जब मैं 1960 के दशक के बीच में अंडरग्रैजुएट कर रहा था, तो मुझे एक ऐसे अंग्रेजी शब्द से साबका पड़ा जिसे मैं बहुत मुश्किल से समझ रहा था या उसका उच्चारण कर पाता था- पैन्डेमोनीअम। इसका हिन्दी में मतलब होता है- भारी हंगामा या भारी उपद्रव। मैं तब कल्पना भी नहीं कर सकता था कि मुझे इस शब्द के मतलब का डराने और भयभीत करने के तौर पर व्यक्तिगत अनुभव होगा! लेकिन इस अनुभव से मैंने यह भी सीखा कि यह बहुआयामी भी हो सकता है।
29 नवंबर को शुरू हुए संसद के शीत सत्र के पहले तीन दिन राज्यसभा की कार्यवाही में जो कुछ हुआ, एक तरह से, जो मैंने कॉलेज में पढ़ा था, वही मुझे पता चल रहा था। वस्तुतः इन दिनों में जो कुछ हुआ, वह मानसून सत्र के तीन दिनों के संदर्भ में है- 11, 12 और 13 अगस्त! शीत सत्र के पहले ही दिन- 29 नवंबर को अचानक ही 12 विपक्षी सदस्यों को निलंबित कर दिया गया। स्वाभाविक ही था कि इस निलंबन आदेश पर भारी हंगामा हुआ। लगभग सभी विपक्षी दलों ने सभापति की इस अभूतपूर्व कार्रवाई की निंदा की। रोचक बल्कि आश्चर्यजनक ढंग से ये निलंबन सदन में हुई वास्तविक घटना के तीन महीने से भी अधिक समय बाद हुए जब सांसदों के कथित ‘गलत आचरण’ का संज्ञान लिया गया।
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विशेषज्ञों के मुताबिक, यह निलंबन असंवैधानिक है क्योंकि इस तरह की कार्रवाई अगले सत्र में नहीं की जा सकती। निलंबन आदेश के पक्ष में तर्क यह है कि राज्यसभा लगातार जारी रहने वाली संस्था है और इसलिए यह औचित्यपूर्ण है। लेकिन इस पर विपक्ष के नेता का प्रतितर्क सदन में दिया ही नहीं जा सका क्योंकि सभापति ने उन्हें इस पर बोलने की अनुमति ही नहीं दी। यह वह बिंदु है जब विपक्ष के अधिकांश सदस्यों ने महसूस किया कि यह साफ तौर पर उनके ‘लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन’ है और वे विरोध में वाकआउट कर गए।
निलंबित सदस्यों में छह कांग्रेस, दो तृणमूल कांग्रेस, दो शिव सेना तथा सीपीएम और सीपीआई के एक-एक सदस्य हैं। ये लोग संसद परिसर में गांधी जी की प्रतिमा के सामने ‘सत्याग्रह’ कर रहे हैं। उन लोगों ने माफी मांगने से इनकार कर दिया है क्योंकि उनका कहना है कि उन्होंने ऐसा कुछ भी गलत नहीं किया है जो हिंसक या माननीय सभापति की अवमानना की अभिव्यक्ति हो। अगर जो कुछ उन्होंने किया, उसे ‘व्यवधान’ कहा जा सकता है, तो वे ध्यान दिलाते हैं कि भाजपा के माननीय सदस्य स्वर्गीय अरुण जेटली ने विपक्ष के लोकतांत्रिक अधिकार के तौर पर इस तरह के व्यवधान के उचित होने का तर्क दिया था!
अब वह चाहे जैसा हो।
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निलंबन आदेश में कहा गया है कि राज्यसभा के 254वें सत्र (मानसून सत्र) के अंतिम दिन, अर्थात 11 अगस्त को आसन के अधिकार के प्रति संगीन अवमानना, सदन के नियमों के लगातार पूरे दुरुपयोग, अपमानसूचक, अनियंत्रित और हिंसक व्यवहार के इन अभूतपूर्व कार्यों के जरिये सदन की कार्यवाही में जान-बूझकर व्यवधान करने का यह सदन संज्ञान लेता है और निंदा करता है, इस तरह निम्नलिखित सदस्यों ने सम्मानित सदन की प्रतिष्ठा को नीचा दिखाया और उसके प्रति अवमानना की और सदन की प्रतिष्ठा गिराने के लिए उन सदस्यों को राज्यसभा की प्रक्रिया तथा कार्यवाही के नियम 256 के तहत 255वें सत्र की शेष अवधि के लिए निलंबित किया जाता है।
दरअसल, 29 नवंबर का दिन लगभग सहज ही आरंभ हुआ था। सरकार को उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेना था जिनकी किसानों ने ‘काला कानून’ कहते हुए निंदा की थी और जिन्हें दो टूक तरीके से किसान विरोधी बताया था। लेकिन खुद प्रधानमंत्री ने इन कानूनों को यह कहते हुए ठोस तरीके से सराहा था कि वे किसानों को काफी लाभ पहुंचाएंगे और इनका लक्ष्य अगले साल किसानों की आय दोगुना करना है। इसके पक्ष में चलाए गए अभियान के दौरान सभी मंत्रियों, भाजपा के प्रवक्ताओं और मुक्त बाजार विशेषज्ञों ने भी यह बात दोहराई थी कि कृषि अर्थव्यवस्था में क्रांति आ जाएगी।
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लेकिन किसानों ने इसके खिलाफ राजधानी के चारों तरफ सीमाओं पर पिछले साल 26 नवंबर को धरना शुरू किया जो अब तक जारी है। सरकार और उनके प्रवक्ताओं ने इस आंदोलन की निंदा करते हुए किसानों को खालिस्तानी, नक्सलवादी, पाकिस्तानी एजेंट और न जाने क्या-क्या कहा। जैसे-जैसे दिन बीतते गए, यह भी साफ होता गया कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के पक्ष का पूरी तरह समर्थन नहीं कर रही है। इसके लिए कोर्ट की बनाई विशेषज्ञ समिति ने रिपोर्ट भी दे दी, पर वह भी अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है। इस आंदोलन के दौरान 700 किसानों का निधन हुआ जिन्हें आंदोलन- समर्थकों ने शहादत का दर्जा दिया। धरना के एक साल पूरा होने पर किसानों ने शीत सत्र के पहले दिन- 29 नवंबर को संसद का घेराव करने का ऐलान किया था। अंततः, सरकार घबरा गई और उसने कानूनों की वापसी का फैसला किया।
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लेकिन निर्लज्जता और पाखंड इस हद तक है कि कथित ‘भक्तों’ ने प्रधानमंत्री की क्षमा प्रार्थना करते हुए शब्दों के साथ कानूनों की वापसी को ‘मास्टर स्ट्रोक’ बताया। इन्हीं लोगों ने पहले कानूनों को मास्टर स्ट्रोक बताया था जबकि इन कानूनों को संसद से एक किस्म से जबरन पास कर लिया गया था। इसे कभी भी स्थायी समिति या प्रवर समिति को नहीं भेजा गया। पूरे साल विपक्ष इस मुद्दे पर बहस और विचार की मांग करता रहा। पर उसका अवसर ही नहीं दिया गया। कई बार ‘किसान’ शब्द तक भी एक किस्म से असंसदीय शब्द बन गया। अगर इस शब्द का उचित संदर्भ में भी उपयोग किया जा रहा हो, तब भी सदस्यों को बीच बहस में रोका गया।
इसीलिए जब इन कानूनों की वापसी के वक्त भी सरकार ने किसी विचार-विमर्श या बहस के बिना ही इसे संसद से पास करा लेने का प्रयास किया, तो विपक्ष ने संसद में इसका विरोध किया। जब उन्हें बोलने की अनुमति नहीं दी गई, तो मीडिया के सामने अपनी बात रखने के लिए सदस्य विजय चौक गए। राहुल गांधी ने खुद ही मीडिया से बात की। उन्होंने कहा कि सरकार अपनी कृषि नीतियों में इस पूरी विफलता में भी ‘श्रेय’ लूटने की कोशिश कर रही है। सांसदों के संयुक्त विरोध ने सरकार के अभियान और निलंबन के रास्ते के जरिये मुद्दे को दूसरी दिशा में ले जाने की हवा निकाल दी। सरकार का दांव उलटा पड़ गया है और प्रधानमंत्री तथा उनकी सरकार ने साख और नैतिक अधिकार खो दिया है।
जैसा कि मैंने शुरू में कहा, कॉलेज के दिनों की मेरी यादें तेजी से वापस हो गईं। इसी दौरान मुझे डब्ल्यू बी यीट्स की प्रसिद्ध कविता ‘दि सेकंड कमिंग’ की यादआ गईः
केवल अराजकता छा गई है दुनिया में,
रक्तरंजित ज्वारभाटा छोड़ दिया गया है, और हर जगह
भोलेपन की रस्म खत्म हो गई है..
अच्छे लोगों में दृढ़ विश्वास की कमी है, जबकि
बुरे लोग जोशीले उन्माद से भरे हैं
(यह लेखक के विचार हैं। लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सांसद हैं)
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