विचार

सार्वजनिक संसाधनों पर पूंजीवादियों का एकाधिकार! अब आर्थिक समानता नहीं बल्कि आर्थिक विकास प्रजातंत्र की नई परिभाषा

हमारे देश में दुनिया के सबसे अधिक कुपोषित और भूखे लोग हैं, युवाओं की एक बड़ी आबादी बेरोजगार है, कृषि क्षेत्र की समस्याएं साल-दर-साल बढ़ रही हैं, एक एक कर सभी लघु और कुटीर उद्योग बंद होते जा रहे हैं।

फोटो: सोशल मीडिया
फोटो: सोशल मीडिया 

हमारे देश का प्रजातंत्र वर्षों से खोखला हो रहा था, पर उसका बाहरी ढांचा अभी तक खड़ा था। पिछले एक दशक के भीतर ही यह ढांचा भी पूरी तरीके से गिर चुका है। जाहिर है, ऐसे में दुनिया के सामने अपने आप को प्रजातंत्र साबित करने के लिए प्रजातंत्र की नई परिभाषाएं गढ़नी पड़ेंगी। पिछले कुछ समय से दुनिया को लगातार जोर देकर बताया जा बताया जा रहा है कि हम प्रजातंत्र इसलिए हैं क्योंकि हमारा प्रजातंत्र सबसे पुराना है, बल्कि भारत प्रजातंत्र की मां है – मानों प्रजातंत्र कोई चावल या फिर शराब हो जो पुरानी होकर अधिक कीमती बन जाती है। वैसे भी पुराने प्रजातंत्र का मतलब हमेशा प्रजातंत्र तो कतई नहीं होता। हमारा पूरा इतिहास और यहाँ तक कि धर्मग्रंथों में भी, जिसे सत्ता इतिहास बताती है, राजाओं, नवाबों, शाहों और राजवंशों से भरा पड़ा है – प्रजातंत्र तो कहीं नजर नहीं आता।

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अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाईडेन ने वर्ष 2021 में वैश्विक प्रजातंत्र पर पहला अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन कराया था, जिसमें भारत भी आमंत्रित था। इसे मीडिया और सत्ता ने अमेरिका और भारत के बीच करीबी के साथ ही भारत के प्रजातंत्र की वैश्विक साख के तौर पर प्रस्तुत किया था। अब देश में प्रजातंत्र केवल सत्ता और मीडिया को ही नजर आता है। इस वर्ष इसी विषय पर दूसरा अधिवेशन आयोजित किया गया है, जिसके आयोजन में अमेरिका के साथ ही कोस्टारिका, नेदरलैंड्स, दक्षिण कोरिया और ज़ाम्बिया की भी प्रमुख भूमिका है। इस अधिवेशन में भारत समेत लगभग 120 देशों के नेता भाग ले रहे हैं।

अधिवेशन को संबोधित करते हुए हमारे प्रधानमंत्री ने कहा कि “तमाम वैश्विक चुनौतियों के बाद भी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में भारत की अर्थव्यवस्था सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है। यह उपलब्धि अपने आप में पूरी दुनिया में प्रजातंत्र का सर्वश्रेष्ठ प्रचार है”। वर्ष 2021-2022 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 8.7 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज के गयी थी, और वर्ष 2022-2023 में यह वृद्धि 7 प्रतिशत थी। दूसरे शब्दों में हमारे प्रधानमंत्री जी को लगता है कि एक जीवंत प्रजातंत्र का सबसे अच्छा उदाहरण तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है। जाहिर है, जिन विद्वानों ने प्रजातंत्र की परिभाषा तय की होगी, उनकी आत्माएं भी इस नई परिभाषा से खिन्न हो गयी होंगीं।

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प्रजातंत्र का आधार आर्थिक और सामाजिक समानता है, जिसके सन्दर्भ में हम दुनिया के सबसे पिछड़े देशों में शुमार हैं। देश की तथाकथित आर्थिक प्रगति, जिसपर सत्ता इतराती है, ही आर्थिक असमानता का सबसे बड़ा कारण है। हमारे देश में दुनिया के सबसे अधिक कुपोषित और भूखे लोग हैं, युवाओं की एक बड़ी आबादी बेरोजगार है, कृषि क्षेत्र की समस्याएं साल-दर-साल बढ़ रही हैं, एक एक कर सभी लघु और कुटीर उद्योग बंद होते जा रहे हैं, वनों और पानी जैसे सार्वजनिक संसाधनों पर पूंजीवादियों का एकाधिकार होता जा रहा है और देश के सभी उद्योगों और इंफ्रास्ट्रक्चर पर कुछ औद्योगिक घरानों का एकाधिकार होता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय अधिवेशनों से पहले शहरों की झोपड़-पट्टियों को पर्दों से ढका जाता है – यह उस राज्य में भी किया जाता है जहां के विकास के चर्चे प्रधानमंत्री समेत सत्ता पर काबिज दूसरे नेता भी लगातार सुनाते रहते हैं। जाहिर है, आंकड़ों से उपजा आर्थिक विकास सत्ता को नजर आता है, पर आर्थिक असमानता को परदे से ढका जाता है। ऐसे में आर्थिक विकास की महिमा प्रजातंत्र का उदाहरण कैसे हो सकती है?

इसी वर्ष जनवरी में ऑक्सफेम इंडिया ने दावोस में एक रिपोर्ट रिलीज़ की थी, जिसका शीर्षक था – सर्वाइवल ऑफ द रिचेस्ट: द इंडिया स्टोरी। यह रिपोर्ट हमारे देश में आर्थिक असमानता के आंकड़ों द्वारा आर्थिक विकास और तथाकथित प्रजातंत्र को बेनकाब करती है। इसके अनुसार आर्थिक सन्दर्भ में देश में सबसे ऊपर की 5 प्रतिशत आबादी के पास देश की 60 प्रतिशत सम्पदा है, जबकि सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी के पास सम्मिलित तौर पर महज 3 प्रतिशत सम्पदा है। वर्ष 2012 से 2021 के बीच देश की संपदा में जितनी बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी, उसमें से 40 प्रतिशत से अधिक सबसे अमीर 1 प्रतिशत आबादी के हिस्से में आया, जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी को इसका 3 प्रतिशत हिस्सा ही मिला।

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हमारे देश में वर्ष 2020 में कुल 102 अरबपति थे, पर वर्ष 2022 में इनकी संख्या बढ़कर 166 तक पहुंच गयी। देश के सबसे अमीर 100 लोगों के पास सम्मिलित तौर पर 54.12 लाख करोड़ रुपये की संपदा है, यह राशि हमारे देश के वार्षिक केन्द्रीय बजट से डेढ़ गुना ज्यादा है। दूसरी तरफ देश में भूखे, बेरोजगार और महंगाई की मार झेलती आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। वर्ष 2018 में देश में 19 करोड़ भूखे लोग थे, जिनकी संख्या वर्ष 2022 तक 35 करोड़ तक पहुँच गयी। केंद्र सरकार के आंकड़ों में भी देश में भुखमरी बढ़ती जा रही है। पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि देश में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की कुल मौतों में से 65 प्रतिशत का कारण भूख और कुपोषण है।

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देश के सबसे अमीर 10 लोगों की कुल संपदा वर्ष 2020 में 27.52 लाख करोड़ रुपये के समतुल्य थी, पर वर्ष 2021 में इस संपदा में 32.8 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो गयी। यह ऐसा दौर था जब देश के आबादी कोविड 19 के दौर में भूख और बेरोजगारी झेल रही थी। वर्ष 2020 से नवम्बर 2022 के बीच देश के अरबपतियों की कुल सम्पदा में 121 गुना वृद्धि दर्ज की गयी, यानि हरेक दिन इस संपत्ति में लगभग 3608 करोड़ रुपये बढ़ते गए। इसी दौर में देश में गरीबों की संख्या सर्वाधिक, यानि 22.89 करोड़ थी। देश की सबसे अमीर 10 प्रतिशत आबादी के पास कुल संपदा में से 80 प्रतिशत संपदा है, जबकि सबसे अमीर 30 प्रतिशत आबादी के पास 90 प्रतिशत सम्पदा है।

जहां तक देश के प्रजातंत्र का सवाल है, एक के बाद एक प्रकाशित रिपोर्ट इसका माखौल उड़ाती है – और सरकार हरेक ऐसी रिपोर्ट को नकार कर और प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध साजिश बताकर प्रजातंत्र साबित करती है। हाल में ही एमनेस्टी इन्टरनेशनल ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत की है। इसमें भारत के बारे में बताया गया है कि बिना बहस और बिना कानूनी जानकारों के सलाह के ही नए कानून और नीतियां लागू कर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कुचला जा रहा है। सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों पर लगातार प्रहार कर रही है, और सत्ता में बैठे नेता, समर्थक और सरकारी अधिकारी अल्पसंख्यकों के विरुद्ध खुले आम नफरती बयान देते हैं, नारे लगाते हैं और इन्हें कोई सजा नहीं मिलती। मुस्लिम परिवारों और उनके व्यापार को सजा देने के नाम पर किसी कानूनी प्रक्रिया के बिना ही बुलडोज़र से ढहा दिया जाता है और इसमें किसी को सजा नहीं होती।

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एमनेस्टी की रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों की मांगों को उठाते आन्दोलनों को सत्ता और मीडिया देश के लिए खतरा बताती है और उन्हें इसके अनुरूप ही सजा भी दी जाती है। विरोध की हरेक आवाज को दबाने के लिए आतंकवादियों के लिए बनाये गए कानूनों का व्यापक दुरूपयोग किया जाता है। निष्पक्ष पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को खामोश करने के लिए डिजिटल टेक्नोलॉजी के साथ ही अवैध तरीके से उनकी निगरानी की जाती है। आदिवासियों और दलित जैसे हाशिए पर खड़े समुदायों के विरुद्ध हिंसा और भेदभाव देश में सामान्य है। इस रिपोर्ट में जिन विषयों का विस्तार से वर्णन है, वे हैं – अभिव्यक्ति और विरोध की आजादी, गैर-कानूनी हिरासत, गैरकानूनी हमले और हत्याएं, सुरक्षा बलों का अत्यधिक उपयोग, धार्मिक आजादी, भेदभाव और असमानता, आदिवासियों के अधिकार, जम्मू और कश्मीर, निजता का अधिकार, महिलाओं का अधिकार, जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने में विफलता और पर्यावरण विनाश।

इन रिपोर्टों से पहले भी तमाम रिपोर्ट देश में फैली भयानक आर्थिक असमानता और प्रजातंत्र के जनाजे से हमें अवगत कराती है, पर जनता और मीडिया की मानसिकता इस कदर गुलाम हो चुकी है कि यहां भूख से तड़पता आदमी भी अडानी और अंबानी की अंधाधुंध बढ़ती संपदा पर ताली बजाता है, और प्रश्न पूछने वाला मुजरिम बनाया जाता है। यही हमारा आर्थिक विकास है और प्रजातंत्र भी।

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