लड़ाई के मैदान में उतरने के लिए कोई साहित्य की तरफ नहीं भागता। साहित्य रचने की तरफ हम जब निकलते हैं तो मनमें कहीं-न-कहीं अशांतिमय मानवीय जिंदगी में शांति, संवेदनामय और मन को संतुष्ट करने वाले तत्वों की खोज और फिर तटस्थ पड़ताल करना होता है। फिर भी अगर ईमानदारी से जीवन के मैदान में उतरते हैं, तो युद्ध हमसे दूर नहीं रह पाता, न हम युद्ध से। हमारे महाभारत और रामायण, और पश्चिम के दो सबसे बडे महाकाव्यों: इलियड और ओडिसी, की ही तरह शुरू से अंत तक संघर्ष और युद्ध से भरे हैं। उनके नायक उदात्त पुरुष हैं लेकिन खूनखराबा, मारधाड़ और विजय या हार उनकी अनिवार्य नियति है। उसके बाद लगभग हर महानायक- राम से लेकर पांडवों और कृष्ण तक युद्ध से विरक्त और पश्चाताप से विगलित होकर किसी एकाकी स्थल पर जाकर देह त्याग करते हैं। यह मनुष्यों की प्रजाति से जुड़े हर युद्ध, हर महाकाव्यया बड़ी औपन्यासिक कृति का अनिवार्य भाग हैं।
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महाभारत और रामायण उन मायनों में धर्मग्रंथ नहीं माने गए हैं जिनमें वेद, पुराण या उपनिषद्। वे क्लासिकल कोटि में ही रखे गए। वजह यह कि मूलत: दोनों जीवन ग्रंथ हैं। उनके पात्रमं त्रदृष्टा संसारत्यागी ॠषि-मुनि नहीं, जीवन के भंवरों से उबरने की कोशिश कर रहे मानवीय पात्र हैं और वाल्मीकि या वेद व्यास उन जीवन संघर्ष में जुटे नायकों की मार्फत मानवीय विवेक-अविवेक, कर्तव्य- अकर्तव्य पर जीवन, कथनी और करनी का विश्लेषण एक कथा के रूप में कई प्रक्षिप्त लघु लेकिन अर्थमय प्रसंगों सहित खोलते हैं।
इसी कारण हर बड़ा युद्ध महाभारत की याद दिलाता है। जब कोविड की पहली तालाबंदी की घोषणा हुई, तो महामहिम प्रधानमंत्री ने जो परीक्षा को भी युद्ध का मैदान मानते हैं, देशव्यापी फलक पर इसे महामारी के खिलाफ छेड़ा दूसरा महाभारत युद्ध कहा था। यह बात और है कि तब उन्होंने यह भी जोड़ा था कि जब महाभारत 18 दिनों में समाप्त हो गया था, तो तालाबंदी के तीन सप्ताहों में भारत भी महामारी पर जरूर फतह हासिल कर लेगा। ये तीन हफ्ते महीनों तक खिंचे और इस बीच चुनावों में सत्तापक्ष जहां कहीं उतरा, उसने सरकार के इस कठोर कदम की तारीफ करते हुए भारत को महामारी से उबरने वाला पहला देश बताया | विपक्ष शासित महाराष्ट्र में जहां महामारी बहुत फैली रही, इसे विपक्षी गठजोड़ की नाकामी कहकर उपहास करने की होड़ लग गई। उपचुनावों और लोकल स्तर पर इसका चुनावी लाभ भी हुआ। इस बीच दिल्ली की सत्ता का अधिक हिस्सा महामारी से निबटने के नाम पर उपराज्यपाल को देकर विपक्ष शासित राजधानी क्षेत्र की कमान भी एनडीए सरकार ने अपने हाथों में ले ली। किसान आंदोलन को सरकारी बैठकों और मीडिया से गायब कर दिया गया और उसकी जगह भारत के सबसे बड़े टीका निर्माताओं में होने का, उसकी आत्मनिर्भरता का प्रचार हुआ।
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उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही है कि उसे देवभूमि कहते हुए पर्यावरण या जन स्वास्थ्य की चिंताओं को भुलाकर उसे पर्यटकों के स्वर्ग की तरह बेचा जाने लगा है। धर्म आज हर चुनाव की रीढ़ है। पहले अयोध्या में तामझाम सहित राम जन्मभूमि स्थल पर भूमि पूजन हुआ। फिर संक्रमण की बाबत विशेषज्ञों की सलाह की अवहेलना करते हुए हरिद्वार के कुंभ मेले में लाखों-लाख को धार्मिक पर्यटक बनाकर न्योता गया। इस पृष्ठभूमि में बंगाल में अभूतपूर्व रूप से बड़ी चुनावी रैलियां हुईं। फिर कोविड टीकाकरण के अभियान को उत्सव की तरह मनाने की घोषणा। अब इससे पहले कि हम कुछ लाख स्वास्थ्य कर्मियों तथा बूढ़ों को टीके लगाकर कोविड पर संपूर्ण फतह का जश्न मनाते, दईमारी महामारी ने दुगुना भीषण हमला कर दिया है। कुंभ मेले से लौटे और बिना मास्क लगाए बड़े नेताओं की चुनावी रैलियों में शामिल हो रहे लोग प्रांत-दर-प्रांत महामारी के वाहक बन गए हैं। और इस बार केंद्र सरकार की समर्थक प्रांतीय सरकारों द्वारा शासित उत्तर प्रदेश, बिहार से मध्य प्रदेश, कर्नाटक तथा तेलंगाना कोविड की दूसरी लहर से सबसे बुरी तरह पीड़ित होते दिख रहे हैं। रोगियों और शवदाह या दफनाए जाने के इंतजार में लगी शवों की ढेरियों के जो नजारे हम सोशल मीडिया और टीवी पर देख-सुन रहे हैं, उनसे देश का मनोबल टूट रहा है। घरों में बंद अपनों के लगातार सांघातिक रूप से बीमार होने और जरूरी दवाएं न मिल पाने तथा टीवी की मार्फत इन विभीषिकाओं को देखने-झेलने को मजबूर लोगों को दैवत्व का कवच पहने नेतृत्व का ईश्वरीकरण अब पोला नजर आ रहा है।
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इस माहौल में देश के सबसे शानदार आर्थिक तथा राजनैतिक ज्ञानियों में से एक पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह का मौजूदा प्रधानमंत्री को लिखा मार्मिक, पर ठोस सलाहों से भरा खत सत्ता को राजधर्म की याद कराता है। उसी दिन जो घोषणाएं सरकार ने कीं, वे जानकारों की राय में डा. सिंह की ही सलाहों का लगभग अक्षरश: पालन करती थीं हालांकि उससे पहले खत का जवाब उनको तीखे उपहासमय स्वर में स्वास्थ्य मंत्री ने सोशल मीडिया पर एक ट्वीट में दिया था। तटस्थ लेखक की दृष्टि से वयोवृद्ध नेता डा. सिंह का वक्तव्य महामारी के महाभारत का सबसे मार्मिक, सबसे करुण अध्याय खोलता है। वह सरकार बहादुर के सामने छोटी-छोटी समझदारियों और बड़ी जिम्मेदारियों को शरशैया पर पड़े भीष्म पितामह की तरह ऐसी स्पष्टता से रखता है जो सरकारी प्रचारों और चुनावी नारों को निरर्थक और अमानवीय साबित करती है। इस युद्ध के अभिमन्यु की तरह राहुल गांधी ने भी एक दिन पहले जनता के स्वास्थ्य की चिंता को सबसे ऊपर रखते हुए प. बंगाल चुनावों के शेष तीन चरणों को एक साथ निबटाने का अनुरोध करते हुए कांग्रेस की तमाम चुनावी रैलियां स्थगित कर दी थीं। पर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक बंगाल में हुंकार-फुंकार भरी रैलियां जारी हैं। अंतर यही है कि इस बार हर रैली 500 तक सीमित रहेगी। लेकिन 5-5 सौ के ये गुच्छे चंद दिनों में ही हजारों को संक्रमित कर सकते हैं। पर वह भैंस तो जा चुकी पानी में।
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विज्ञान राजनीति या चतुराई से नहीं, ठोस साक्ष्य और तरीके से निर्मित उपचार विधियों से चलता है। जिस समय बड़ी तादाद में डॉक्टर और चिकित्साकर्मी संक्रमित होकर मर रहे हों, जरूरत है ऑक्सीजन की, दवाओं और अधिक टीकों की। विजय की मदमत्त हुंकार या डंडा चलाई की नहीं। नही खुद सारी दवाएं, वितरण तथा टीकाकरण प्रक्रिया अपने हाथों में थामने से फैले रायते को समेटने का दारोमदार राज्य सरकारों पर डालने में कोई सयानापन है। आपाधापी और पलायन की इस वेला में बड़े पैमाने पर ई-बैंकिंग सिस्टम की खामियों का फल भुगत रहे राशन सेवा, आधार कार्ड पर टिकी सोशल सिक्योरिटी और सब्सिडी पर जी रहे करोड़ों उन गरीबों के सवाल को भी सामने ला खड़ाकर दिया है जिनके पास या तो आधार कार्ड नहीं हैं या उनके राशन कार्ड जो आधार से लिंक करने को सरकार ने जमा करवाए, और उनके ई-खाते तकनीकी गड़बड़ी से क्लियर नहीं हो पा रहे।
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पिछली बार जब भारत कोविड से जूझा था तो एकजुटता की कमी नहीं थी। केंद्र, राज्य, आम आदमी, कार्पोरेट्स सबने यथा संभव महामारी के मारों को जितनी मदद संभव थी दी, लेकिन लंबे युद्ध दिलों को पथरा देते हैं। उससे दानवीर कर्ण नहीं, वज्र कठोर मनवाले अश्वत्थामा के सरकारी बिरादर क्लर्क और पुलिसवाले ही निकलते हैं जो बदले के लिए किसी भ्रूण की हत्या भी जायज मानते हैं। श्मशान से गलियों तक में डंडा बजाकर घूमते अन्यायी और आरडब्लूए के राजा बेटा प्रतिनिधि को गौर से देखिये। वह कौन है? गैर? अजनबी? आप क्या करें? उनपर टूट पड़ें? या थोड़ा हिचककर उन्हें मानवीय कर्तव्य याद दिलाएं? पढ़ते थे कि जब रावण मारे नहीं मरा, रामजी ने उसके मर्मस्थल पर बाण मारा। अगर वह ईमानदार है, तो उसकी प्राथमिकता है साहित्यिक या पत्रकारीय लेखन से मर्मस्थल पर लक्ष्य साधना। महाभारत में नैतिक घपला बिलकुल नहीं। उसके पीछे हमारी सदियों की कई कई युद्धों से गुजरने की यादें हैं। दूसरे महायुद्ध के दौरान एक नात्सी जर्मन यातना शिविर के आज तक संरक्षित दरवाजे पर लिखी पंक्तियां कहती हैं कि जो जातियां अपना इतिहास भूल जाती हैं, वे उसे फिर फिर दोहराने को अभिशप्त होती हैं। महामारी के बीच इसीलिए यह लेखिका महाभारत युद्ध की चंद यादें ताजा कर रही है
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