विचार

मृणाल पाण्डे का लेख: अ से अवसर, आ से आम बजट

सुनहरी छाप से सुसज्जित निर्मला सीतारमण जी का लाल बस्ते का बजट आम आदमी को कराधान में नई छूटें नहीं देगा, अलबत्ता कॉरपोरेट कर कम होगा। यह सरकार के हालिया रुझानों के मद्देनजर उतना ही प्रत्याशित था जितना प्रधानमंत्री जी के भाषण में झलकते जुमलों के सब्जबाग। पढ़ें मृणाल पाण्डे का लेख।

फोटो: Getty Images
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इन पंक्तियों के लिखे जाते समय केन्द्रीय बजट की वह सालाना कवायद जारी है। बिना कागज के ई-शैली में पहली बार बजटीय प्रस्तुति का जो भाग पल्ले पड़ा, उससे यह हठयोग की भाषा में द्रविड़ प्राणायाम प्रतीत हो रहा है! अर्थात सांस से लेकर तन-मन को एक असंभव कोशिश से साध कर योगिराज द्वारा परम तत्व समाधि प्राप्त कर सुखलीन होना। देशवासी सरकार की इस अहो रूपं अहो ध्वनि वाली समाधि के खतम होने का इंतजार नहीं कर रहे। अब तक यह बात सबको पता है कि नोटबंदी, कोविड काल की तालाबंदी, ग्लोबल मंदी और रूस-चीन की जरासंध जोड़ी की यूक्रेन हथियाने की मंशा को अमेरिका, ब्रिटेन और नाटो की तिकड़ी की चुनौती इस सदी का नया सांप-नेवला युद्ध है। और यह युद्ध शुरू हो गया तो हमारी भी खैर नहीं। अमेरिकी धड़े से जोड़ चुकी भारत सरकार के लिए युद्ध का नतीजा आने तक अर्थनीति और राजनय में किसी तरह की दूरगामी प्लानिंग करना असंभव है। इसलिए फिलहाल तेल देखें और तेल की धार देखें।

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सुनहरी छाप से ससुज्जित निर्मला सीतारमण जी का लाल बस्ते का बजट आम आदमी को कराधान में नई छूटें नहीं देगा, अलबत्ता कॉरपोरेट कर कम होगा। यह सरकार के हालिया रुझानों के मद्देनजर उतना ही प्रत्याशित था जितना प्रधानमंत्री जी के भाषण में झलकते जुमलों के सब्ज बाग। सच यह है कि सरकार इस समय ग्लोबल बाजार के ऊंट की करवट को लेकर शकुंतला की तरह अन्यमनस्क है। फिर उत्तर प्रदेश चुनावों में उसकी अपनी साख घर के भीतर भी दांव पर लगी हुई है। तीसरी तरफ बाहरी दुनिया के राजनयिक धड़ों से एकाकार ग्लोबल अर्थव्यवस्था के तेल से लेकर माइक्रो चिप तक की उपलब्धि के विकट अनसुलझे सवाल भी हैं। लिहाजा मामला नई नौकरियां उपजाने का हो या कि शेयर बाजार और आयात-निर्यात में उछाल लाने का, तीन तत्व अगले बरस तक हमारी अर्थव्यवस्था का अंतिम सत्य रचेंगे: भारत में राज्यों के चुनावी नतीजे, पाक परस्त रहे अमेरिकी धड़े से हमारे ताजा रिश्ते की केमिस्ट्री का सीमा पर असर और पड़ोस में लगातार सैन्य भभकियां दे रही चीन-पाकिस्तान-रूस की दुर्वासाई तिकड़ी की अगली चाल।

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फिर भी इस बात से खुद सरकार भी इनकार नहीं कर सकती कि बेरोजगारी सुरसाकार होती जा रही है। अब तक बात को कभी धार्मिकता का जुननू भड़का कर, तो कभी नेहरू और कांग्स के वंशवाद को कोस कर यह सचाई दा रे खिल दफ्तर की जाती रही। लेकिन अब खुद एनडीए गठजोड़ शासित राज्यों- बिहार से यूपी तक बेरोजगार छात्रों का गुस्सा भलभला कर किसी तेजाबी गटर के पानी की तरह बह निकला है। तीन बरस पहले (फरवरी, 2019 में) तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने सगर्व कहा था कि उनके शासनकाल में कहीं किसी सामाजिक आंदोलन का सर न उठाना इस बात का सीधा प्रमाण है कि नई नौकरियों का लगातार सृजन जारी है। क्या मौजूदा वित्तमंत्री यह दावा दोहरा सकती हैं? 31 दिसंबर, 2021 को जैसे ही स्टेट बैंक ने एक छोटा-सा सर्कुलर निकाल पराुनी मेडिकल निर्देश संहिता में बदलाव लाने को कहा कि वे आगे से उन महिलाओं को नौकरी नहीं देंगे जो तीन माह से अधिक गर्भवती हैं, तो उस पर विपक्ष और यूनियनों की इतनी तीखी प्रतिक्रिया हुई कि आनन-फानन नोटिस वापिस ले लिया गया। पर महिलाओं की नौकरियों पर से खतरा टला नहीं।

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श्रम कानूनों से नियंत्रित संगठित क्षेत्र में बैंकों या बड़े सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में महिलाओं की तादाद लगभग कुल की 2 फीसदी रही है और अब लगातार और भी घट रही है। आज की तारीख में 90 फीसदी से अधिक कामगार असंगठित क्षेत्र में काम करने को मजबूर हैं जहां महिलाएं संगठित क्षेत्र से बेदखल पुरुषों के दबाव से छटंनी की शिकार हो रही हैं। तिस पर असंगठित क्षेत्र के निर्माण, बुनकरी जैसे उद्योगों से लेकर खेत मजूरी तक में मातृत्व से जुड़ी युवा औरतों के लिए जीवन बीमा, महंगाई भत्ता या प्रसूति सुविधाएं सिरे से गायब हैं। स्कूलों में लड़कियों की और संगठित क्षेत्र में महिलाओं की कमी से वे जनी भले ही रो-धो कर घर बैठ रहें, पर पुरुष वर्ग चुप नहीं रहेगा। बिहार के गया में छात्रों का उत्पात बेरोजगार युवकों में बढ़ती असुरक्षा का प्रमाण है। वहां रेलवे की 354 खाली पोस्ट विज्ञापित होते ही लगभग डेढ़ करोड़ आवेदन आ गए। जिनको नौकरी नहीं मिली, उनका धीरज चुक गया, नतीजा सरकारी परिसंपत्तियों में तोड़फोड़ और आग लगाई का सिलसिला।

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यह गौरतलब है कि जिस समय चुनावोन्मुख राज्यों में जम कर जाति और धर्म के आधार पर प्रचार किया जा रहा है, इन दंगाइयों की शिकायतों या नारेबाजी में जाति-धरम का जिक्र नहीं था। न ही किसी राजनैतिक दल या बड़े सिविल समुदाय ने इसका नेतृत्व किया। यह पूरी तरह स्वत:स्फूर्त आंदोलन था जिसके गुस्से का लक्ष्य सरकारी नौकरियों की प्रवेश परीक्षाओं तथा भर्ती प्रक्रिया में निरंतर हो रही कथित धांधलियां थीं। गुलाबी अखबार पूछ रहे हैं कि ये युवक सरकारी नौकरियों पर ही क्यों इस कदर लट्टू हैं? निजी क्षेत्र में किस्मत या स्टार्ट अप में हाथ क्यों नहीं आजमाते? पहली बात यह, कि सरकारी नौकरियां दिलवाने के यह सुहाने सपने उनके रचे हुए नहीं हैं। यह उनको सभी दलों के राजनेताओं ने चुनाव दर चुनाव बेचे हैं। ज्यादा पीछे क्यों जाना? 2019 में खुद रेलवे मंत्री जी ने 2021 तक चार लाख नए रोजगार देने का आश्वासन दिया था। सच यह था कि उस क्षेत्र से 2017-18 से नौकरियां लगातार घटाई जा रही थीं। अत: दो बरस में रेलवे नौकरियों की तादाद में 31.5 फीसदी की बढ़ोतरी अकल्पनीय करिश्मा ही है। अभी संभव है कि एक बार गर्द बैठ जाए तो कुछ नई भर्तियां कर ली जाएं। लेकिन फिर भर्ती की प्रक्रिया के कागजी लालफीते से बाबू लोग बात को पग-पग पर उलझा देते हैं। सरकार के कितने विभाग आज बड़े पैमाने पर नई नौकरियां देने की क्षमता रखते हैं? आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस और ई-कामर्स के युग में जब मानवीय हाथों की जरूरत तेजी से घट चली है, सरकार से नई नौकरियां निकलना पत्थर से तेल निकलने जैसा चमत्कार होगा।

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इस सब के बाद भी हमारे यहां सरकार सालाना केन्द्रीय बजट की प्रस्तुति को इतना मीडिया प्रचार देती है। इससे जनता के बीच सरकार से हर बार किसी लुभाव ने पैकेज की, छूटों, रियायतों की उम्मीद का सर उठाना स्वाभाविक है। फिर यह अकथ सचाई भी है कि जातिगत आरक्षण का लाभ सरकारी क्षेत्र तक सीमित है, निजी क्षेत्र मंडल आरक्षण अपनाने के दबाव नहीं मानता। खुद सरकार घरेलू पर संपत्तियां बेच रही है। साठ साल बाद एयर इंडिया देखते-देखते बिक गया। अतिरिक्त कमाई के लिए घाटे के कई और सरकारी उपक्रम भी उसी दिशा में बढ़ते दिख रहे हैं। सार्वजनिक निर्माण क्षेत्र में भी नई नौकरियां अब निजी क्षेत्र में ही निकलेंगी। वजह यह कि सड़कों, रेलवे लाइनों या पावर प्लांटों जैसे तमाम निर्माण कार्यों के बड़े-बड़े ठेके निजी प्रतिष्ठानों को ही मिल रहे हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, कल्याण क्षेत्रों का निजीकरण पहले से ही जारी है। इसलिए सरकार को बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन के बेसिर पैर के वादों से परहेज करना चाहिए।

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निजी क्षेत्र का भी रूप तेजी से बदल रहा है। बड़े उपक्रम संगठित तथा असंगठित अस्थायी- दोनों तरह की नौकरियां दे रहे हैं। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर देसी कंपनियां बतौर विश्व कंपनियों की फ्रेंचाइजी काम करा रही हैं। इसलिए उनके चयन पर मूल क्षेत्रीय अनुकंपा या राजनैतिक पेशकश की बजाय मूल कंपनी द्वारा तय क्षमताओं के मानक हावी हैं। बड़ी कंपनियां भी अब एक ही तरह का उत्पादन नहीं करतीं, अनेक क्षेत्रों में पैर फैला रही हैं। कार निर्माता बैंकिंग में, मीडिया में घुस रहे हैं। उधर, पेंट निर्माता इंटीरियर सज्जा और होटलों में। जीएसटी के दबाव से निजी क्षेत्र लगातार संगठित बन रहा है। सरकार की तुलना में बड़ी कंपनियां नामी-गिरामी कालेजों के कैंपस से ही अधिकतर चयन करेंगी और सिर्फ कुशल कामगारों और उसमें भी पुरुषों को वरीयता देंगी, यह बात साफ होती जा रही है।

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कुल मिलाकर सरकार समेत किसी को अभी यह ठीक से पता ही नहीं है कि आने वाले दिनों में निजी क्षेत्र किस तरह के रोजगार पैदा करेगा। इसीलिए राजनेता बेरोजगारों को नाली की गैस से चाय बना कर बेचने, तो कभी पकौड़े के ठेले लगाने के हास्यास्पद सुझाव देने पर उतर आए हैं जो उनके जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है। बेहतर हो कि सरकार नौकरियों के आने वाले समय के स्रोतों और स्वरूप पर सही जानकारी जमा करे और फिर उसे साझी करे। प्रामाणिक डाटा कंपनियां ही नहीं, शिक्षण तथा प्रशिक्षण देने वालों के लिए भी कीमती होगा और शिक्षा का नए रोजगारों और उत्पाद का ग्राहकों से सहज जैविक जुड़ाव संभव बनाएगा। सही जानकारियां पाकर छोटे-बड़े सभी उपक्रम उपलब्ध कामगारों और अपनी जरूरतों तथा उत्पादों के बीच वैज्ञानिक और संतुलित तालमेल बिठा सकेंगे। कोविड काल में शहरों में कई तरह के काम अब घर से निष्पादित किए जाने का एक नया सिलसिला भी दुनियाभर में सर उठा रहा है। यह ऑफिस स्पेस और महिला कामगारों की क्षमता को बेहतर तरीके से संयोजित और असरदार बना सकता है बशर्ते कि हम उसका आकार-प्रकार जानते हों।

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भारत के अमृत महोत्सवी साल में यह साफ है कि एक बिंद से आगे बहुसंख्यक आधारित राष्ट्रवाद हमारे यहां ज्यादा देर राजनीति में अधिक जगह नहीं घेर सकता। राज और अराजकता, क्षेत्रीय अस्मिता और राष्ट्रवाद, धार्मिकता और सर्वधर्म समभाव इस षट्कोणीय कैलकुलस का जवाब वैज्ञानिक सोच है। दल अब होलोग्राम और ई-मंचों से जुमलाबाजी त्याग कर भाषा, उत्पादन, हुनरमंदी और विपणन हर जगह वैज्ञानिक और समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाएं, तभी वे इस विशाल युवा आबादी के सनों, हित-स्वार्थों को धारण करनेवाला ठोस वोट बैंक बना सकते हैं।

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