राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत ने हाल में कहा था कि भारत में इस्लाम खतरे में नहीं है; कि कलह करने से काम नहीं चलने वाला है और देश में शांति के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संवाद की जरुरत है। उन्होंने यह भी कहा था कि "जो व्यक्ति कहता है कि मुसलमानों को इस देश में नहीं रहना चाहिए वह हिन्दू नहीं है...जो लोग लिंचिंग में शामिल हैं वे हिंदुत्व के खिलाफ हैं।" इस बयान से उन लोगों में आशा जागी थी जो अंतर्धार्मिक सद्भाव पर आधारित समाज की स्थापना के पक्षधर हैं और मानते हैं कि इसी से देश और समाज की प्रगति होगी।
यह दिलचस्प है कि भगवत ने यह भी कहा कि ऐसा भी हो सकता कि उनके संगठन के नेता ही मुसलमानों का तुष्टिकरण करने के लिए उनकी आलोचना करें। बाद में, अपने इस बयान से पीछे हटते हुए, भागवत ने सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम), एनआरसी (नागरिकों की राष्ट्रीय पंजी) और असम और उत्तर प्रदेश की सरकारों द्वारा प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण कानूनों का समर्थन किया। संयुक्त राष्ट्र संघ सहित कई संस्थाओं और संगठनों ने सीएए को भेदभावपूर्ण बताते हुए उसकी आलोचना की है।
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इसमें कोई संदेह नहीं कि अंतर्धार्मिक सद्भाव केवल परस्पर विश्वास और आदर की नींव पर ही निर्मित किया जा सकता है। महात्मा गांधी ने समावेशी भारतीय राष्ट्रवाद की तत्कालीन परिकल्पना को और समृद्ध करते हुए भारत को 'एक निर्मित होते राष्ट्र' के रूप में प्रस्तुत किया। गांधीजी भारत के सभी धर्मों के लोगों को बंधुत्व की डोर में बांधने में इसलिए सफल रहे क्योंकि उनका राष्ट्रवाद धर्म पर आधारित नहीं था।
उन्होंने लिखा, "उस भारत, जिसके निर्माण के लिए मैं अपने जीवन भर काम करता रहा हूं, में हर व्यक्ति का दर्जा समान होगा, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो। राज्य को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष होना ही होगा" और "धर्म राष्ट्रीयता की कसौटी नहीं है। वह तो मनुष्य और उसके भगवान के बीच का व्यक्तिगत मसला है। धर्म का राजनीति या राष्ट्रीय मसलों से घालमेल नहीं किया जाना चाहिएष" (हरिजन 31 अगस्त, 1947)।
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मध्य काल में देश की साझा संस्कृति, हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव को प्रतिबिंबित करती थी। इस संस्कृति का उच्चतम बिंदु थीं भक्ति-सूफी परम्पराएं, जो मानवता को धर्मों के नैतिक पक्ष का पर्याय मानती थीं। धर्म का नैतिक पक्ष ही इन परम्पराओं का आधार था। सांप्रदायिक हिंसा, जो सांप्रदायिक राजनीति का प्रकटीकरण है, की शुरुआत अंग्रेजों की 'बांटो और राज करो' की नीति से हुई। इस नीति के अंतर्गत इतिहास में धर्म का तड़का लगाया गया और शासकों को उनके धर्म के चश्मे से देखा जाने लगा। इतिहास के इसी सांप्रदायिक संस्करण का उपयोग मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा-आरएसएस जैसे सांप्रदायिक संगठनों ने किया। इतिहास के इसी संस्करण ने समाज में बैरभाव, नफरत और हिंसा के बीज बोए।
औपनिवेशिक काल में सांप्रदायिक संगठनों और उनकी विचारधारा में यकीन रखने वालों ने स्वाधीनता आन्दोलन और उसके समान्तर चल रही समाज सुधार की प्रक्रिया से दूरी बनाए रखी। उन्होंने अपने अनुयायियों के दिलोदिमाग में इतिहास के सांप्रदायिक संस्करण का जहर भर दिया। सांप्रदायिक धाराओं की जड़ें समाज के अस्त होते, लेकिन कुछ हद तक शक्तिशाली, जमींदारों और पुरोहित वर्ग में थीं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान सती प्रथा के उन्मूलन और दलितों और महिलाओं को शिक्षा तक पहुंच दिलवाने जैसे समाज सुधार किये गए। इनका उद्देश्य समाज में विद्यमान पदक्रम को चुनौती देना और उसका उन्मूलन करना था।
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औपनिवेशिक काल में देश में दो समानांतर साम्प्रदायिक धाराएं थीं। परंतु स्वाधीनता के बाद इनका चरित्र बदल गया। आरएसएस ने देश भर में अपनी शाखाओं और सरस्वती शिशु मंदिरों का जाल बिछा दिया। समय के साथ संघ ने अपने मीडिया, सोशल मीडिया और आईटी सेल भी स्थापित किए। गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आजाद के समावेशी राष्ट्रीय विमर्श के विपरीत संघ और उससे जुड़े संगठन लगातार मुसलमानों और ईसाईयों के खिलाफ विषवमन करते रहे। स्वतंत्रता के बाद आरएसएस के नेतृत्व वाली हिन्दू साम्प्रदायिक विचारधारा ने देश पर अपनी मजबूत पकड़ बना ली।
संघ के अनेकानेक अनुषांगिक संगठन हैं, हजारों प्रचारक हैं और लाखों स्वयंसेवक हैं। उसने समाज में इस धारणा की जड़ें जमा दी हैं कि भारत अनादिकाल से हिन्दू राष्ट्र है, मुसलमान विदेशी हैं, जिन्होंने हमारे मंदिरों को नष्ट किया और हिन्दुओं को तलवार की नोंक पर मुसलमान बनाया, उनकी कई पत्नियां होती हैं, वे बड़ी संख्या में बच्चे पैदा करते हैं, गौमांस खाते हैं, हिंसक होते हैं आदि-आदि। ख्वाजा इफ्तकार अहमद ने अपनी पुस्तक 'द मीटिंग ऑफ माईन्डस- ए ब्रिजिंग इनीशियेटिव' में यह बताया है कि भारत में सांप्रदायिक हिंसा ने मुसलमानों पर किस कदर कहर ढाया है। इसी पुस्तक के लोकार्पण समारोह में भागवत ने अपना चर्चित भाषण दिया था।
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आज भारत में इस्लाम तो खतरे में नहीं है परंतु मुस्लिम समुदाय अपने विरूद्ध चलाए जा रहे दुष्प्रचार अभियान और हिंसा व लिंचिंग आदि के कारण बहुत परेशान है। हमें यह समझना होगा कि अब हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिकता एक बराबर नहीं हैं। मुस्लिम समुदाय अपने मोहल्लों में सिमट गया है। यह उन प्रक्रियाओं का नतीजा है जिनका विवरण भागवत द्वारा लोकार्पित पुस्तक में दिया गया है।
भागवत दो तरह की बातें कर रहे हैं। एक तरफ वे मधुर अंदाज में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच संवाद की बात कर रहे हैं तो दूसरी ओर सीएए, एनआरसी और आबादी पर नियंत्रण जैसी बातें भी कह रहे हैं। उनके पहले बयान से आशा जगती है तो दूसरे बयान से उस डर की पुष्टि होती है जो अल्पसंख्यक समुदाय में लंबे अर्से से व्याप्त है। संवाद की पेशकश स्वागत योग्य है, अगर वह नेक इरादे से की गई है और यदि उसके साथ ही शाखाओं और संघ के स्कूलों के ट्रेनिंग माडयूल को भी बदला जाएगा।
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यदि देश में लाखों लोग समाज के हर वर्ग में अपने विघटनकारी एजेंडे का सतत प्रचार-प्रसार करते रहेंगे तो हम यह अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि विभिन्न समुदायों में सद्भाव और एकता स्थापित होगी? संघ देश के सबसे बड़े संगठनों में से एक है। क्या वह इस पर विचार करेगा कि उसकी शाखाओं और प्रशिक्षण सत्रों में युवाओं के दिमाग में क्या भरा जा रहा है। इसके उलट अब तो तैयारी यह की जा रही है कि सामान्य स्कूलों में भी वही इतिहास पढ़ाया जाए जो अब तक काली टोपी और खाकी हाफ पैंट वालों को पढ़ाया जाता रहा है।
नरमी की बात का स्वागत किया जाना चाहिए परंतु इसके साथ ही हमें वह आख्यान भी विकसित करना होगा जो देश की एकता को मजबूत करे। जैसे, गांधीजी का 'हिन्द स्वराज' और नेहरू की 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया'। आज इतिहास के नाम पर जो पढ़ाया जा रहा है उसकी जगह हमें ऐसा इतिहास पढ़ाना होगा जो हमारे देश की विविधिता का उत्सव मनाता हो। अन्य को 'दूसरा' मानना बंद करना होगा।
निश्चित ही अगर भागवत अपने संगठन की शैक्षणिक संस्थाओं और शाखाओं में बच्चों और युवाओं को दिए जाने वाले 'ज्ञान' को बदल सकें तो मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच अन्तर्धार्मिक संवाद का उनका प्रस्ताव सार्थक होगा।
(लेख का अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)
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