इन दिनों जाने क्या बात है कि चुनाव पास आते ही बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाने की जरूरत रेखांकित की जाने लगती है। प्रति परिवार सिर्फ दो बच्चों का जो मुद्दा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी आज उठा रहे हैं, लगभग दो बरस पहले प्रधानमंत्री ने भी वही मुद्दा उठाया था। यह बताने की जरूरत नहीं है कि आज देशहित के नाम पर सबके, खासकर अल्पसंख्य समुदाय के लिए परिवार नियोजन अपनाने का मसला भले ही वोट जुगाड़ू साबित हो; पर इससे पहले पिछली गलतियों और आबादी विषयक कुछ मिथकों और सचाइयों का ईमानदार मूल्यांकन करना ठीक होगा।
पहली सचाई: यूएन की ताजा रपटों के अनुसार, लगभग हर राज्य में भारत की आबादी कम हो रही है। अगर इससे अभी भी उतनी गिरावट दर्ज नहीं कर रहे उत्तर भारत के चंद राज्यों पर भी इसका असर हआ, तो अगले दो दशकों के बाद भारत भर में ग्लोबल पैमाने पर प्रति परिवार 2.1 बच्चे पैदा होने की आदर्श स्थिति कायम हो जाएगी। वैसे भी हमारे यहां 1950 से लगातार कम होती हुई आबादी दर प्रति परिवार 2.2 संतति पर आ गई है। और संभव है कि 2031 तक बिहार तथा उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्य भी 2.1 संतान प्रति परिवार की दर हासिल कर लेंगे।
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दूसरा व्यापक मिथक: सोशल मीडिया पर और नेताओं की भाषणबाजी से बार- बार जो फैलाया जा रहा है, वह यह है कि देश के अल्पसंख्यक समुदाय खासकर मुसलमान बहुत बच्चे पैदा कर रहे हैं। 2011 के जनसंख्या के सरकारी आंकड़े इसे भी निरस्त करते हैं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी की ताजा किताब बताती है कि 2005- 6 से 2015-16 के बीच हिंदू परिवारों में प्रजनन दर में जहां 2.13 प्रतिशत गिरावट आई, वहीं मुस्लिम समुदाय में यही गिरावट 2.62 प्रतिशत दर्ज हुई। दरअसल परिवारों में बच्चों की तादाद कम होने का सीधा रिश्ता जाति या धर्म से नहीं, बल्कि परिवार की आय और शिक्षा स्तर में (खासकर माता के) बढ़त से जुड़ा है। यही कारण है कि भारत के सबसे समृद्ध जैन तथा पारसी समुदायों में सबसे सीमित परिवार दर्ज किए गए हैं। ताबड़तोड़ जनसंख्या कम करने के लिए दो से अधिक बच्चे वालों को नौकरियों, स्वास्थ्य सुविधाओं या चुनाव लड़ने से वंचित करने की पेशकश सिरे से खतरनाक है।
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इस संदर्भ में दो कड़वी सचाइयां नजरअंदाज की जा रही हैं। इनको भी हमको समझना होगा। पहली सचाई है भारतीय समाज में बेटे की अथाह भूख, जिसकी वजह से गैरकाननूी बना दिए जाने के बाद भी जोखिम मोल लेकर परिवार कन्या भ्रूण को कोख में ही नष्ट कराते रहे हैं।
पिछली सदी में कुछ रायबहादुरों ने गर्भजल लिंग परीक्षण तकनीक का स्वागत करते हुए तर्क दिया था कि चलो इससे अवांछित कन्या भ्रूण गर्भ में ही खत्म किए जा सकेंगे और आबादी पर फटाफट अंकुश लग जाएगा। यह सोच निहायत अमानवीय तथा कुदरत के नियम के खिलाफ थी। दुनियाभर में जन्म लेने वाले बच्चों में कुदरतन 1000 लड़कों के पीछे औसतन 929 लड़कियां पैदा होती हैं। चूंकि नवजातों में कन्याओं के अनुपात में लड़के 0-5 साल के बीच अधिक मरते हैं, इसलिए यह लिंग अनुपात बराबर कायम रखने का कुदरत का अपना तरीका है। पर भारत के कुछ राज्यों में कन्या भ्रूण हत्या से यह अनुपात गड़बड़ा गया है जहां लड़कों के पीछे बहुत कम लड़कियां पैदा हो रही हैं। राजस्थान (1000:856), गुजरात (1000:855), उत्तराखंड (1000:841) और हरियाणा (1000:833) में तो लड़कियों का कम होता अनुपात सरकारी जन्म दर के आंकड़ों के आईने में अब साफ दिखाई देने लगा है। इन सभी राज्यों में बलात्कारों तथा स्त्रियों के प्रति हिंसा में जो बढ़ोतरी दर्ज हो रही है वह इससे काफी हद तक जुड़ी है, यह पुलिस और प्रशासन भी अब स्वीकार करने लगे हैं।
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गले से नीचे उतारने लायक अन्य कटु सचाई यह है कि भारत की बड़ी आबादी के लिए उत्तर भारत के राज्य ही अधिक जिम्मेदार हैं। दक्षिण भारत ने आबादी बढ़त पर काबू पा लिया है। जिसका उजला प्रतिबिंब उनके राज-समाज और बढ़ती सकल उत्पाद और आय दर में दिखता है। अब उनको (जायज) शिकायत है कि देश की सकल उत्पाद दर और आय में उनके कहीं बड़े योगदान के बावजूद उनको अधिक लोकतांत्रिक ताकत मिलने की बजाय, उनको उत्तर भारतीय राज-समाज की अमान्य नीतियों और बड़ी तादाद में रोजगार के लिए उत्तर से आई आबादी का अनचाहा वजन भी ढोना पड़ रहा है। उनके हिंदी विरोधी आंदोलनों में भी यह बात बार-बार उभरती है। और इसे स्थानीय तमिल दलों ने अपने चुनावी हित में और तेज धार दे दी है।
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तीसरी बात: जब-जब देश में सरकार द्वारा आबादी पर नियंत्रण के स्थायी तरीकों पर बात उठाई जाती है, नसबंदी का जिक्र अनिवार्य बन जाता है। कहने को कहा जाता है कि महिलाएं तथा पुरुष इच्छानुसार कई तरह के गर्भ निरोधकों का इस्तेमाल कर सकते हैं। पर दूर-दराज के गांवों में सिवा कंडोम या माला गोली के अन्य संसाधन आज भी सहज-सुलभ नहीं होते। अब इमर्जेंसी काल की ज्यादतियों का फल देखकर हर सरकार भली तरह समझ चुकी है कि औसत भारतीय पुरुष मतदाता नसबंदी कराने से बेतरह फिरंट हैं। लिहाजा टारगेट पूरे करने के लिए नसबंदी का बोझ महिलाओं पर ही डाला जाता है। सभी सरकारें आशा दीदी की मार्फत धन या जमीन के मरुब्बे का लालच देकर महिला नसबंदी के शिविर चलाती तो आई हैं, पर खबरें बता रही हैं कि अक्सर महिला नसबंदी अकुशल या अर्द्धकुशल हाथों से गांवों में लगवाए अस्थायी कैंपों में की जाती है। अगर किसी महिला का केस बिगड़ गया तो उसकी सुध लेने वाला जमीनी तंत्र नदारद है। नसबंदी करवा चुकी कुछ गरीब ग्रामीण महिलाओं ने इस लेखिका को यह भी बताया, कि सर्जरी के बाद उनके पति तथा ससुरालवाले उनके चरित्र पर भी शक करने लगते हैं। और यदि उसके किसी बच्चे की बाद में मौत हो गई तो कई बार उसे बांझ या दुशचरित्र करार देते हए पति दूसरी बीबी ले आता है।
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अगर उत्तर प्रदेश में धुकाई जा रही परिवार नियोजन की मुहिम फिर उसी पुरानी पटरी पर रफ्तार भरने लगी जिसने महिलाओं का इतना अहित किया है, तो उनका और हमारी उस कन्या शिशु का क्या होगा? वह तो और भी बरी तरह उपेक्षित-अनारक्षित बन जाएगी। सबसे ज्यादा खुद मां के पेट में, अपने ही परिवार के भीतर। परिवार के अपनों के दबाव से या तो वह गुपचुप गर्भ में लिंग निर्धारण के बाद गर्भपात से मारी जाएगी। जन्म ले लिया तो गुपचुप सौरी में। फिर भी लड़की बची रही तो लगातार उपेक्षा और कुपोषण से सूख सुखा कर पांच की उम्र तक पहुंचने से पहले ही कालकवलित हो जाएगी। दस साला जनगणना के जो सरकारी आंकड़े आए हैं उनके अनुसार, 0 से 6 साल के आयु वर्ग में वर्ष 2001 में जहां 1000 लड़कों के पीछे 927 बच्चियां थीं, आज सिर्फ 914 बची हैं।
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अंत में चुनावों से ठीक पहले केंद्र से सूबे तक बढ़ते जा रहे जातिवाद और बहु संख्यावाद पर सवाल। उत्तर प्रदेश सरकार के कई जिम्मेदार लोगों के बीच से इधर कई ऐसे बयान आए हैं जिनसे लगता है कि महिला तथा अल्पसंख्यक संबंधी प्रतिगामी सोच बेहतर शिक्षा दर और औसत आय के बावजूद कायम है। ऐसे माहौल में जनसंख्या नियंत्रण की मुहिम को परिवारों, ग्राम या कस्बाती स्तर के असंवेदनशील रिश्तेदारों और कोविड से चरमराए सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को सौंप देना लोकतंत्र और महिला हितों को गहरी चोट दे सकता है। असली सच आज भी वही है जिसको गांधी जी ने तब भी बारबार रेखांकित किया था। पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सबकी सामान्य जरूरतें तो पूरी कर सकते हैं, मगर किसी के असीमित लालच को तृप्त करने के लिए वे अपर्याप्त हैं। इसलिए सरकार से अनुरोध है कि ध्यान देना हो तो आर्थिक और शैक्षिक ढांचे की बेहतरी पर दीजिए। अपने आकार सीमित रखने से जुड़े फायदे सब परिवार आज बखूबी समझते हैं।
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