विचार

मोदी जी, न तो सबका साथ लिया, न सबका विकास हुआ, विश्वास तो रहने ही दें, ऐसे में 'सबका प्रयास' के क्या मायने!

प्रधानमंत्री ने देश पर बड़ी कृपा की कि इस साल लाल किले के भाषण में किसी नई योजना का ऐलान नहीं किया। जो नया था, और जिसकी उम्मीद भी थी, वह था एक नया नारा। सबका साथ, सबका विकास (2014) और सबका विश्वास (2019) में इस साल एक नया जुमला जुड़ गया ‘सबका प्रयास’।

फोटो : @narendramodi
फोटो : @narendramodi 

कल सुबह 7:41 बजे प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया: “लाल किले से राष्ट्र को संबोधित करने वाला हूं, देखिए...।"

मैंने इस अनुरोध को नहीं माना क्योंकि मुझे उनके भाषण साधारण लगते हैं। उनमें मौलिकता का अभाव है और ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे कुछ सीखा जा सके। यह सच है कि अगर कोई भावनात्मक बमबारी की ओर आकर्षित होता है, तो पीएम उसके लिए खूब बातें कर सकते हैं, लेकिन मेरी दिलचस्पी इसमें नहीं है। दूसरी बात यह है कि वह बहुत लंबे भाषण देते हैं। अंग्रेजी अनुवाद करने पर उनका भाषण 7,329 शब्द का है, जो एक किताब में एक अध्याय के बराबर है। लेकिन सिर्फ शब्दों से खेलना ही ऐसा नहीं होता कि आप किसी से संवाद कर पा रहे हैं या कोई सूचना दे पा रहे हैं।

अगर मेरी तरह आप भी भाषण नहीं सुन पाए तो ‘द हिंदू’ की आज सुबह की हेडलाइन आपको सबसे महत्वपूर्ण बात बताएगी जिसे आपको जानना चाहिए। इसमें लिखा है: " पीएम के इस साल के भाषण किसी बड़ी योजना का ऐलान नहीं"। यह दरअसल एक राहत की बात है क्योंकि हमें ऐसी नई योजनाओं और विशेष रूप से भव्य और बड़ी योजनाओं को दुनिया के एक ऐसे हिस्से में घोषित करने से विराम देना चाहिए जहां घोषणाएं तो होती हैं लेकिन पूरी नहीं होतीं। लेकिन भाषण में जो नया था, और जिसकी उम्मीद भी थी, वह था एक नया नारा। सबका साथ, सबका विकास (2014) और सबका विश्वास (2019) में इस साल एक नया जुमला जुड़ गया ‘सबका प्रयास’। मेरे लिए यह एक तरह से पीछे हटे जैसा था। पहले दो नारों पर ही ध्यान देना बेहतर था। मैं समझाता हूं कि आखिर क्यों ऐसा कह रहा हूं?

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विकास, यानी सब तरफ तरक्की। प्रधान मंत्री के अपने आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2018 से भारत की जीडीपी क्रमिक रूप से गिर रही है। किसी एक रॉकेट लांच के लिए होने वाली उलटी गिनती की तरह यह 8% से 7% और फिर 6, 5, 4, 3 और महामारी के हमले से पहले की तिमाही में 1% तक पहुंच गई। (इन आंकड़ों को छोड़ा सम्मानजनक बनाने के लिए पिछली तिमाहियों के आंकड़ों में कुछ बाजीगरी करने की जरूरत होगी।)। इसके बाद यह शून्य पर पहुंच गई। महामारी शुरू होने के बाद से डेढ़ साल में, हम नकारात्मक जीडीपी वृद्धि देख रहे हैं।

आज, इस बात को दोहराने की जरूरत है। अर्थव्यवस्था का आकार अभी भी मार्च 2020 की तुलना में छोटा है। श्रम बल यानी काम करने वालों में भारतीयों की संख्या, चाहे वह कार्यरत हो या काम की तलाश में हो, 40% है। अमेरिका में, यह संख्या 60% है, इंडोनेशिया और थाईलैंड में यह 70% के करीब है और चीन में यह 75% है। हमने अपने डेमोग्रेफिक डिविडेंड यानी बड़ी जनसंख्या से होने वाले फायदे गंवा दिया है। इसके बावजूद, हमारी बेरोजगारी दर इन सभी देशों की तुलना में अधिक है और पिछले तीन वर्षों से 7% से अधिक या उसके आसपास है। आखिर क्यों? इसका उत्तर प्रधानमंत्री के हजारों शब्दों में नहीं मिलता। यह वह ‘विकास’ है जो उन्होंने भारत माता को दिया है।

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‘सबका साथ’ का अर्थ है सबको साथ लेकर चलना। यहां मुद्दा अर्थव्यवस्था का नहीं है, जिसे मोदी ने अपनी नासमझी और अक्षमता से बर्बाद कर दिया है, बल्कि जानबूझकर की गई शरारत या द्वेष है। तमाम विद्वानों ने नागरिकता संशोधन अधिनियम की असंवैधानिकता और असम और कश्मीर में सरकार के रवैये पर काफी कुछ लिखा है। मोदी कैबिनेट में एक मुस्लिम की मौजूदगी (जिसे निश्चित रूप से अल्पसंख्यक मामलों का विभाग दिया गया है), के अलावा इस देश के हाशिए पर रहने वाले समूहों का कौन सा हिस्सा कहेगा कि ‘सबका साथ’ एक ऐसा मुहावरा है जो 2014 से बीजेपी की कार्यप्रणाली और उसके कार्यों में परिलक्षित होता है? मैं इसका उत्तर पाठकों पर छोड़ता हूं। जानना ही है तो दिल्ली के बाहरी इलाकों पर महीनों से आंदोलन कर रहे किसानों से जाकर पूछें कि वह ‘सबका साथ’ के बारे में क्या सोचते हैं।

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‘सबका विश्वास’ थोड़ा अधिक नीरस नारा है क्योंकि इसका कोई मतलब ही नहीं है। आखिर किस चीज के लिए भरोसा? क्या कोई मोदी पर भरोसा कर सकता है कि वह अर्थव्यवस्था को सही तरीके से चला पा रहे हैं? नहीं, क्योंकि हम उनके शासनकाल के आठवें वर्ष में हैं और हमने उन आंकड़ों को देखा है जो उन्होंने खुद मुहैया कराए हैं। क्या कोई उन पर चीन का नाम लेने या फोन उठाकर अपने दोस्त शी से बात करने के लिए भरोसा कर सकता है कि आखिर चीन लद्दाख में शरारत क्यों कर रहा है? हम उन पर भरोसा कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने तो ऐसा नहीं किया।

विश्वास तब कायम होता है जब कोई अपनी काबिलियत या क्षमता प्रदर्शित करता है। यह जज्बातों या भावना के बारे में नहीं है। देश के 138 करोड़ लोगों का विश्वास हासिल करने के लिए वादों पर खरा उतरना होता है और काम करके दिखाना होता है। लेकिन अर्थव्यवस्था, ईंधन की कीमतों, रोजगार, मुद्रास्फीति या महंगाई, राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय एकता और सूचकांकों की एक लंबी श्रृंखला से साफ दिखता है कि कितना काम किया गया है या पूरा किया गया है।

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अब बात करते हैं ‘सबका प्रयास’ की, जिसका अर्थ है सभी का प्रयास। यह भी पीछे हटने वाला ही नारा लगता है। एक गरीब राष्ट्र में सरकार की भूमिका यह होती है कि वह देश चलाने में अपना कंधा चलाए और देश को एक ऐसी उपजाऊ जमीन बनाए जिसमें नागरिक फल-फूल सकें। प्रयास दरअसल हमसे नहीं बल्कि उनके द्वारा चाहिए है।

कुछेक गुजराती उद्योगपतियों के अलावा, कितने लोग कह सकते हैं कि पिछले कुछ वर्षों के उनके अपने प्रयासों से उनकी जिंदगी बेहत हुई है? फिर, ज्यादा दूर देखने की जरूरत भी नहीं है, आधिकारिक आंकड़े ही काफी हैं इसे समझने के लिए। भारतीय रिजर्व बैंक नियमित रूप से लोगों की भावनाओं पर एक सूचकांक प्रकाशित करता है और यह महामारी से पहले के वर्षों से नकारात्मक रहा है। सरकार की नाकामी की हताशा मोदी के मंत्रियों के अनकहे बयानों से सामने आ रही है। वित्त मंत्री का कहना है कि मोदी सरकार ने अपना काम कर दिया है और अब बारी उद्योग जगत की है कि वह मोदी सरकार पर भरोसा दिखाए और निवेश करे। पीयूष गोयल (कोई निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि वह किस विभाग के मंत्री हैं) ने टाटा समूह राष्ट्र-विरोधी बता दिया, और टाटा को शिक्षाविदों, कार्यकर्ताओं, उदारवादियों, मुसलमानों, कश्मीरियों, सिखों, किसानों और गैर सरकारी संगठनों की सूची में शामिल कर दिया। यानी केवल बीजेपी और उसके समर्थक ही राष्ट्रवादी हैं और इस राष्ट्रवाद का प्रभाव उन्होंने हमारी अर्थव्यवस्था पर जो किया है वह साफ दिख रहा है।

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ऐसे हालात में प्रधानमंत्री ने अपनी आदत के मुताबिक हजारों शब्दों का भाषण दे दिया जिसका उस वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है जो उन्होंने देश को दिया है। इसलिए उन्होंने एक और नई योजना का ऐलान न कर हम पर कृपा की है और इसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए। लेकिन उन्हें अगले साल भी कम ही बोलना चाहिए। एक ऐसे राष्ट्र में जिसे कुछ सक्षम, पूर्वानुमेय शासन की आवश्यकता है, न कि किसी अन्य भाषण, ट्वीट या पॉडकास्ट की, उसके लिए 7000 शब्द कुछ ज्यादा ही उबाऊ हैं।

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