जैसे ही खबर आई कि सरकार की नई शिक्षा नीति के मसौदे (अध्याय 4 ) के तहत कोठारी कमिशन (1964-66) के पुराने त्रिभाषा सूत्र को लागू किया जाने का प्रस्ताव है, अहिंदी इलाके से हिंदी विरोध का चिरपरिचित आंदोलन सतह पर आ गया। बेचारे जावडेकर जी कहते रह गए कि अभी यह एक प्रस्ताव भर है जिस पर रायशुमारी कराए बिना अमल नहीं होगा। लेकिन हिंदी के कई कट्टर विरोधी दक्षिण भारत में (जो एक द्विभाषा सूत्र अपनाकर तमिल व अंग्रेज़ी से ही सरकारी काम काज चलाता आया है,) हिंदी को अनिवार्य बना कर त्रिभाषी बोझ लादे जाने के खिलाफ सर पर कफन बांधे मोर्चे पर उतर आए। उनके विरोध में संघ के हिंदी प्रेमियों ने भी मोर्चा खोलने में देर नहीं लगाई। देखते-देखते भाषा की ओट में राजनीति का खेल शुरू हो गया। ऐसे अवसरवादी आंदोलन देश में आज खीझ अधिक पैदा करते हैं, समर्थन भाव कम।
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शुक्र है कि सरकार ने फिलहाल इस प्रारूप को ठंडे बस्ते में डाल दिया है। लेकिन यह सवाल तो उठता ही है कि इस प्रस्ताव के प्रारूप को नई सरकार बनते ही सामने लाने की इतनी क्या हड़बड़ी थी? भाषावार सूबों और भारत की राष्ट्र भाषा के मुद्दोंपर ‘50 के दशक से ही हो हल्ला मचता आया है। जब 1953 में आंध्र प्रदेश का उद्घाटन हुआ और राष्ट्र भाषा हिंदी की बाबत कहा सुनी हुई, तो भाषाई तूफान गृहयुद्ध की सीमा तक चला गया और एक तेलुगुभाषी (पोत्ति रामुलु) ने आत्मदाह कर लिया।
द्विभाषी मुंबई का प्रयोग भी असफल रहा और भाषाई तनाव पर राजनीति का घी डाला जाने से इतनी ज्वाला भड़की कि गुजरात तथा महाराष्ट्र को अलग करना पड़ा। पंजाब में कोई भाषा समस्या नहीं थी। वहां लंबे मुस्लिम शासन की वजह से सभी लोग पंजाबी समझते और उर्दू पढ़ते थे। पर जब राजनेताओं की कृपा से वहां पंजाबी बनाम हिंदी का मसला अकालियों और हिंदुओं के बीच पनपाया गया, तो वहां भी भाषा आधारित बंटवारा आधे मन से स्वीकार करना ही पड़ा। उसके बाद भी वैमनस्य खत्म नहीं हुआ।
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सच कहें तो बुझते राजनेताओं की दूकानें भले ही इनसे चल निकलती हों, भारत के इन भाषाई आंदोलनों का भारतीय भाषाओं या साहित्य से वैसा ही रिश्ता है, जैसा कि आज के हास्य कवि सम्मेलनों का हास्य या कविता से। लोहिया की मौत के बाद संयुक्त सोशलिस्ट दल के हाशिये पर जा चुके राज नारायण या अन्ना दुरै की मृत्यु के बाद उनके दल को जब एक स्टंट की जरूरत पड़ी तो यह मुद्दा उनके काम आया था।
राजनीति के कारण ही पंजाब में मूलत: गुरुद्वारों और धर्मग्रंथों की भाषा रही गुरुमुखी का राजनीति में रुतबा बढ़ा और जनसंघ के असर से हिंदी अखबारों का। पर इनसे न खुद पंजाबी लेखकों का भला हुआ न ही हिंदी का। शीर्ष पर अंग्रेज़ी ही राजकाज हांकती रही और साहित्य में खुशवंत सिंह और बड़े बाबू लोग हिंदी की खिल्ली उड़ाते रहे। सच तो यह था कि पंजाब में गुरुमुखी बनाम हिंदी के झगड़ेअधिकतर उर्दू में ही चलते थे क्योंकि अधिकतर पंजाबी राजनेता तो उर्दू ही बोलते-पढ़ते थे।
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जब भाषावार प्रांतों का गठन मंज़ूर किया गया तो उम्मीद थी कि जनता की भाषा में जनता का शासन कायम होगा, कचहरियां चलेंगी, बच्चों को जड़ों से जुड़ी शिक्षा मिलेगी, भारतीय भाषाओं से फिरंट नौकरशाही जनता के करीब आएगी। यह सब तो नहीं हुआ। आगे जाकर हिंदू बनाम सिख भेदभाव फैलाना राजनेताओं के लिए जिस डाल पर बैठे थे उसी का काटना साबित हुआ। नेता तर्क दे सकते हैं कि वे तो मातृभाषा की जोत जगा कर आम जनता की भाषा में रुचि जगा रहे थे, जैसा तर्क अब कुमार विश्वास सरीखे अर्धराजनेता दे रहे हैं। पर आप ही कहिये, हिंदी के इतिहास में जायसी, या प्रेमचंद, महादेवी या हजारी प्रसाद जी का नाम अमर हो, इसके लिए हर पाठ्यक्रम में नि:शंक या बाल कवि बैरागी की कविताओं का शामिल करवाना कितना जरूरी है?
जब अनुभव के इतने कड़वे पाठ हम सब पढ़ चुके हों, तो क्या यह साफ नहीं हो जाना चाहिए कि बार-बार हिंदी को पिछवाड़े या अगवाड़े से ला कर गैर हिंदी राज्यों में दंगे उपजाते हुए जबरन सारे देश की मान्य राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव बचकाना है? अब चूंकि आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है, सो बड़े लोग झगड़ते रहे और उधर देश भर के युवा नेटिज़ंस ने अपने काम लायक नेट की अंग्रेजी ताबड़तोड़ सीख ली।
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कुछ फितूरी बच्चे विज्ञापन एजेंसियों की ठस हिंदी के बरक्स रोचक पठनीय मजेदार हिंदी लिखने लगे। कुछ “जब वी मैट” से “गैंग्सऑफ वासेपुर” जैसी फिल्मों की पटकथायें लिख कर अमर और समृद्ध हुए। उनको पकड़कर हर नए चलन की बाजार कीमत सबसे पहले समझनेवाले गैर राजनैतिक बॉलीवुड ने हिंदी में बाहुबली की सफल कॉपी और चेन्नै एक्सप्रेस सरीखी फिल्म बना कर इस का फायदा उठा भी लिया। तब यह नई शिक्षा नीति किस कद्दू में तीर मारने को उत्तर के धनुर्धारियों को बंगाल या चेन्नै बुला रही है?
साहित्य में जो बात सबको सदियों से मालूम है, राजनीति में आज बहुत कम लोग जानते हैं। वह यह, कि अंतत: हर बड़ा लेखक और नेता अपने युग की उपज होता है और अपने युग के मुहावरों में ही जनसंवाद दे कर सफल बनता है। दक्षिण अफ्रीका से आकर अहिंदी भाषी गांधी जी ने 1920 में जाना, कि बोलचाल की हिंदी जिसे वे हिंदुस्तानी कहते थे, ही उस समय के आम जनकी भाषा थी। उस की मार्फत ही ‘स्वराज’ नामक नए विचार को जन-जन तक पहुंचाया जा सके, इसके लिए उन्होंने गुजराती मासिक ‘नवजीवनअणिसंदेश’ को हिंदी साप्ताहिक नवजीवन की बतौर ढाला, उसमें लगातार लिखा और एक साल में उसकी प्रसार संख्या 3000 से 50,000 करवा दी, जबकि उस समय हिंदी पट्टी की साक्षरता दर 11 फीसदी के ही लगभग थी।
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गोडसे को सुमन अर्पित करने वालों को पत्रकार, लेखक, राजनेता और रणनीतिकार गांधी अपनी संपूर्णता में समझ नहीं आ सकते क्योंकि गांधी का रास्ता समन्वय का और उसके साथ ही अगले कदम की रणनीति बनाते जाने का था। आज वे होते तो हिंदी को जबरन नहीं धुकाते। चौरीचौरा आंदोलन की तरह प्रस्तावित त्रिभाषा फार्मूला को वापिस ले लेते। यही वजह है कि गांधी (मेरा जीवन ही मेरा संदेश है), तुलसीदास (‘मांगिके खइबो मसीत में रहिबो, लेने को एक नदेने को दू हैं’) या जायसी (कोई नजगत जस छीना, कोई नलीन्हजस मोल, जो यह सुने कहानी हम संवरें दुई बोल) जैसों के दर्शन में हमको साध्य और साधन, दुनियावी यश: कामना और सचाई के बीच कोई टकराव नहीं मिलेगा।
क्षणिक साहित्यिक या राजनैतिक फायदे की दृष्टि या चुनाव जीतने के लिए नवे ऐसी भाषा नियमानुशासन बनाते नही किसी अन्य भाषा का विरोध करते। लिहाज़ा हमारी राय में ताजा सरकारी त्रिभाषा प्रस्ताव और गांधी, तुलसी, जायसी या रामचंद्र शुक्ल की भाषा दृष्टि, तेल और पानी की तरह अलग-अलग हैं।
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अब कहा जा रहा है कि बंगाल या कर्नाटक में संघ के समर्पित प्रचारक घूम-घूम कर वहां हिंदी के खिलाफ फैलाए गए मिथ्या प्रचार को मिटाएंगे। यह सचमुच हास्यास्पद है। अहिंदी भाषी राज्यों का हिंदी विरोध एक सामूहिक पूर्वग्रह, एक लंबी परंपरा की उपज का नाम है जो आजादी के तुरंत बाद मनुवाद विरोध से जुड़ी है। वहां की धर्म प्रवण बहुसंख्य जनता वाल्मीकि से इतर रामायणों को अलग तरह से पढ़ती, राजा बलि को पूजती और उनको पाताल भेजने वालों को शत्रु मानती आई है।
हम कैसे कहें कि अतीत की परछाइयों का हम पर कोई असर नहीं होता? उत्तर से जो भीतरी हमले (आर्यों, मुगलों, मराठों के) दक्षिण ने झेले हैं, या कि सनातन परंपरा के तहत ब्राह्मण नीत धार्मिक संस्थाओं ने जिस तरह वहां सदियों तक दलितों, महिलाओं का शोषण किया है, उसके इतिहास से उनको राष्ट्रवाद का चीरा लगा कर कैसे अलग किया जा सकता है?
एक बात और। 70 सालों में उत्तर के विपरीत दक्षिण ने ईमानदारी से परिवार नियोजन और शिक्षा को बढ़ावा देकर अपनी जन्म दर कम की, शिक्षा और समृद्धि की रफ्तार बढ़ाई और सारे देश की औसत सकल उत्पाद दर तथा आमदनी बढ़ाने में भारी योगदान किया। फिर भी जनबहुल और अराजकता से भरे उत्तर के वोटों की बहुलता ने बार-बार चुनावी राजनीति की धारा और नेतृत्व को उत्तर मुखी शक्ल और नेता दिए। इसकी भी कुछ कसक तो है ही।
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असल में, यह डर बना हुआ रहेगा कि फिर इस तरह का माहौल बनाकर बीजेपी के सड़क छाप दस्ते गैर हिंदी क्षेत्र में सड़कों पर उतर कर जय श्रीराम नारे लगाते, तलवार लहराते आहुतियों को हवा देने लगें, तब क्या यह असंभव रह जाएगा कि तमिल या कन्नडीगा लोग अलगाववादी बनने लगें? आखिर पाकिस्तान तो इसी तरह बना था और बाद को पाकिस्तान जो दो टुकड़ों में बंटा उसके पीछे कोई टुकड़े- टुकड़े गैंग नहीं, बंगाली और उर्दू भाषियों के बीच कड़वाहट का हद से बढ़ जाना ही था।
फैंसी ड्रेस पहनना आज की बीजेपी का शगल है। पांच साल उसने नेहरू को कोसा और उनके जैसे कपड़े भी पहने। बापू की तरह दो जानूं बैठ कर चर्खा चलाते हुए अपनी तस्वीरें छपवाईं। अब वे समाजवादियों की तरह, जिन्होंने कभी संघ लोकसेवा आयोग के सामने बरसों तक भारतीय भाषाओं के पक्ष में धरना चलाया, हिंदी के नाम पर कोलकाता के फुटपाथों पर बैठ रहे हैं। सीपीएम की तरह हिंसक तेवर दिखा कर कुरते फाड़ और फड़वा रहे हैं।
अब जबकि देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार सुस्त पड़ते-पड़ते पुन: उस निम्नतम दर पर आ गई है जिसे अर्थशास्त्री राजकृष्ण ने ‘दि हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ’ कहा था, उस समय ढह रही वामपंथी, जदयू या शिवसेना जैसी पार्टियों की हवा निकालने के बाद अब भाजपा अपने इलाकाई वोटों के बैंकों पर कुंडली मारे गैर हिंदी क्षेत्रीय दलों के मोटे-ताजे अजगरों से हिंदी के मुद्दे पर दो चार करने का इरादा रखती है, उसकी यह नादानी उसको ही मुबारक हो।
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