जैसे-जैसे कोविड की दूसरी लहर का उफान बैठ रहा है और टीकाकरण रफ्तार पकड़ रहा है, हम लोग मौत के डर से बरी होकर साल भर बाद भारतीय राज-समाज की शक्ल को गौर से पढ़ पा रहे हैं। उससे यह साफ है कि कोविड ने हमारा मीडिया उद्योग साल भर के भीतर आमूलचूल बदल डाला है। देश का एक बड़ा गुलाबी अखबार हर बरस (मीडिया कंपनी बोर्डों द्वारा जारी नियमित रपटों, उद्योग संगठनों द्वारा किए गए मीडिया व्यवसाय के आकलनों और अपने एक एशियाई साझीदार समूह की मदद से) मीडिया के भूत और भविष्य की बाबत एक सालाना तुलनात्मक फेहरिस्त जारी करता है। उसने भी 2020- 2021 के दौरान मीडिया उद्योग के तमाम डेटा के अध्ययन से निष्कर्ष निकाला है कि पिछले दशक 2010-2019 की तुलना में इस एक बरस के भीतर भारतीय मीडिया में जितनी बुनियादी उथल-पुथल हुई है, वह पहले कभी नहीं देखी गई।
Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST
पहली बड़ी बात यह कि इस बरस प्रिंट, डिजिटल तथा टेलीविजन खबरिया चैनलों का गुलदस्ता बना चुकी बड़ी और पुरानी मीडिया कंपनियों की कमाई में बड़ी गिरावट आई है। प्रिंट के ग्राहक अंग्रेजी में कम होते गए हैं और भारतीय भाषाओं के अखबारों की हालत भी बहुत बेहतर नहीं। लगातार भारी दर्शक-श्रोता खींच कर भारी मुनाफा कमा रही बहुराष्ट्रीय कंपनी गूगल की सबसे फायदेमंद शाखा यू ट्यूब में भी इस बरस मामला ठंडा ही दिखा। 2019 में शिखर पर रहे सरकार के पुरजोर समर्थक भारतीय जी समूह से मनोरंजन प्रधान डिज्नेस्टार इंडिया समूह आगे निकल रहा है। वैश्विक डिज्नी समूह की कुल कमाई में भी गिरावट आई है। यह तो समझ में आता है कि डिजिटल पोर्टल स्मार्ट फोन पर सुलभ होने से पुरानी शैली के अखबारों, ई-अखबारों और खबरिया पोर्टलों के पाठक नहीं बढ़े। जबकि फेसबुक सरीखे मंच के दुनियाभर में 1.6 बिलियन यूजर्स हैं जिसमें भारतीय दर्शकों की बहुतायत है। लोकप्रिय मुख्यधारा का भारतीय मीडिया अब हम किसको कहें?
Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST
दूसरा रोचक बदलाव यह कि कई डिजिटल टेलीकॉम, तकनीकी, मीडिया तथा मनोरंजन व्यवसाय करती रही (गूगल, अमेजन, एटी एंड टी, फेसबुक, डिज्नी, कॉमकास्ट, एपल तथा नेटफ्लिक्स सरीखी) नामी-गिरामी कंपनियों का इस साल एक दूजे में विलय हो गया है। इनसब मेगा कंपनियों के बीच उपभोक्ताओं की तलाश में गहरी स्पर्धा बन रही है। यह बदलाव इतनी अप्रत्याशित तेजी से हुआ कि आज मीडिया कंपनी की पारंपरिक परिभाषा, आकार, उनको चलाने वाले नियमानुशासन और कानून सभी काफी हद तक नाकाफी बन चले हैं। रोचक मुकदमेबाजी से जाहिर है कि अब अदालत के आगे यह सवाल है कि फेसबुक या ट्विटर की सर्वसम्मत परिभाषा क्या मानी जाए? चैट मंच? सूक्ष्म समाचार एग्रीगेटर? या लघु वीडियो व्यवसाय मंच? सरकारी नियमानुशासन लागू कराने में इनको किस श्रेणी में रखा जाए?
Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST
साल भर से बाहर निकलना मना था। घरों में बंद लाखों भारतीय लोगों ने पाया कि वे टीवी या लैपटॉप पर हर भाषा में सबटाइटलिंग की सहज सुविधा देने वाली तकनीकी की मदद से अमेरिकी, स्पेनिश, इतालवी, पुर्तगाली या विभिन्न भारतीय भाषाओं की फिल्में अपनी भाषा में देख सकते हैं। इसकी वजह से पुराना मुंबइया वीक एंड रिलीज का धमाका करने वाली शै का जादू उतर गया है। और डिजिटल मनोरंजन जगत: टीवी, विविध देसी-विदेशी ओटीटी प्लेटफॉर्म और मुंबइया फिल्म व्यवसाय का सबसे उच्छृंखल हिस्सा बनकर उभरा है। यह बात भारत की टॉप मीडिया कंपनियों की फेहरिस्त से भी पुष्ट होती है। उसमें आज पहले नंबर पर डिज्नी, दूसरे पर जी, तीसरे पर गूगल, चौथे पर टाइम्स समूह हैं। फिर सोनी, टाटा नेटवर्क, सन जैसे कल तक के लोकप्रिय समूह हैं, अंतिम पायदान पर नेटफ्लिक्स है। पिछले दशक की तालिका में रहे स्टार तथा पीवीआर इस लिस्ट में नहीं हैं। जबकि गूगल चौथे से तीसरे नंबर पर चढ़ गया है। वजह यह, कि अब उसकी ताकत दूनी है : वह सर्चइंजन भी है और दुनिया का सबसे बड़ा वीडियो प्लेटफॉर्म भी।
Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST
तीसरा बदलाव : पहले मीडिया जगत को सबसे अधिक कमाई विज्ञापनों से होती थी इसलिए उत्पाद के दाम बहुत कम थे और सारा मॉडल उपभोक्ता नहीं, विज्ञापन दाता की इच्छा पर केंद्रित होता गया था। आज का मीडिया उपभोक्ता बदल गया है। भारत में ओटीटी प्लेटफॉर्म सब्सक्राइबर आज 5 करोड़ अस्सी लाख हो चुके हैं। फिक्की का अनुमान है कि 2025 तक यह तादाद बीस करोड़ हो जाएगी। यह उपभोक्ता, खासकर युवा वर्ग सीधे अपने मनपसंद मीडिया समूह को फीस चुका कर अपने मनपसंद अखबार डिजिटल रूप में और वीडियो कार्यक्रम खास क्रम में जब जी चाहे पढ़-देख रहे हैं। इसलिए कमाई का स्रोत एक बार फिर उपभोक्ता बनता जा रहा है, न कि विज्ञापन कंपनियां। वे अब पता करते रहती हैं कि किस ई विधा के कितने सब्सक्राइबर हैं, फिर विज्ञापन जारी करती हैं। भारत के सभी बड़े और पुराने अखबार उपक्रम वैसे भी डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म आने के बाद से तेजी से नीचे जा रहे थे। कोविड तालाबंदी 1 तथा 2 ने अखबारी कारखानों, छापाखानों तथा फील्ड रिपोर्टिंग सब को काफी हद तक ठप्प कर दिया। जिससे वहां छंटनियों का क्रम और तेज हुआ। कुल मिलाकर सभी बड़े प्रकाशन समूह अब ऑनलाइन भुगतान कर ग्राहक बनने वालों की खोज में अपनी प्राथमिकताएं बदल रहे हैं, और फ्रीलांसरों की बन आई है, जो सस्ता उत्पाद मुहैया करा रहे हैं जिसकी विश्वसनीयता की परख या पैमाने काफी हद तक शिथिल कर दिए गए हैं ताकि अधिक वेतन लेने वाले खुचड़िया पुराने पत्रकारों से निजात मिले।
Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST
अनुभव तथा निगरानी की कमी से आज के मीडिया में सक्रिय कच्ची उम्र के किशोर फ्रीलांसर ही नहीं, चारों तरफ बढ़ते राजनीतिक दलों के हितैषी पहरुए भी पहले से ही पारिवारिक अनुशासन से दबे हमारे मध्यवर्ग के तथाकथित पढ़े-लिखे लोगों को अपनी भ्रामक गिरफ्त में लेने में सफल हैं। आज के ऐसे प्रभावी मीडियाकर्मी धंधई उसूलों को लेकर कितनी समझ रखते हैं, यह प्राइम टाइम खबरों से जाहिर है। मीडिया के अधोपतन में पिछले सात सालों का योगदान यह रहा कि उसने बॉलीवुड और क्रिकेट के लोकप्रिय चेहरों को पार्टी के प्रचार रथ से जोड़ा। फिर दुतरफा प्रेस वार्ताओं की जगह सरकारी माध्यमों पर शीर्ष पुरुषों के इकतरफा प्रवचनों, और धर्मग्रंथों से निकाली धार्मिक छवियों पर सतही मनोरंजन कार्यक्रमों की बाढ़ ला दी। बड़े-छोटे पर्दे पर आते ही युधिष्ठिर से द्रौपदी और शोले से लेकर भोजपुरी फिल्मों के स्टार तक सब राजनीति में घुस गए। खिजाबी अभिनेताओं, रिटायर हो चुके खिलाड़ियों और नेतागिरी का गड्डमड्ड होना जन भावना के साथ एक हास्यास्पद ही नहीं खतरनाक खिलवाड़ भी है।
सुशांत राजपूत की संदिग्ध मौत से लेकर कंगना रनौत की कर्कश चीख-पुकार और उनकी घर ढहाई तक सब इसके शर्मनाक उदाहरण हैं। कुल मिलाकर ताजा रपट उजागर कर रही है कि मीडिया आज किसी पारंपरिक विवेक या ज्ञानका वाहक नहीं, धार्मिक अज्ञान और सांप्रदायिक अदावतों का पुनर्जागरण बनता जा रहा है। इस मुहिम में जो शामिल नहीं होंगे उनकी अकल ठीक करने के लिए नित नए कानून लाए जाएंगे। यह विधि सम्मत न हो, ताजा राजनीति-सम्मत है। राजनीति सम्मत यानी कॉरपोरेट मालिकान सम्मत। जैसी कहावत है: करवा कुम्हार का, घी जिजमान का, का लागे मेरे बाप का, कर पंडित स्वाहा!
Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST
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Published: 27 Jun 2021, 8:04 PM IST