अगर नए मोटर व्हीकल एक्ट के प्रावधानों में भारी भरकम जुर्माना राशि के पीछे वाकई जनता की जान की चिंता ही है तो माफ कीजिए, यह बहुत ही अव्यावहारिक है। कठोर दिखने के बावजूद कई नियम अच्छे और जरूरी लगते हैं, लेकिन तभी तक जब तक वे थोपे हुए न लगें। लेकिन पहली सितंबर से लागू इस नए एक्ट के मामले में कुछ ऐसा ही लग रहा है। गुरुग्राम में जिस तरह स्कूटी का 15 हजार और ऑटो का 32,500 रुपये का चालान काटा गया, मिर्जापुर-बनारस से लेकर देश के तमाम हिस्सों से ऐसे ही भारी भरकम चालान की खबरें आईं, वह वाकई परेशान करने वाला है। यह क्रियान्वयन के स्तर पर इसकी मंशा पर सवाल भी खड़े करता है।
अब जहां अबाध गड्ढों की व्यवस्था में गति ही न मिले, वहां सीट बेल्ट के लिए चालान कटे, तो मंशा पर संदेह होना लाजिमी है। मूल कागजात साथ न हों और लाकर दिखाने की मिन्नतों के बावजूद भारी राशि का चालान काट दिया जाए, कि अब कोर्ट में ही दिखाना, संदेह बढ़ाता है। कहना आसान है कि नियम और जुर्माना जितने सख्त होंगे, लोग उतना ही ज्यादा पालन करेंगे। विदेश, खासकर अमेरिका, ब्रिटेन, जापान या सिंगापुर का उदाहरण भी दिया जाता है कि वहां जुर्माना इतना ज्यादा है कि किसी की हिम्मत ही नहीं पड़ती नियम तोड़ने की।
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लेकिन क्या सिर्फ इतना ही है। शायद नहीं! इतना ही होता तो कोई बात नहीं थी। असल बात नियम और जुर्माना राशि नहीं, ट्रैफिक संचालन की वह प्रक्रिया है जो भारत के अलावा शायद हर आधुनिक कहे जा सकने वाले या उदाहरण बन सकने वाले देश में शुरुआत से ही अपनाई जाती है। वह तंत्र है जो किसी को भी शुरू से ही सड़क पर चलने (रोड सेंस) के संस्कार देता है। इसमें पैदल चलने के साथ ही, गाड़ी खरीदने से लेकर उसके रजिस्ट्रेशन और ड्राइविंग सीखने से लेकर लाइसेंस मिलने तक की प्रक्रिया शामिल होती है। वीवीआईपी मूवमेंट के नाम पर हमारे यहां जैसी अराजकता है, वैसी कहीं नहीं दिखती।
नियमों की सख्ती के विरोध में तर्क नहीं हो सकते, होने भी नहीं चाहिए। योजनाओं को लेकर सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी की आमतौर पर दिखने वाली दूरदर्शी और व्यावहारिक सोच पर भी कोई असहमति नहीं। लेकिन जब अपार्टमेंट और सोसाइटी के बाहर खड़ी गाड़ियों का चालान अवैध पार्किंग के नाम पर होने लगे तो चिंता होती है कि इनके साथ ऐसा कोई तालमेल क्यों नहीं बिठाया गया कि वे अपने मुख्य द्वार पर यह सूचना न लगा सकें कि ‘आगन्तुक अपनी गाड़ी बाहर खड़ी करें’ या क्यों नहीं ऐसा नियम बनता कि सौ फ्लैट वाले अपार्टमेंट को कम से कम 20-25 गाड़ियों के लिए अतिरिक्त पार्किंग की व्यवस्था तो रखनी ही पड़ेगी। जबकि सच है कि तमाम अपार्टमेंट में तो फ्लैटों की संख्या के अनुपात में भी पार्किंग की व्यवस्था नहीं है और उनके वाहन भी सड़कों पर ‘बाकायदा’ और ‘वैध’ रूप से खड़े होते हैं।
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सवाल बाजारों में पार्किंग की व्यवस्था का भी है कि ऐसा क्यों नहीं हुआ कि लोग अपनी गाड़ी पार्किंग में लगाए बिना कनॉट प्लेस की तरह बाजार की ओर बढ़ ही न सकें। माफ कीजिएगा, अगर माह में 29 दिन बाजार, सोसाइटी या अपार्टमेंट के बाहर गाड़ी सड़कों पर रहें और तीसवें दिन अचानक उन पर भारी-भरकम जुर्माना थोप दिया जाए तो यह सिस्टम की विफलता है, जिसका शिकार जनता को होना ही है।
उदाहरण दिया जा रहा कि विदेशों में सब ठीक चलता है और वहां रहने वाला भारतीय भी अपनी धरती पर लौटते ही बदल जाता है। इस सच से भी हमें इनकार नहीं है। लेकिन क्या जानने की कोशिश हुई कि ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है कि हमारी व्यवस्था में व्यवस्थाएं कदम-कदम पर इस या उस शहर की सक्रियता या निष्क्रियता से संचालित होती हैं। जबकि होना यह चाहिए कि सिस्टम खुद-ब-खुद चले और खुद के होने का अहसास लगातार कराता रहे और यह काम भारी जुर्माने से नहीं, निरंतर सक्रियता से संभव है। वर्ना तो दिल्ली में सारे नियम मानने वाला चालक सीमा पार करते ही सीट बेल्ट खोल देने या किसी भी शहर में दुपहिया चलाने वाला इंसान, सिपाही देख हेलमेट लगा लेने और फिर हाथ में लटका लेने की गंदी और बेहूदा आदत का शिकार बना रहेगा।
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गौर कीजिए, यह सब दिल्ली-मुम्बई और दक्षिण के अनेक शहरों में उसी कम जुर्माना राशि के साथ प्रभावी ही नहीं, लोगों के जेहन में इस कदर हावी रहता है कि दूसरे शहर से आने वाला भी स्टीयरिंग संभालने से पहले गाड़ी के ‘शीन-काफ़’ दुरुस्त करने लगता है। यह सब भारी जुर्माना के चलते नहीं, उस व्यवस्था का असर है जो उन्हें रात के 12 बजे भी किसी सुनसान चौराहे पर लालबत्ती देख आगे बढ़ने से रोक देता है। आशय सिर्फ यह कि जुर्माना राशि बढ़ाना नहीं, सिस्टम सुधारना प्राथमिकता में होना चाहिए ताकि लोग अनुशासित भी रहें और उनका दोहन भी न होने पाए। लेकिन यह तर्क शराब पीकर गाड़ी चलाने वाले या तेज रफ्तार वालों पर लागू नहीं होता।
संकट इतना ही नहीं है। यह भी है कि इन नियमों को लागू करने वाला तंत्र नियमों की आड़ में मनमानी करने और पल्ला झाड़ लेने में माहिर है। उसे मतलब नहीं कि जो चालान कटा वह नियम सम्मत है भी या नहीं। वर्ना ऐसा तो नहीं ही करता कि किसी भी कागज के न होने पर घरसे लाकर दिखाने के वायदे के बावजूद चालान पर्ची काटकर चालक को कोर्ट के चक्कर लगाने पर मजबूर कर देता। और कोर्ट का फेरा क्या होता है सब जानते हैं। जबकि नियम भी कहते हैं कि चालक कागज लाकर दिखाने का वादा करता है तो उसका चालान तब तक के लिए मुल्तवी किया जाना चाहिए।
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एक सवाल और, वाहन चालक से मूल कागजात ही क्यों मांगे जाते हैं? जबकि सब जानते हैं वाहन में कागजात रखना कितने जोखिम का काम है। ‘डिजिटल लॉकर’ में कागजात सुरक्षित भी हों तो कितने ही पुलिसकर्मी हैं, जो प्रक्षिक्षण न होने के कारण इसे मानने को तैयार ही नहीं होते। इसका खामियाजा भी जनता को भुगतना पड़ता है।
सबसे पहले इन व्यवस्थाओं से लड़ने, इन्हें दुरुस्त करने की जरूरत थी। जनता खुद सुधर जाती। यह भी हो सकता था कि निर्णय लागू करने से पहले प्रावधानों की सख्ती का हवाला देकर कम से कम एक महीने की मोहलत दी जाती और जनता और सिस्टम दोनों अफरातफरी से बच जाते। हालांकि जिस तरह अकेले दिल्ली में ही हजारों की संख्या में चालान महज ड्राइविंग लाइसेंस न होने के कारण हुए हैं, वह भी चिंता में डालने वाला है। सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम भारतीय वाकई बेशर्मी की हद तक बिना डंडे के न सुधरने के अभ्यस्त हो चले हैं? क्योंकि यदि दिल्ली जैसे सख्त प्रावधानों वाले शहर में भी हजारों लोग अब तक बिना ड्राइविंग लाइसेंस के चल रहे थे तो समझा जा सकता है कि बाकी देश का क्या हाल होगा? इस पर तो खुद से शर्म ही की जा सकती है।
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फिलहाल तो यही कहना होगा कि नए नियम और आदेश के नाम पर जिस तरह ताबड़तोड़ चालान काटे जा रहे हैं, उस पर तो गौर करने की जरूरत है ही, ध्यान देने की बात है कि तमाम शहरों की अराजक हो चुकी यातायात व्यवस्थाओं में अब भी चौराहे और सड़क किनारे खड़े होकर, कागजात की कमी के नाम पर खूब चालान हो रहे हैं, लेकिन दुर्घटना बचाने के लिए बंद हुए कट के कारण उलटी दिशा से चलने वाले वाहनों परअब भी कोई नजरनहीं है। एनसीआर इसका बड़ा उदाहरण है।
फिलहाल सरकार से इतना ही कहना है कि अब भी मौका है। इन सब पर पुनर्विचार कीजिए। कुछ ऐसा कीजिए कि लोग ‘अवगत’ हों, ‘आक्रांत’ नहीं। वैसे अगर मंशा वाकई इस तरह आतंकित कर सड़कों पर वाहन कम कर लेने की खामख्याली पालने की है तो फिर क्या ही कहा जाए।
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