विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: रंगीन रोशनी करके संविधान की मर्यादाओं की नहीं होगी रक्षा, इसके लिए विपक्षी दलों को...

अगर लोकतंत्र और संविधान की मर्यादाओं की हमको रक्षा करनी है, तो संविधान दिवस पर रंगीन रोशनी करके यह नहीं होगा। गंभीरता से किसी-न-किसी तरह सभी विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर एक न्यूनतम कार्यक्रम तय कर लेना होगा। पढ़ें मृणाल पाण्डे का लेख।

फोटो: नवजीवन
फोटो: नवजीवन 

फ्रांसीसी कहावत है- चीजें जितनी बदलती हैं, उतनी ही बिलकुल पहले जैसी होती जाती हैं। राज्यों के असेंबली और मध्यावधि चुनावी नतीजे भी लगातार इसी बात को पुष्ट करते हैं। टीवी के पंडित चुनावी नतीजों के पहले हर बार जिस आमूलचूल बदलाव की उम्मीद करते रहते हैं, वह 2021 में भी नहीं आया। हिमाचल में सरकार का सूपड़ा साफ हुआ। बंगाल में दीदी, और तमिलनाडु में द्रमुक क्षेत्रीय गौरव और हिन्दी बनाम क्षेत्रीय भाषा के मुद्दों की सवारी करते हुए बहुमत से जीत गए। हर तरह की दैवी आपदा और कोविड की भीषण मार झेल रहे केरल ने भी सत्ता में भाजपा या कांग्रेस की बजाय मार्क्सवादी दल की मजबूत पकड़ को कायम रखा। दूसरी तरफ, पूर्वोत्तर में सत्तासीन सरकारों ने जनता का ध्यान महंगाई, बेरोजगारी और सीमा असुरक्षा के मद्दों की बजाय लड़ाई बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक की शक्ल देते हुए मीडिया रिपोर्टिंग पर कड़ी जकड़बंदी लगाते हुए अपनी सत्ता बनाए रखी। असम में पूर्ण बहुमत रखने वाली भाजपा की सरकार टंच रही , हालांकि सरबानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री-पद से हाथ धोना पड़ा। उनकी जगह हेमंत विश्व शर्मा मुख्यमंत्री बने जो जुमा-जुमा कुछ साल पहले तक समन्वयवाद तथा सर्वधर्म समभाव के समर्थक वरिष्ठ कांग्रेसी थे, दल बदल ने के बाद हवा भांपकर असम-जैसे बहुलतामय राज्य को नागरिकता काननू या हिन्दुत्व के मुद्दों पर बतर्ज प्रभुसत्तावान भाजपा, हांकते हुए भारी पड़े। त्रिपुरा के स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजे भी तृणमूल के बढ़ते आक्रामक हमलों के बाद भी भाजपा के ही पक्ष में रहे हैं।

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कुल मिलाकर इस समय गोलमाल है, भई सब गोलमाल है। जब सारी दुनिया में देशों और देशों के परिसंघ निहायत स्वार्थी, एक हद तक नस्लवादी और अंतर्मुखी बन कर महामारी, घरेलू युद्ध या पर्यावरण क्षरण से विस्थापित शरणार्थियों के देश में आने पर कठोरतम तरीकों से रोक लगा रहे हैं, भारत में अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों के उत्पीड़न की दुहाई देकर सीमित ही करुणा और मदद मिलनी संभव है। अगर लोकतंत्र और संविधान की मर्यादाओं की हमको रक्षा करनी है, तो संविधान दिवस पर रंगीन रोशनी करके और खास जश्न मना कर यह नहीं होगा। गंभीरता से किसी-न-किसी तरह भारत के सभी विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर एक न्यूनतम कार्यक्रम तय कर लेना होगा। यह घड़ी ईमानदार अंतर्मंथन की है। अलग-अलग खुशी या शोक मनाने की नहीं।

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सत्तापक्ष चौकन्ना है। इससे पहले कि विपक्षी दल एक मंच पर आएं, उसने रक्षात्मक तरीके से बल्ला चलाना जारी कर दिया है। पुरानी हनक से गोदी मीडिया और सोशल मीडिया में ट्रोल्स की मार्फत चौराहे पर सत्तापक्ष के बखिये उधेड़ने, बड़े विपक्षी नेताओं पर निजी, परिवार स्तरीय तानाकशी की अशोभन उत्कंठा में कोई लोक लाज, कोई कोर कसर नहीं छोड़ी जा रही। सत्ता समर्थक पक्ष के डिफेंस में इस समय कई फांकें साफ दिख रही हैं। उसकी अहम्मन्यता और श्रेष्ठताबोध पर आज उसके ही पूर्व साथी अकाली नेता, सब्रह्मण्यम स्वामी और यशवंत सिन्हा विपक्ष से कहीं अधिक आक्रामकता से सरकार की घरेलू ही नहीं, सामरिक और विदेश नीतियों के मोर्चे पर विफलता और संसदीय मर्यादाओं के उल्लंघन को लेकर नित नए खुलासे कर रहे हैं। उसका कांग्रेस के खिलाफ परिवारवाद के आरोपों पर भी, सोशल मीडिया पर फेहरिस्तें दी जा रही हैं कि किस तरह सत्तापक्ष के लगभग सारे वजनी नेताओं के वंशधर भी राजनीति या उससे जुड़े मैदानों में बड़े ओहदों पर विराजमान हैं।

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दूसरी बड़ी फांक डेढ़ बरस से जारी किसानों के धरने के आगे हथियार डालने से बनी है। संसद का शीत सत्र शुरू होने से पहले जब सरकार ने ध्वनिमत से पारित कृषि काननूों का वापस लेने का ऐलान किया तो मीडिया पर (जिसमें गोदी मीडिया का भी एक छोटा भाग शामिल था) आम राय यह बनी कि सर पर खड़े उत्तर प्रदेश के चुनावों के मद्देनजर सरकार किसानी वोट बैंक का गुस्सा न्योतते जाने से डर गई है। पर इन कमजोरियों को भांप कर शीत सत्र के लिए माकूल रणनीति रचने को जब कांग्रेस अध्यक्षा ने विपक्षी दलों की बैठक बुलवाई तो ममता नहीं जुड़ीं। लोग कह रहे हैं कि कई राजनीतिक दलों के घाट का पानी पी चुके एक नए सदस्य (जिनको भोला अंग्रेजी मीडिया चाणक्य मान रहा है), तृणमूल को विशाल राष्ट्रीय दल बना कर कांग्रेस को उदरस्थ करवाने जा रहे हैं। सपना सुहाना हो न हो, सयाने कह गए हैं कि बड़े जीव को उदरस्थ करने को पेट बड़ा चाहिए। और गौरतलब है कि त्रिपुरा में स्थानीय निकायों में बहुप्रतीक्षित तृणमूल की जीत का सपना सत्तारूढ़ सरकार की जीत औलरेडी खंडित कर चुकी है। गोवा में भगवान उनकी रक्षा करे। लिहाजा हिसाबी-किताबी किस्म के विश्लेषक जो कहें, शीर्ष पर कांग्रेस और तृणमूल के सनातन झगड़ों के बीच राज्य स्तर पर हर कहीं सत्ता की रोटी राज्यों के विपक्ष के क्षेत्रीय दल और उनके एक छत्र नेता ही पा रहे हैं।

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इस स्थिति में लगता है कि 2019 के आम चुनावों में राष्ट्रीय दलों के लिए मुंह में तिनका दबा कर क्षेत्रीय दलों से चुनावी गठजोड़ के लिए चिरौरी करनी जरूरी होगी। और यह भी नितांत संभव है कि तब तक क्षेत्रीय दल पहले की तरह अपने ही बीच से किसी एक क्षेत्रीय क्षत्रप को नेतृत्व थमा कर राष्ट्रीय चुनावों में अपना चूल्हा अलग सुलगाने की तैयारी करने का मन बनाने लगे हों। मुद्दा यह है कि 1916 से इस उपमहाद्वीप की मुख्यधारा का प्रवाह सबसे सही और अनिर्बाध रहा जब उसके नेताओं ने हिन्दू-मुसलमान गुत्थी सुलझाने को अल्पसंख्य सुमदाय की आशंकाओं को ईमानदारी से समझने की कोशिश की। यह कोशिश गो-ब्राह्मण पूजक गोखले ने की, आश्रमवासी गांधी जी ने की, कांटे छुरी से खाने वाले नेहरू परिवार ने भी की। 1972 का शिमला समझौता हो या 1966 का ताशकंद समझौता या उससे भी पहले 1950 का नेहरू-लियाकत समझौता, समस्या की गूंजें, प्रतिध्वनियां और तर्क-प्रतितर्क वही हैं।

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तीसेक साल पहले माना जाता था कि जैसे-जैसे नई अर्थव्यवस्था और पंचायती राज रंग लाएंगे, शहरी उद्योगों का विकास होगा, ग्राम समाज की अंधविश्वासी, प्रतिगामी सामाजिक परंपराएं टूटेंगी, महिलाएं तरक्की करेंगी और जड़ों तक प्रशासन में पैठ बनाएंगी। इससे लिंग, जाति, क्षेत्र, वगैरा के भेदभाव कम होंगे और नई रोशनी आएगी। और बड़ी आर्थिक क्रांति के बाद सामाजिक क्रांति तो खुद-ब-खुद हो जाएगी। लेकिन पिछले दशकों में हमने देखा है कि आर्थिक सोच और सामाजिक परंपराओं की जड़ें बहुत गहरी होती हैं और कई बार ऊपरी छंटाई के बाद बदलाव का भ्रम भले हो, चुनाव पास आए नहीं, कि पुरानी जड़ें फिर फुनगियां पत्ते फेंकने लगती हैं: वही मंदिर, मंडल, वही सरकारी खजाने खाली कराने और सरकारी बैंकों को दिवालिया कराने वाली सब्सिडियां, वही लैपटॉप, मिक्सी, टीवी और मुफ्त अनाज आदि का बेशर्म वितरण। दीदी और अम्मा महिलाओं के सघन वोट बैंक को साम-दाम से समेट कर दूसरी पारी जीत गईं और केरल में लाल किताब के बाहर जाकर खालिस भारतीय सुपरस्ट्रक्चर के एझवा-ईसाई-नायर-लीगी जैसे वोट बैंकों का महत्व मार्क्सवादी भी सर माथे रखते हैं।

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रही मुसलिम वोट बैंक की बात।| सो, नाना थपेड़े खाकर अब वह राज्यवार अलग- अलग तरह से हर बार नए भावताव करने लगा है जो उसके लिए फौरी तौर से ही सही, अपने जानमाल की सुरक्षा के लिए जरूरी, यानी भाजपा को सत्ता से दूर रखने में मददगार, साबित हों। वे देख रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष राजनीति जिन दलों ने शाब्दिक स्तर पर अंगीकार की भी हुई है, वह उनके राजकाज को कोई आंतरिक अनुशासन नहीं देती। उसकी प्रशासकीय मशीनरी में कर्तव्याकर्तव्य का बोध नहीं लाती। उधर, धर्म की बातें करने वाले भी धर्म के नाम पर कुछ स्वयंभू किस्म के साुध-साध्वियों की अनकहनी बातों को खंडित करने की बजाय हर मंच पर उनकी मौजूदगी सनिुश्चित कर, संगीन आतंकी हमलों के चार्जशीटेड अपराधियों को नई जांच बिठा कर मुक्त करवा, कभी योग और कभी (उप)भोग के रूपों को हिन्दुत्ववादी भाषा से जोड़ कर जाहिर कर रही है कि उसे सचमुच के धर्म की कितनी गहरी समझ है। धर्म और धर्मनिरपेक्षता- दोनों की सारी बुराइयां हमारी राजनीति ने अंगीकार कर ली हैं, उनके असली मूल्य परे कर दिए हैं। इसीलिए उत्तर से दक्षिण तक भारत में अराजकता लगातार बढ़ रही है।

भगवान न करे लेकिन यदि अराजकता के क्षणों में बढ़ती गरीबी, महामारी की मार, बेरोजगारी और किसानी दलिद्दर घर-भीतर, और चीन की सीमा पार से आक्रामक घुसपैठ भारत के तार-तार ढीले कर दे, तो यह सदियों पुरानी महीन जातीय, सांप्रदायिक, क्षेत्रीय, भाषाई दरारें जो राजनीति अभी वोट जुगाड़ में लगातार गहरी बना जा रही है, रातों-रात खाई बन कर देश के तार-तार ढीले कर सकती हैं। यकीन मानें, तब दक्षिण में जो होगा, वह उत्तर निरपेक्ष होगा और पूर्व की बदहाली में पश्चिम का हाथ भी नहीं होगा।

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