दो बरस तक कोविड की तालाबंदी से उबरती दुनिया के सामने यह साफ है कि अगर दुनिया के पर्यावरण और राजनीति में संतलुन लौटाना हो, तो आज की लोकतांत्रिकता की शक्ल और विश्व मंच पर सदी पुरानी जुगलबंदियां बदलनी ही होंगी। अलां या फलां, यूएन या जी-7 या कॉप 26 बैठकों से कुछ खास नहीं निकलेगा। पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर दे हुए स्कॉटलैंड की राजधानी ग्लासगो के हालिया सम्मेलन में यह बात पानी में तेल की तरह सतह पर साफ दिखाई दी। अमेरिका रिपब्लिकन युग की हठधर्मिता त्याग कर इस मुद्दे पर गंभीर तो हुआ है लेकिन घरेलू स्तर पर सत्तारूढ़ डेमोक्रेट्स के उम्रदराज नेतृत्व तले पनपते मतभेद नेतृत्व ही नहीं, पार्टी को भी कमजोर करते जा रहे हैं। विपक्ष का कहना है कि जब घरेलू स्तर पर इतने सारे आर्थिक, सामरिक और शैक्षिक विकास कार्य देश के अपने सर पर खड़े हों, अमेरिका को दुनिया का चौधरी बनकर एक बार विश्व और पर्यावरण सुरक्षा का आर्थिक बोझ अपने कंधों पर नहीं लेना चाहिए। वैकल्पिक ऊर्जा की खोज पर अरबों लुटाने से बेहतर है कि मौजूदा जैविक ईंधनों से ही काम लिया जाता रहे। भला और कोई बड़े देश भी वैकल्पिक ईंधन अपना रहे हैं? अंतिम बात में कड़वी सचाई है। पर्यावरण में जहरीली गैसें उत्सर्जित करने वाले दो बड़े देश- चीन और रूस के मुखिया औपचारिक संदेश भेजने के बाद खुद इस सम्मेलन में आए भी नहीं। सारे यूरेशिया के देशों में (चीन को छोड़ कर) मंदी छाई हुई है। तालाबंदी ने माल के उत्पादन, आवाजाही और साझेदारी को बुरी तरह हिला दिया है और कोविड ने स्वास्थ्य, समाज कल्याण के ढांचे को। ब्रिटेन यूरोपीय गठजोड़ से बाहर जा खड़ा हुआ है। शेष देश अमेरिका से पुरानी दोस्ती छोड़ तो नहीं सकते लेकिन बैठक में महाशक्ति चीन से रार मोल लेकर अमेरिका के बगलगीर होने से वे यथासंभव बचते रहे।
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ग्लासगो की बैठक को भारत में भरपूर प्रचार मिला जहां हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी ने घोषणा की कि 2070 तक पर्यावरण प्रदूषण से भारत पूरी तरह मुक्त हो चुका होगा। पर अब तक यह सामान्य बुद्धिवालों के लिए भी साफ हो चुका है कि पर्यावरण क्षरण का मुद्दा किसी ज्यामितीय या ज्योतिषीय गणना से कतई परे जा चुका है। 2070 तो छोड़िये 2022 में धरती का क्या हाल होगा, ईमान से हम में से कितने मनीषीगण जानते हैं? इसी बरस भीषण बारिश और कोविड की दोहरी मार झेल चुके केरल, महाराष्ट्र, ओडिशा और उत्तराखंड को देखें। आज स्थानीय इतिहास की भीषणतम बारिश झेलने के बाद वहां के तमाम पर्यटन स्थलों तक जाने वाली सड़कों से लेकर खेत-खलिहान तक क्षत-विक्षत हैं। टूरिज्म तो छोड़िए, सरकारी संस्थान, जल ऊर्जा के केन्द्र, होटल और शैक्षिक परिसर- सब तबाह हैं। जंगली पशु भूख की मार से सीधे गांवों पर हमले कर रहे हैं और युवा पलायन चरम रूप लेता जा रहा है।
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पर्यावरण क्षरण की रोकथाम की सरकारी घोषणाओं की धुंध से परे जाकर देखें तो लगता है कि अधिकाधिक कमाई और ‘विकास’ के नाम पर तमाम पूर्व संकेतों (पिछले बरस केरल की तबाही, बंगाल, ओडिशा में चक्रवात, चमोली का जल प्रलय) को हमने अस्वीकार किया। अब कहा जा रहा है कि पूर्वानुमान इसलिए गड़बड़ाए कि इतनी बारिश, ऐसे तूफान पहले कभी रिकॉर्ड नहीं हुए थे। कई इलाकाई नदियों ने रास्ते बदल दिए, मजबूत सड़कें पुल निर्माण के कच्पचेन से नहीं, भूस्खलन से टूटी हैं। उससे क्या जान-माल गंवा चुके लोगों को यह गिनाना कितनी तसल्ली देगा? सवाल यह भी है कि वोकल फॉर लोकल का नारा देने वाले, अगले दस बरस में सौ बरस जितनी तरक्की का वादा करने वालों ने क्या लोकल वैज्ञानिकों से पुराने भूगर्भीय तथा भौगोलिक मानचित्रों और पर्यावरण क्षरण अथवा नई महामारियों के ताजे डेटा का इधर कोई गंभीर संकलन अध्ययन जारी करवाया है? क्या जनता की आशंका बेकार है कि बिना केदार घाटी के बदलते मिजाज को पढ़े रातों-रात करोड़ों रुपये खर्च करके पुराने नष्ट केदारनाथ इलाके में नई तीर्थनगरी बसाने वाले एक तरह से दोबारा फिर बालू की भीत पर पवन के खंभे ही खड़े कर रहे हैं। पहाड़ों में तटीय क्षेत्र में विद्युत संयंत्र लगवा कर पनबिजली दुही, बांध बनवा कर जलाशय बनवाए, अच्छा किया, पर क्या यह सोचा कि उस निर्माण से नदियों के अधिकार क्षेत्र और मिट्टी की कटान रोकने वाले वन भी तो नष्ट हो गए। उनके बचाव के लिए अंग्रेज भियंताओं तक ने जगह छोड़ी थी। फिर फरमान हुआ कि सड़कें सिंगापुर या दुबई-जैसी चौड़ी फर्राटेदार बनें। सड़कें चौड़ी हुईं ताकि मालवाही ट्रक तथा पर्यटक भारी वाहनों से फर्राटे भरते आते जाते रहें, पर निर्माण का मलबा नदी के पाट में न डाला जाए, इसका कितना ध्यान रखा गया?
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केदारनाथ मंदिर के सामने टीवी की मार्फत देश, खासकर उत्तराखंड के नागरिकों को बताया गया कि आने वाले वक्त में उत्तराखंड को पर्यटकों की भारी तादाद खींच कर इतना मालामाल बना दिया जाएगा कि जो तरक्की उसने गत 100 बरसों में नहीं देखी, वह दस सालों में ही हो जाएगी। लेकिन याद रखें, कुदरत की चेतावनी शुरू में नम्र होती है जो गंगा से यमुना तक नदी जल की रंगत बदल कर, तो कभी मरी मछलियां सतह पर दिखा-दिखा कर हमको समझाती है कि नदी बिगड़ रही है। पर नदियों की सफाई जल का उपचार या संरक्षित वनों में पेड़ों की कटान के बाद कभी आग से कभी नई महामारी का प्रकटीकरण हमको चेताता है कि नदियों के कुदरती बहाव या सदियों से इलाके की मिट्टी खराब होने से बचाने वाले देव स्वरूप इन जंगल से खेल मत करो।
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पर यह तर्क कौन सुनता? समुद्र तट बर्फीले इलाके, मरुप्रदेश, सिचिंत नदी, मातृक भूमि, हर कहीं खेतिहर और वनोपजीवी समाजों ने जो लक्ष्मण रेखाएं बना रखी थीं, उनको ठोकर मार कर एक साल में, या दस साल में इलाके को सोने की चिड़िया बनाने वाले विकास के नशे ने सरकारों को आसन्न कुदरती कोप से परे कर दिया। बड़े बांधों, केमिकल कारखानों के जल निषेचन या जंगल काट कर खदानों से खनिज निकालने का प्रतिरोध करने वालों को गैर जमानती धाराओं से जेलों में बंद कर दिया गया। खेती पर संकट की तर्कसंगत समझ से लैस धरना प्रदर्शनकारियों को सुना ही नहीं गया। जब वे जमे रहे तो उनकी कुटम्मस हुई। कोविड की मौतें जगजाहिर करने वाले मुखों पर चिप्पी लगा दी गई। अब पता चल रहा है कि जितनी औपचारिक सूचना थी, उससे 900 फीसदी अधिक तादाद में लोग महामारी से मरे। सरकारों ने कुदरती चेतावनियां ही नहीं खारिज कीं, उनकी तरफ समझदार इशारा करने वालों को भी खामोश कर दिया। अब जब कहीं बादल फटता है और लाखों बेघरबार होते हैं, तो अगर विपक्षी राज्य सरकार हो तो दोष उसके माथे डाला जाता है, केन्द्रशासित हुई तो नागरिकों के लिए जिम्मेदार बनने और राष्ट्रीय कर्तव्य निभाने पर प्रवचन शुरू हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने दुनिया का तापमान क्रमश: बढ़ने का विधिवत अध्ययन करके नतीजा सुनाया है कि अगर तुरंत फॉसिल ईंधन प्रयोग न रुका तो 2030 तक अधिकतर दुनिया जल जीवन से शून्य हो जाएगी।
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ऐसे अंधेर नगरी माहौल में आज एक उम्रदराज नेता जब कहे कि उसके देश में 2070 तक स्वच्छ ऊर्जा आ जाएगी और तेल कोयला उत्सर्जन से प्रदूषित पर्यावरण साफ हो जाएगा, तो गारंटी क्या है कि उससे पहले हमारी प्रजाति ही साफ न हो चुकी होगी? वैकल्पिक ऊर्जा पर सघन शोध को बढ़ावा देने, अंतरराष्ट्रीय मानक तथा नियामक एजेंसियों को बनवाने और उनका खर्चा-पानी वहन करने पर इन बैठकों की साझा खामोशी बहुत कुछ कहती है। शक नहीं कि पिछले वर्षों में भारत में पर्यावरण संरक्षण पर वैज्ञानिक बोध का दायरा और देश के हर हिस्से का नदी, पर्वत, जंगलों से जुड़ाव का अहसास कुछ तो बढ़ा ही है। लेकिन राजनीति के आचरण में या जन सामान्य की दैनिक जीवन शैली में पंचतत्वों की बनी दुनिया बचाने की चिंता का दायरा लगभग गायब होता गया है। ट्रैफिक कम नहीं होता, पराली जलाना नहीं रुकता, पटाखों तक पर राजनीति होने लगती है। किस पार्टी की किस राज्य में सरकार है, उसका गणित बिठाकर ही आपदाग्रस्त गरीबों के बीच राहत राशन बंटवाए जाते हैं। जिस तरह थाने खोलने भर से अपराध नहीं बंद हो जाते उसी तरह शक्ति और लोकतंत्र के नए समीकरणों से चलायमान दुनिया में अब विश्वगुरु बन कर एक विश्व एक पर्यावरण के मद्दे पर प्रवचन देना कानों को भले सुहाना लगे पर, सिर्फ शब्दों से पर्यावरण या राजनीति- किसी का क्षय नहीं मिटता।
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