पिछला सप्ताह भी क्या सप्ताह था। फैसले ही फैसले, वह भी तरह-तरह के। कई दशकों से रुके राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली पीठ का सर्वसम्मति से फैसला, महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावी फैसलों पर रुकता-अटकता फैसला, और इसके बीच विवादों में लगातार रहे जेएनयू के हॉस्टल वासियों की फीस यकायक एक हजार प्रतिशत बढ़ा देने का फैसला। अब इन सभी पर देश में भीतर-बाहर गहरा मंथन चल रहा है। अंग्रेजी के एक लेखक जी के चेस्टरटन के अनुसार शिक्षा ही वह माध्यम है, जिसकी मार्फत पुरानी पीढ़ी जाते हुए नई पीढ़ी में अपनी आत्मा का प्रवेश करा जाती है। लेकिन भारत की मौजूदा राजनीति की उठापटक में फंसकर उच्च शिक्षा परिसरों के हाल ऐसे बन चुके हैं कि उनमें पुरानी पीढ़ी की आत्मा का नई पीढ़ी में सहज अवतरण तकरीबन असंभव हो गया है। टैगोर की विश्व भारती में उपकुलपति चुनाव पर निहायत अप्रिय विवाद हुआ, फिर मदन मोहन मालवीय के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग में एक मुस्लिम प्राध्यापक की भर्ती के फैसले पर हंगामा खड़ा हुआ। अब दिल्ली में अचानक आवासीय फीस में की गई भारी बढ़ोतरी को लेकर जेएनयू परिसर उबल पड़ा है।
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सबको पता है इन हंगामों के पीछे की वजहें शैक्षणिक कम राजनीतिक अधिक हैं। सचाई यह है कि विश्वविद्यालयों के परिसर चुनावी मतदाताओं के सामूहिक पड़ाव होने की वजह से तमाम राजनीतिक दल अब उनके भीतर अपने पट्ठों के पहलवानी अखाड़े बनवाने लगे हैं। युवा मतदाता राजनीतिक तौर से जागरुक बनें इससे किसी को आपत्ति नहीं, लेकिन राजनीतिक दलों की गैरजरूरी दखलंदाजी से इधर छात्रसंघ चुनाव मिनी आम चुनाव जितने खर्चीले और कलहकारी बनते जा रहे हैं, जिनका बेपनाह खर्च लगभग पूरी तरह से विभिन्न राजनीतिक दलों के कोष से आ रहा है। अचरज नहीं कि राजनीतिक लाठी पकड़ कर चुने गए छात्रसंघ के यशस्वी नेता जो सांप्रदायिक और जातीय मसलों पर गुटबंदी में जकड़े हुए हैं, अपने परिसरों में गरीब छात्रों को मिलने वाली सुविधाओं, महिला छात्रावासों की सुरक्षा, वाचनालयों, शोध सामग्री या परिसरों की रिहायशी व्यवस्थाएं बेहतर करवाने जैसे विषयों से फिरंट नजर आते हैं।
मनमानी तरह से, बिना छात्रों या शिक्षण की सुविधाओं को ध्यान में रखे, मंत्रालयों की झक के आधार पर बार-बार तब्दील की गई फीस दरों, प्रवेश या शोध अर्हता के मानदंडों और अध्यापक चयन नीतियों ने विश्वविद्यालयीन परिसरों में ज्ञान के सहज प्रवाह और बेहतरीन शोध कार्य को असंभव बना डाला है, जबकि हर कहीं परिसरों में छात्र बढ़ रहे हैं। इस सबसे बीएचयू या दिल्ली सरीखे अच्छे विश्वविद्यालयों में कुंठा और मीडियॉक्रिटी ही बढ़ रही हैं, ज्ञान, कौशल या शोध का स्तर नहीं।
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महाराष्ट्र की घटनाओं ने भी, जो इन पंक्तियों के लिखे जाने तक आगामी सरकार का साफ खाका सामने नहीं दिखा रही हैं, इतना तो साफ कर ही दिया है कि हर मामले में केंद्र सरकार और उसके नकेल से साधे गए विभिन्न संस्थानों से कांपने से काम नहीं चलेगा। वैचारिक तर्क और बराबरी के आधार पर साफ-सुथरे गठजोड़ बनाने और चलाने का माहौल पिछले पांच बरसों में मिट चला है। यह एक दु:खद सच है कि भारत में राजनीति और उच्च शिक्षा दोनों ही सदियों तक सवर्णों की ही बपौती रहीं हैं। पिछड़े वर्गों को राजनीति या उच्च शिक्षा में सहजता से प्रवेश दिलवाने को जो कोटा प्रणालियां लागू की भी गईं, तो बुनियादी ढांचे में जरूरी तरमीम किए बिना। इसी कारण सत्तर साल बाद भी देश की राजनीति और शिक्षा परिसर जातीय राजनीति का कार्ड खुलकर खेल रहे हैं जिसने देश के अवर्णों के बीच एक नई तरह की सवर्णता कायम कर दी है। इस नव सवर्णता के तहत अपने समुदाय के पिछड़ेपन का बोध नेताओं या अफसरों को अपने लोगों की बेहतरी के लिए लामबंद होने की बजाय एक हद तक ढुलमुल और वंशवादी बना रहा है, जिसका सीधा फायदा जातिवादी सांप्रदायिक दलों को मिलता है।
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पुराना जातिवाद बेशक गलत था। पर नेताओं के उदाहरणों की रोशनी में आज सत्ता में पसरे गठजोड़ों में इस नव जातिवाद की शक्ल कितनी स्वस्थ या न्यायपरक दिखती है? इस विषमता मूलक नव जातिवाद की ही वजह से भारत के अधिकतर राजनेता, उनके द्वारा खुले जातीय और सांप्रदायिक आधारों पर नियुक्त लोकतांत्रिक संस्थानों के मुखिया और उच्च शिक्षा संस्थानों से निकलकर विदेश जा बसे अनिवासी भारतीय संकीर्ण और सामंती विचारों वाले बनकर जातिवादी और वंशवादी हिंदुत्व को पोसने के पक्षधर बन गए हैं। उदाहरण हमको टीवी पर लखनऊ से लंदन और हजारीबाग से ह्यूस्टन तक दिख ही रहे हैं।
इस स्थिति को स्वागत योग्य कहें या दिल तोड़ने वाली? या उसे सिर्फ स्वीकार कर लें? स्वीकार करने का मतलब हुआ कि हम मान लें कि संसद या विधानसभा में आने या उच्च शिक्षा की दुनिया में प्रवेश का अर्थ है जाति व्यवस्था, नौकरी और धन के क्षेत्र में सपरिवार उत्थान। और सफल लोगों में स्वस्थ लोकतांत्रिक या शैक्षणिक ज्ञान की परंपरा को लगातार आगे न बढ़ा पाने को लेकर कहीं कोई अपराध बोध नहोना। इसलिए आज बड़ा सवाल इस या उस दल के जातिवाद की तुलनात्मक विवेचना भर नहीं। सवाल यह है कि लोकतंत्र और उच्च शिक्षा दोनों की जड़ों को अगर निरुद्देश्य या किसी दलगत उद्देश्य से कमजोर किया जा रहा हो तो क्या उसे कमजोर होने दिया जाए?
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देश की हर मौजूदा गिरावट के लिए सिर्फ कांग्रेस को दोष देने वालों से हमको पूछना होगा कि पांच साल की एकछत्र पेशवाई के बाद केंद्र सरकार की पूरी मदद से लैस महाराष्ट्र की फडणवीस और उत्तर प्रदेश में लगभग तीन बरसों से कायम योगी जी की सरकारें अपने-अपने प्रांतों में गांव से शहर तक लगातार फैलती चली गई बदहाली कितनी कम कर पाई हैं? राज्य की आर्थिक, सामाजिक, प्रशासकीय या शैक्षणिक बदहाली का कौन सा हिस्सा तसल्लीबख्श तरीके से बेहतर बना सकी हैं? महाराष्ट्र के महासमर में कांग्रेस और एनसीपी का शिवसेना को सहारा देना अवसरवाद है, तो एनडीए सरकार ने बिहार से कश्मीर तक में नीतीश या पीडीपी से हाथ मिलाकर क्या लोकतांत्रिक मूल्यों को सुनहरा बना दिया था? अनुच्छेद 370 हटाने के बाद उनके जनांदोलन के ज्वार में जम्मू और लद्दाख तथा घाटी और करगिल की प्रतिक्रियाओं में इतना हैरतअंगेज अंतर कैसा? उनके गठजोड़ में शामिल होने के बाद भी वहां धर्म और फिरकापरस्ती के जरासीम क्यों नहीं मिटे? मुंबई महानगरी क्यों बार-बार डूबती रहती और किसानी आत्महत्याएं क्यों जारी हैं? वहां तो विपक्षी पार्टियां उनको महाराष्ट्र या कश्मीर में पुन्यकर्म करने से नहीं रोक रही थीं?
हजारों सालों से यह देश स्वायत्त जनपदों का देश बनकर ही जीता रहा है। गोवा, कर्नाटक और अब महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों के नतीजे गवाह हैं कि भारतीय जनपदों को इस बात से प्राय: कोई मतलब नहीं रहता कि केंद्र के प्रिय विषय क्या हैं? केंद्र द्वारा राज्य के आधीन शिक्षा, प्रशासन से लेकर स्वास्थ्य तंत्र तक में मनचाहे तरीके से सीधे हस्तक्षेप करने या पाकिस्तान विरोधी कदमों या विदेशों में करवाए जलसों में नेतृत्व की शिरकत उनको बहुत प्रभावित नहीं करती। राज्य-दर-राज्य खंडित जनादेश दिखाते हैं कि जानपदिक लेवल पर जनता अपने संविधान प्रदत्त हकों को लेकर लामबंद होती है। उसके असल सरोकार विदेश नीति या सीमा सुरक्षा से भिन्न हैं। राज्य के भीतर मिटते रोजगार, कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून-प्रशासन, बिजली, सड़क, पानी की दशा को ही आधार मानकर अब जनता मतदान करती है। मंदिर बने कि नहीं, बालाकोट में कितने मरे, ट्रंप ने हमारी पीठ कितनी ठोकी, ये उसके लिए दूर के ढोल हैं।
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इस बिंदु पर आकर कुछ लोग मानते हैं कि जनता को पता नहीं उसके असल हित क्या हैं। संविधान के बाहर सैनिक तानाशाही सरीखे कई विकल्प बचे हैं। पर वे कितने सहनीय या न्याय मूलक हैं? भारत में राजनीति की चौपड़ पर सेना का मोहरा जो सायास बाहर रखा गया है, ठीक ही रखा गया है। फौजी तानाशाही देश को एक रख पाएगी इस बात पर पाकिस्तान का हश्र देख कर कौन यकीन करेगा? फौजी जनरल भी नहीं। हर समझदार भारतीय जानता है कि अगर अभी भी घावों पर मरहम लगाए जा सकें, अन्याय ग्रंथि से पीड़ित वर्गों के बीच अपनेपन का बोध वापिस लाया जा सके, केंद्र सरकार में पुरानी तरह की सर्वसम्मति की तहत राज्यों से मंत्रणा कर उनके राजी होने के बाद ही नए कदम उठने की प्रथा लौट सके तो क्षतविक्षत लोकतांत्रिक संस्थानों की दुरुस्ती संभव है। पर राज्यों को लगने लगा है कि इन सब पर कोई राजनीतिक गुट सोचता तक नहीं। जीने मरने के सवाल यह नहीं कि राम मंदिर बना कर कितने लोग हर बरस किस तरह के मेले वहां लगाएंगे या घाटी में कितनी फिल्मों की शूटिंग होगी? बल्कि यह, कि गरीबी कैसे हटे निर्यात और उत्पादन किस तरह बढ़े? मनरेगा हटाना या योजना आयोग की जगह नीति आयोग लाना आसान है, पर अगर वे कांग्रेसी संस्थाएं नाकारा थीं, तो उससे इतर संस्थाओं ने कौन से कद्दू में तीर मार दिए?
एक ही महानायक के भरोसे लोकसभा या विधानसभा चुनाव हांकते जाने की बजाय कुशल लोकतांत्रिक संस्थाएं किस तरह बनें और स्वायत्तता से काम करें, चुनाव कम खर्च किस तरह करवाएं जाएं? संसद में सार्थक बहसें और उच्च शिक्षा परिसरों में शिक्षण और बेहतरीन शोध की वापसी किस तरह हो? अगर लोकतंत्र के क्षीरसागर को मथने वाले ये सवाल हमारे नेतृत्व और शिक्षा परिसरों में नहीं उभरते तो बताइए एक निपट वैचारिक, बौद्धिक महाशून्य से कोई भी नई राह किस तरह निकल पाएगी? हो सकता है मोदीजी अगले पांच बरस देश को येन-केन थामे रखें। पर क्या यह भी बहुनिंदित कांग्रेसी शैली की नकल नहीं होगी? सिर्फ नकारात्मक राजनीति अब हमको बहुत दूर नहीं ले जा सकती।
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