आन्दोलनों के मौलिक कारण सदियों से एक ही रहे हैं। प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तु ने लगभग 2300 वर्ष पहले अपनी पुस्तक “बुक 5 ऑफ द पॉलिटिक्स” में बताया था कि आन्दोलन के मुख्य कारण अन्याय और असमानता हैं। उन्होंने आगे लिखा था कि सबको न्याय नहीं मिलने से समाज में असमानता और बढ़ती है, इसलिए आन्दोलनों का सबसे बड़ा कारण असमानता है।
कोविड-19 से संबंधित बहुत सारे तथ्यों पर आपसी विरोध हो सकता है, पर इसके दो प्रभावों पर कोई बहस नहीं की जा सकती। इसका प्रभाव पूरी दुनिया के हरेक व्यक्ति पर पड़ा है, यानि कोविड- 19 ने संक्रमण के संदर्भ में कोई भी भेदभाव नहीं दिखाया। दूसरी तरफ इसके प्रभावों ने दुनिया में हरेक तरह की असमानता- सामाजिक वर्ग, जाति, वर्ण, आमदनी, पोषण, शिक्षा, रहन-सहन, भौगोलिक दूरी, लिंग और उम्र आदि पर आधारित भेदभाव को पहले से अधिक स्पष्ट कर दिया है।
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कोरोना संकट में हर तरीके की असमानता केवल गरीब और विकासशील देशों में ही स्पष्ट नहीं हुई है, बल्कि अमेरिका और यूरोपीय देशों में भी पहले से अधिक स्पष्ट हो गई है। दरअसल असमानता पूंजीवादी व्यवस्था का सबसे प्रमुख उत्पाद है और यह व्यवस्था किसी भी सामाजिक या आर्थिक संकट के दौर में जब जनता बेहाल रहती है तब और पनपती है।
अमेरिका भले कोरोना से बुरी तरह प्रभावित हो, मौत के आंकड़े सबसे अधिक हों, फिर भी अप्रैल महीने के दौरान वहां के अरबपतियों की पूंजी में सम्मिलित तौर पर 406 अरब की बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है। एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में 18 मार्च से 29 अप्रैल के बीच अरबपतियों की संपत्ति में औसतन 14 प्रतिशत की वृद्धि हो गई है। दूसरी तरफ इसी अवधि में अमेरिका में 3 करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हुए हैं। कोविड-19 के दौर में पूंजीपति केवल सोशल डीस्टेंसिंग का ही पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि इकॉनोमिक डीस्टेंसिंग को भी अपना रहे हैं।
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अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों में कोविड-19 ने रंगभेद को और भी गहरा कर दिया है। इन देशों में अश्वेत आबादी भले ही कुल आबादी का 30 प्रतिशत ही हो, पर कोरोना से औत के आंकड़ों में इनकी संख्या 60 से 70 प्रतिशत के बीच है। इसका कारण अश्वेतों की समाज में उपेक्षा और उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध न होना है।
हमारे देश में भी श्रमिकों के शहर से अपने गांव की तरफ पलायन, भूख और बेरोजगारी के किस्से रोज चर्चा में रहते हैं, पर इसी कोविड-19 के प्रकोप के दौरान मुकेश अंबानी एशिया के सबसे धनी व्यक्ति बन गए। देश के सबसे धनाढ्यों में शुमार आर के दमानी, सुनील मित्तल और बेनु गोपाल बंगुर की संपत्ति में भी इस दौरान भारी वृद्धि दर्ज की हुई है।
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आर्थिक असमानता को वर्ल्ड इकनोमिक फोरम दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए प्रमुख खतरा मानता है। फोरम के अनुसार दुनिया में कुल 2153 अरबपति हैं और इनमें आपसी अंतर कम होता जा रहा है, पर देशों के अंदर आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। दुनिया के अरबपतियों के पास जितनी पूंजी है, वह दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी से भी अधिक है।
वहीं, दुनिया के किसी भी देश की तुलना में हमारे देश में आर्थिक असमानता अधिक है। यहां के 63 अरबपतियों की कुल संपत्ति देश के पूरे बजट से भी अधिक है। भारत में सबसे धनी एक प्रतिशत आबादी के पास सबसे नीचे की 70 प्रतिशत आबादी की कुल संपत्ति के चार गुना से भी अधिक संपत्ति है।
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भारत में अभी तक बढ़ती असमानता पर चर्चा नहीं की जा रही है, पर अमेरिका के धनाढ्यों का एक बड़ा तबका इससे डर गया है। हाल में ही वहां कोविड-19 के व्यापार पर असर का आकलन करने के लिए लगभग सभी अरबपतियों की बैठक आयोजित की गई थी, उसमें अनेक पूंजीपतियों ने कोरोना के दौर में उपजी असमानता को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग की। जे पी मॉर्गन के सीईओ जमी दिमों ने कहा कि यह असमानता सरकार और बाजार के लिए एक गंभीर चेतावनी है और अब सरकारों और पूंजीपतियों को सामान्य जन से संबंधित योजनाओं में पहले से अधिक निवेश करना आवश्यक हो गया है।
समाजशास्त्रियों को भी अब यह समझ में नहीं आ रहा है कि जनता का गुस्सा और विद्रोह कहां चला गया है? इस समय भारत ही नहीं दुनिया भर में श्रमिक अपना सब कुछ गंवा चुके हैं, ऐसे में उनके पास और खोने को कुछ नहीं बचा है, फिर भी इस पूरे वर्ग में एक अजीब सी खामोशी है, विद्रोह के तेवर नदारद हैं। अब तो अधिकतर समाजविज्ञानी यह तक कहने लगे हैं कि आज के शासक पिछली शताब्दी के शासकों की तुलना में अधिक भाग्यशाली हैं, क्योंकि अब विरोध के सुर गायब हो रहे हैं।
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फिर भी कुछ मानवाधिकार समर्थकों को उम्मीद है कि जनता में अभी तक शायद आन्दोलन के कुछ अंश बाकी हैं। अपने समर्थन में वे कुछ छोटे आन्दोलनों का उदाहरण देते हैं, जो कोविड-19 के दौर में अफ्रीका और दक्षिणी अमेरिकी देशों में किए गए। आन्दोलनों की उम्मीद लगाए विशेषज्ञों का कहना है कि बस देखना यह है कि आन्दोलन माओ, मार्क्स, गुएवारा या कास्त्रो जैसे हिंसक होंगे या फिर गांधी जैसे अहिंसक।
कुछ भी हो, इतना तो तय है कि कोविड-19 के पहले और बाद की दुनिया एक जैसी नहीं होगी। फिलहाल बुजुर्ग आबादी अधिक प्रभावित हो रही है और युवा कम प्रभावित है। भारत और अफ्रीका की आबादी में बड़ा हिस्सा युवाओं का है। यहीं सबसे बड़ा सवाल उभरता है कि क्या युवा अपनी समस्याएं समझता है- क्योंकि इसी पर भविष्य के आन्दोलन निर्भर करेंगे।
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कोविड-19 के बाद आवश्यक है कि सरकारें गरीबी उन्मूलन और आर्थिक असमानता पर नए सिरे से प्राथमिकता के आधार पर विचार करें। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन, पानी, ऊर्जा और वन्य जीवों के व्यापार और विलुप्तीकरण पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। दरअसल पूरे आर्थिक और राजनैतिक परिवेश में आमूल परिवर्तन की जरूरत है। पहले जिस डोनट अर्थव्यवस्था पर लोग ध्यान नहीं देते थे, अब उसे अपनाने का समय आ गया है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में आर्थिक विकास का पैमाना जीडीपी नहीं होता बल्कि पैमाना जनता की खुशी और समृद्धता होती है।
साल 2019 को आन्दोलनों का वर्ष कहा गया था, क्योंकि इस वर्ष भारत समेत दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अनेक आन्दोलन शुरू किये गए थे और इनमें से अनेक का अंत लॉकडाउन से ही हुआ। दुनिया भर में इस समय लोकतंत्र अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है और लोकतंत्र के नाम पर निरंकुश सरकारें हैं, जिनके लिए जनता कुछ भी नहीं है।
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संभवतः इसीलिए दुनिया के अधिकतर देशों ने कोविड-19 से निपटने का एक ही रास्ता चुना, जो लॉकडाउन का था। सरकारें भले ही इसके फायदे गिना रही हों और कोविड-19 से निपटने का यही एक रास्ता बता रहीं हों, पर ध्यान रखना चाहिए कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने किसी भी स्तर पर लॉकडाउन का समर्थन नहीं किया है। दुनिया भर की सरकारों ने केवल लॉकडाउन ही नहीं लगाया बल्कि कोविड-19 का नाम लेकर पुलिस और सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देकर अपने ही नागरिकों के विरुद्ध खड़ा कर दिया।
इन सबके बीच, कोविड-19 के मामले अपनी गति से बढ़ते रहे, लोग मरते रहे और सरकारी अतिवादी नीतियों का शिकार होते रहे, भूख और बेरोजगारी से घिरते रहे, प्रवासी श्रमिक हजारों किलोमीटर पैदल चलते रहे और सरकारें इन सबकी आड़ में अपने अघोषित एजेंडा पूरा करती रहीं। हमारे देश में प्रवासी श्रमिकों का हाल, अमेरिका में मौत के भयावह आंकड़े, कोविड-19 के नाम पर रूस, ब्राज़ील, इजराइल, इंग्लैंड जैसे देशों के शासकों का हाल और निरंकुश शासकों के कारनामे दुनिया देख रही है।
सवाल यह उठता है कि, एक बार जब वापस दुनिया सामान्य हो जाएगी, तब क्या हमें बड़े आन्दोलन फिर से देखने को मिलेंगें?
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