अमृत महोत्सव वर्ष में विश्व बिरादरी के अमीरों के सालाना महा जमावड़े, डावोस सम्मेलन से ठीक पहले मक्खी छींक गई। नामुराद मक्खी थी, ऑक्सफैम संस्था की एक चौंकानेवाली ताजा रपट: ‘गैरबराबरी मार डालती है’ (इनईक्वालिटी किल्स)। रपट के अनुसार, महामारी और तालाबंदी के शिकार भारत में 2020-2021 के बीच 85 प्रतिशत परिवारों की आमदनी तो काफी घट गई है। और उसके उलट 98 धनी परिवारों की संपदा में अकूत बढ़ोतरी दर्ज हुई है। आज की तारीख में भारत के 142 धनकुबेरों की कुल हैसियत 719 बिलियन डालर (53 लाख करोड़) का आंकड़ा छू रही है जो देश के गरीबी रेखा के नीचे सिमटे 55.5 करोड़ लोगों की कुल संयुक्त आमदनी के बरोबर है। और अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि इनमें से सिर्फ 10 धनकुबेरों की सालाना आय इतनी है कि उससे अगले 25 साल तक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा के कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं। पर नए बजट में उनकी इस अकूत आय पर कॉरपोरेट कर लगा कर उससे प्राप्त पैसे से जनहित में स्वास्थ्य तथा शिक्षा या मनरेगा जैसी मदों पर सार्वजनिक खर्च बढ़ाने का प्रावधान मुश्किल लगता है। वह इसलिए कि लगता है, सरकार के लिए इन धनकुबेरों की आय में आई उछाल चिंता की बजाय शेष दुनिया के धनकुबेरों से पूंजी न्योतने का बड़ा मुद्दा है।
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जनवरी में गणतंत्र दिवस से कुछ ही दिन पहले डावोस गोष्ठी को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने दुनिया को बताया कि भारत ने कितनी सक्षमता से कोविड महामारी का मुकाबला किया और कर रहा है। और यह भी कि यह भारत में पूंजीनिवेश का बेहतरीन समय है। उनकी सरकार कॉरपोरेट कर घटाकर निवेश वातावरण को और अधिक आकर्षक करनेवाली है। और वे नए उपक्रमी युवा भारतीय भी आज हजारों की तादाद में यहां सक्रिय तथा सफल हैं जिनके 60 हजार नए स्टार्टअप्स फल-फूल रहे हैं। इस तरह भारत दुनिया को उम्मीदों का एक नया गुलदस्ता थमा रहा है।
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अमीरों की मालिकीवाले अखबारों और चैनलों की कृपा से अमीरों की अमीरी जिस तरह देश के कोने-कोने में कभी उनकी अट्टालिकाओं, कभी उनकी महिलाओं के वस्त्राभूषणों और उनके सैर-सपाटे की छवियों से आज शहर-शहर, गांवगांव पहुंच रही है, उससे डावोस का दावा सही लगता है। लेकिन उन छवियों के परे इसी देश के 6 करोड़, छह लाख परिवार आज भी सरकारी मनरेगा योजना से साल में 50 दिन मिलनेवाले रोजगारों पर निर्भर हैं। उल्लेखनीय है कि जहां कॉरपोरेट करों में लगातार आकर्षक छूटें दी गईं, वहीं मनरेगा कर्यक्रमों के लिए आवंटित बजट में 30 फीसदी की कटौती भी की गई। तालाबंदी से गांव वापिस लौटे गरीबों के लिए मनरेगा डूबते को तिनके का सहारा बना, पर लाभार्थियों की तादाद बढ़ने के साथ ही लागू नई बजट कटौती के कारण कुछ ही महीनों में राज्यों के पास तीन चौथाई पैसा चुक गया। राज्यों की चीख-पुकार पर 22 हजार करोड़ की राशि फिर भेजी गई, पर वह भी ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुई। आकलन है कि आज राज्यों पर उन निपट गरीबों को कुल 17,000 करोड़ की देनदारी बकाया है।
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अब आएं बेरोजगारी पर जो शहरों में और भी ज्यादा है। विश्व बैंक के ताजा आंकड़ों के अनुसार, समग्र भागदौड़ कर काम खोज रहे ग्रामीण और शहरी बेरोजगारों के बीच एक नया दर्जा उभर कर आया है उन बेरोजगारों का जो काम करने के इच्छुक हैं, पर उनको काम मिलने की उम्मीद नहीं रही, सो वे हाथ पर हाथ धर कर किसी तरह का अस्थायी काम मिलने की उम्मीद में बैठे हैं। अब तक हमारे यहां बेरोजगारी का अनुमान बेरोजगार दफ्तर के आंकड़ों से लगाया जाता रहा है जिसके हिसाब से हमारे यहां लगभग 8 फीसदी (2 करोड़, तीस लाख) लोग बेरोजगार हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इन सब का नाम बेरोजगारी के सरकारी रजिस्टर में दर्ज है। विश्व बैंक की रपट ने बेरोजगारी का असल स्वरूप समझने के लिए इन 8 फीसदी सरकारी तौर से बेरोजगार घोषित लोगों के बरक्स देश के कुल रोजगार उम्रवाले लोगों का अनुपात रख कर पाया है कि काम की उम्र में भी काम न पाने से नाउम्मीद लोगों की तादाद सरकारी बहियों में दर्ज बेरोजगारों की लगभग तिगुनी है। और इसमें सबसे बड़ी तादाद (कुल की लगभग 23 फीसदी) महिलाओं की है। शोधकर्ताओं के अनुसार, इसमें औसतन 20 की उम्रवाली महिलायें तो भागदौड़ कर काम खोज रही हैं, पर 15-19 साल की लगभग एक करोड़, सत्तर लाख लड़कियां काम करने की इच्चुक होते हुए भी घर बैठने को मजबूर हैं क्योंकि उनके वास्ते नौकरियां हैं ही नहीं।
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जाहिर है कि युवाओं को रोजगार तक ले जाने वाली दो तरह की रेलें अपने यहां समांतर चल रही हैं। स्टेशन के बाहर कंबल ओढ़े कई लोग चुपचाप सड़क को ताकते हुए बैठे रहते हैं कि उनके गांव का कोई मुकादम आए और उनको भैंसों की तरह हंकाल कर किसी निर्माण कार्य या कटाई-बुआई में दिहाड़ी पर लगवा दे। शेष बेरोजगार लड़-भिड़कर एक साधन विहीन रेल पर चढ़े हुए हैं जिसके छूटने या गंतव्य तक पहुंचने की बाबत किसी को पता नहीं। घास उगी उपेक्षित पटरियों पर कभी वह कुछ दूर चलती है, फिर चर्राख चूं करती थम जाती है। उसमें सवार बेरोजगार जनता बाहरी दुनिया से उदासीन, उसी रेल की पटरियों पर हर रोज खाना पकाने, कपड़े फींचने और हवा में सुखाने को मजबूर है। फिर भी उसे उम्मीद है कि एक न एक दिन अचानक कोई गार्ड बाबू आकर हरी झंडियां दिखा देंगे और उनका डिब्बा फिर रेंगने लगेगा। दूसरी निजीकृत रेल है जिसमें विराजमान उच्च मध्यवर्गीय घरों के आईआईटी, आईआईएम पास सफेदपोश युवा और चंद युवतियां लैपटॉप और आईफोनों से देशदुनिया से चारों याम जुड़े हुए रहते हैं। एक-एक स्टॉप और पहुंचने का अपेक्षित समय सब उनकी उंगलियों पर रहता है। उनका चयन स्टेशन पर गाड़ी खड़ी होते ही हो जाता है।
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तीसेक बरस पहले ऐसा नहीं था। रेलें तब एक हद तक सबको समेटती हुई रवाना होती थीं। यह बात अलग है कि तब भी कुछ लोग ठंडे वातानुकूलित डब्बों में बैठे हुए होते थे, कुछ खिड़की से कुलियों द्वारा अनारक्षित डब्बों में ठूंसे जाकर येन केन अपनी जगह डब्बे में कहीं न कहीं बना ही लेते थे। इस तरह की समग्रता से बेरोजगारी के आंकड़ों को भी एक तरह की पूर्णता मिलती थी। पिछले सात बरसों से यह कुतरा हुआ गणतंत्र अगर उन्हीं भारत भाग्य विधाताओं को चुनता रहा जो इन गाड़ियों की समय सारिणी, टिकट के रेट तथा चालक तय करते हैं, तो इसके जबर्दस्त कारण तीन थे। एक: शिक्षित युवाओं को हिन्दी फिल्मों के संघर्षशील नायक की तरह भरोसा था कि उसे पक्की नौकरी मिल जाएगी और वह रात गए मशीन पर सिलाई कर उसे पढ़ाने-लिखाने वाली विधवा मां को भरपूर सुख का जीवन दे सकेगा। दो: लड़की बचाओ-पढ़ाओ, उज्ज्वला और महिला सशक्तीकरण सरीखी योजनाओं ने युवतियों में भरोसा जगाया था कि अच्छे दिन बस आया चाहते हैं। और तीन: कि कमंडल से मंडल सदा के लिए पराजित हो गया है। आज ऑक्सफैम और विश्व बैंक के आंकड़े ही नहीं, खुद सरकार के श्रम विभाग, नीति आयोग और रिजर्व बैंक के आंकड़े भी दिखा रहे हैं कि 2021 खत्म होते-होते हैव्स और हैव नाट्स के बीच की दरार अब खाई में बदल गई है। क्या इसका दोष भी हम नेहरू को देंगे? या टीवी पर चहकती गुलाबो सिताबो की प्रशस्तियों को म्यूट करते हुए अब हम रघवीर सहाय के साथ कविता के माध्यम से पूछेंगे : ‘राष्ट्रगीत में कौन भला वह भारत भाग्य विधाता है? फटा सुथन्ना पहने जिसके गुण हरचरना गाता है?
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