इलाके, खासकर उसके पनढालों (बगड़) और जंगलों का विनाश किस तरह पयस्विनी नदियों को सरस्वती नदी की ही तरह अपने मायके से दूर भूगर्भ में विलीन हो जाने की तरफ ले जा रहा है। यहां कितना धर्म और अधर्म हो रहा है, महामारी किस तरह कितनों को उजाड़ सकती है, यह सब कुदरत के शिलालेखों पर अंकित है। कोई इनको समय रहते पढ़े तो सही।
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