इस बार का पितृपक्ष बहुत कुछ अनहोनी घटनाओं की दु:खद यादें लिए-दिए बीत गया जिनमें उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी में प्रदर्शनकारी किसानों की वीआईपी गाड़ी से कुचल कर हुई मौतें सर्वोपरि हैं। कठोपनिषद् के नचिकेता की याद आई जो कृपण पिता से नाराज होकर बिन खाए-पिए दो दिन तक यमराज के दरवाजे पर धरना देकर बैठा रहा था। लेकिन तब के यम उनसे तो कम ही निष्ठुर निकले जितने कि वे जिनके दरों पर जगह-जगह देश के किसान धरने पर बैठे हुए हैं। किसानों की ही तरह, तब यमराज के तमाम आश्वासन ठुकरा कर हठीला नचिकेता अपनी रट पर कायम रहा, मुझे वह जानकारी चाहिए जिससे मैं अपनी मृत्यु का रहस्य समझ जाऊं।
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किसानों को कुचल कर मारे गए साथियों की मौत से मृत्यु का कितना ज्ञान मिला होगा, कहना कठिन है। पर उनका आंखों देखा सच सरकारी सच से कहीं ज्यादा कठोर है। पहले दिन सरकारी तबका घटना को दुर्भाग्यपूर्ण लेकिन उग्र प्रदर्शनकारियों की गलती बताने पर अड़ा रहा। मीडिया ने भी किसानों के कुचले जाने के वीडियो को अनदेखा कर शाह रुख खान के बेटे का पीछा करना अपना धर्म माना। अब जब ठोस साक्ष्य नकारे नहीं जा सकते, तब मीडिया चौबीस घंटे बाद किसानों के चेहरे से गन माइक सटा कर पूछ रहा है कि जब आपके साथी किसान कुचले जा रहे थे, तब आपको कैसा लगा? उसके तुरंत बाद पैनल में सत्ता के प्रवक्ता चालू हो जाते हैं कि जी, यह सच नहीं, एक खतरनाक देशद्रोह की साजिश का भाग है। सरकारी सफाइयां सुन कर लगता है कि कठोपनिषद् के यम में उनसे कहीं अधिक करुणा थी जो अंतत: सदयता से नचिकेता को ब्रह्मज्ञान देकर संतुष्ट करने उसके सामने बैठ तो गए।
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आज की सबसे बड़ी तकलीफ यही है कि लोकतंत्र में सत्ता से जन संवाद का तंत्र तो हर दिन निष्प्राण होता जा रहा है जबकि अन्याय पीड़ितों के दर्जनों सवाल बने हुए हैं। समाज के बीच भी सहज भरोसे का संवाद खत्म हो रहा है। और इसीलिए हम सहजता से अपनी बात पर कायम रह कर सत्ता की जवाबदेही मांगने वाला गांधी-अतीत भूल गए हैं। नचिकेता की ही तरह हमको भी मृत्यु की आंख में आंख डाल कर पुरखों से इस निरर्थकता का अर्थ पूछने की जरूरत महसूस हो रही है। पर इतिहास परंपरा पर नए पंडों के रचे झूठों का अंबार इस कदर लाद दिया गया है कि अतीत के आवाहन के पवित्र मंत्र हम भूल चुके हैं। अपने अंतिम दिनों में दिए एक भाषण में गांधीवादी पर्यावरणविद् मित्र अनुपम मिश्र ने कहा था, मृतकों से संवाद और पुरखों से संवाद- दो अलग बातें हैं। मृतक को देखना मृत्यु की दहशत से भरना है, पर पुरखों की स्मृति से संवाद हमें भविष्य की तरफ़ जाने का नया भरोसा देता है। किसी विज्ञापन कंपनी की ब्रैंडिंग से बनवाए और गोदी मीडिया में भरपूर विज्ञापनों से धुकाये जल-जीवन संरक्षण के बांझ संदेशों से खेती, जल, जंगल या वन संरक्षित नहीं होते। अपने पुरखों से ही किसानों को खेती के, जल संचयन के, वनों की, मिट्टी के प्रकारों की और बीजों की रक्षा के वे गहरे गुर मिले हैं जिनसे हमारी खेतिहर परंपराएं इतने कुदरती उतार-चढ़ाव, महामारी और युद्ध झेल कर कायम हैं।
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इधर, खेती को जन जीवन की विपुल विविधता के आईने में देखने की बजाय नई तरह के विकास की बात होने लगी है जो कारखाने के शहरी उत्पादन तंत्र को सोने के अंडे देने वाली मुर्गी मानता है। इस संदर्भ में भारत की विशाल आबादी को सरकारी चर्चाओं और मीडिया रपटों में यूं देखा- बखाना जा रहा है, मानो अल्पसंख्य, यानी गैर हिंदू समुदायों की बेलगाम आबादी (सिरे से झूठी बात) एक खतरनाक टिकटिकाता बम है। इसे तुरंत निरस्त न किया गया तो उसके विस्फोट से जल्द ही देश में जीवनयापन के लिए हर जरूरी तत्व की भारी किल्लत हो जाएगी और पड़ोसी बाहरी देशों से सीमांत के इलाकों में आतंकी घुसपैठ का खतरा भी बहुत बढ़ने लगेगा। असली सच वह है जिसको गांधी जी ने भी दोहराया था। पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सबकी सामान्य जरूरतें तो पूरी कर सकते हैं, मगर किसी के असीमित लालच को तृप्त करने के लिए वे अपर्याप्त हैं।
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ताजा पैंडोरा बॉक्स के खुलासे सामने हैं। एक तरह से इस लेखिका को लगता है, मानो पितृपक्ष में पुरखे ही ये ब्योरे निकलवा लाए हैं ताकि नचिकेता की तरह हम समझें कि हम किसके लिए मर-खप रहे हैं? इस खुलासे से उजागर नाम साबित करते हैं कि भारत में दुनिया के हर देश की ही तरह कुल आर्थिक संसाधन चंद अतिसमृद्ध लोग हथिया चुके हैं जो स्वदेश में करों से बचने के लिए कुछ खास जगहों में कायम शेल कंपनियों द्वारा चोरी-छुपे बाहर भेजते रहे हैं। इनमें भारत के शीर्ष कॉरपोरेट मुगल, वरिष्ठ राजनेता, फिल्म अभिनेता और क्रिकेट के धुरंधर- सब शामिल हैं। ‘लिव लाइफ किंग साइज’ जीवन शैली का पक्षधर दुनिया की आबादी का यह सिर्फ दो-तीन फीसदी हिस्सा आपस में एक गहरे नेटवर्क के भाईचारे से जुड़ा हुआ है और सब कुछ अपने लिए समेटने का इच्छुक है। उसी ने लाखों निवेशकों की गाढ़ी कमाई में वॉल स्ट्रीट से लंदन स्टॉक एक्सचेंज तक चोरी से सेंध लगवाई, एशियाई तेल के कुंओं, अफ्रीका से भारत तक खदानों, जंगलों को मिटाया और ऊर्जा के गैरजरूरी इस्तेमाल से बनी घातक ग्रीन हाउस गैसें लगातार पर्यावरण में छोड़ रहे हैं।
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गरीबों की आबादी भले उससे पांच गुना बड़ी हो, पर उनकी दो जून की दाल-रोटी जुटाने की सीमित जरूरतों से दुनिया में उतनी मौतें नहीं हुई हैं जितनी ‘विकास’ की स्वहित में व्याख्या गढ़ने वाले इन मुठ्ठी भर अमीरों के स्वार्थी दोहन से। पिछले तीस सालों में भारत की तरह अर्थव्यवस्था को ‘मुक्त’ कर जो देश फटाफट औद्योगिक तरक्की की डगर पर चले हैं, वहां कहीं एफ वन फॉर्मूला रेस की जगरमगर शुरुआत हुई, तो कहीं वाहनों की तादाद में इजाफा। जब पर्यावरणविदों ने कहा कि जामों के कारण देश भयावह प्रदूषण और ट्रैफिक जाम झेलने को मजबूर हैं, तो कोई इन्हें कम नहीं करता? गौरतलब है कि पेट्रोल की कीमतें सुरसाकार रूप ले चुकी हैं और रोड रेज में मारपीट आम है, फिर भी हर कहीं मंत्रियों के लिए पेट्रोल को पानी की तरह पीने वाली सुपर महंगी फर्राटा कारों की लाइन किस लिए लगवा दी गई है? बड़े घरानों का सरकार की निरंतर ठकुरसुहाती करने वाले अधिकतर मीडिया मालिकान भी इस श्रेणी में घुस गए हैं।
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हर बड़े चुनाव की तरह झाग बैठ जाने के बाद जल्द ही इस बार भी जिम्मेदार लोग कहते देखे जाएंगे कि सारी मुसीबत की जुड़ हमारी बेतहाशा बढ़ी आबादी है जिसके कारण जोतें छोटी और किसान बेहाल हुए हैं। हमको चीन की तरह अब अपनी आबादी पर काबू करने की कड़ी कोशिश करनी चाहिए। जो बात जनता को शायद ही कभी बताई जा रही है, वह यह कि पांच दशक बाद उस ‘एक बच्चा नीति’ की विसंगतियों से आजिज चीन अब अपने नागरिकों को अधिक संतान पैदा करने के लिए उकसा रहा है। इसमें शक नहीं कि चीन की आर्थिक तरक्की की रफ्तार में भारी इजाफा हुआ है। आज वह सस्ती कीमत पर डंडामार तरीके से बनवाई गई सामग्री का भारी निर्यात करते हुए बड़े देशों की अपनी उत्पादकता मिटा कर उनको चीन निर्भर बना चुका है। लेकिन यह भी उतना ही गौरतलब है कि अब वह अपनी नित नया खरीदो, पुराने को फेंको के दर्शन दे रहा है। सरकार को डर है कि वे उसके स्थायित्व के लिए खतरा बन रहे हैं। उधर, विश्व ग्राम ग्लोबल विलेज के पक्षधर अपने देश के हित स्वार्थ की रक्षा के लिए पुराने गठजोड़ त्याग कर इकलखोरे बन कर वाणिज्य-व्यापार में प्रतिबंध लगा रहे हैं।
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हमारे पुरखे जानते थे कि पर्यावरण सारी दुनिया की मनुष्य प्रजाति को कुदरत से जोड़ने वाला तंत्र है। वह बचा रहा, तभी मनुष्य भी बचेगा। गुआटेमाला, बांग्लादेश और थाईलैंड सरीखे छोटे समुद्रतटीय देशों में पर्यावरण क्षरण भूकंप, सुनामियां, कीचड़ की बाढ़ तथा तटीय जमीन के समंदर में समाने की घटनाओं में बढ़ोतरी कर रहा है। जब बड़े से बड़े सत्ताधारी और उनकी नगरियां कृष्णोत्तर द्वारिका की गति को प्राप्त हो रहे हैं, तो संकेत को समझें। जंगलों को, खदानों को निजी क्षेत्र का निवाला बना कर चचा चौधरी को गंगा सफाई योजना का मैस्कॉट बनाने के बाद जब हिमालयीन ग्लेशियरों के साथ गंगा च यमुना च गोदावरी, सिंधु, कावेरी- सब की सब सस्वती की तरह विलुप्त होने लगेंगी, तो हमको उधार के सुख पर टिके विकास की असली कीमत पता चलेगी।
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