विचार

आकार पटेल का लेख: अर्थहीन हो चुके हैं पीएम मोदी के शब्द, हर मोर्चे के आंकड़े जरूर बताते हैं असली हकीकत

पीएम मोदी के कहे शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं है। हमें तो सिर्फ आंकड़ो को देखना चाहिए, जो साफ तस्वीर सामने रखते हैं। ऐसे में फिर भी अगर मोदी को समर्थन मिल रहा है, तो इसका कारण कुछ और ही है, कम से कम उनका कामकाज या सरकार का प्रदर्शन तो नहीं।

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फोटो : Getty Images Hindustan Times

बीजेपी ने एक और चुनाव जीत लिया और इस जीत का सेहरा प्रधानमंत्री की लोकप्रियता के सिर बांधा गया। प्रधानमंत्री अपने शासन के सातवें साल मैं हैं और ऐसा लगता है कि वोटरों में उन्हें लेकर आकर्षण बरकरार है। हालांकि इस बारे में कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं और भारत में चुनाव तो संगठन, समर्थन और पैसे के बल पर ही जीते जाते हैं।

एक बार को मान लेते हैं कि यह प्रधानमंत्री के निजी आकर्षण और विश्वसनीयता ही है जिसके चलते वे एक के बाद एक चुनाव जीत रहे हैं और बिहार भी बीजेपी की झोली में आ गिरा। लेकिन सवाल है कि आखिर वे कब तक जीतते रहना चाहते है? सत्ता हासिल करने का एक मकसद होता है, कि कुछ बदलाव करना है, आखिर वह कौन सा बदलाव है जिसके लिए पीएम मोदी अपनी सत्ता का इस्तेमाल अब तक किया है?

अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर आंकड़े छिपाए नहीं जा सकते। बीती 12 तिमाहियों में जीडीपी की दर 8 से 7, 7 से 6, 5, 4, और र 3 तक पहुंच गई। जनवरी 2018 से ठीक पहले अर्थव्यवस्था को एक बड़ा नुकसान पहुंचाया गया, लेकिन फिलहाल हम उसकी बात नहीं कर रहे। हकीकत यह है कि कोरोना से पहले और बिना लॉकडाउन के ही अर्थव्यवस्था का कबाड़ा हो चुका था। बिहार चुनावों के नतीजे घोषित होने के बाद आरबीआई ने ऐलान किया कि दूसरी तिमाही यानी जुलाई से सितंबर 2020 तक भारत की अर्थव्यवस्था में फिर से कमी आएगी और हम एक तरह की मंदी के दौर में हैं।

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सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मोदी ने विकास को लेकर कुछ नई ही बातें कीं, लेकिन ये बातें उनके दिल से नहीं निकल रही थीं। क्या आपको याद है कि आखिर बार उन्होंने कब कहा था कि देश की अर्थव्यवस्था दुनिया भर में सबसे बेहतर स्थिति में है। कारण साफ है कि इस बारे में कहने को कुछ रह ही नहीं गया है। बांग्लादेश तक प्रति व्यक्ति जीडीपी में हमें पछाड़ चुका है। ऐसे में और क्या कुछ कहा जा सकता है।

अभी खबर आ रही है कि पाकिस्तान के साथ लगी सीमा पर 11 और लोगों की जान चली गई। इसके जवाब में मीडिया ने खबरें दीं कि पाकिस्तानी साईड में भी 11 लोगों की जान गई।(हालांकि पाकिस्तान ने इसकी पुष्टि नहीं की है) यह एक तरह का खेल सा हो गया है। हम उस तरह के कुछ लोग मार देते हैं और बस। यह पागलपन है, लेकिन मोदी शासन में यही पड़ोसियों के साथ रिश्ता निभाने की नीति बन गई है। यानी उनका कोई नुकसान हमारा फायदा है। लेकिन यह बकवास है। सिर्फ लोगों को मारने से हमें कुछ हासिल नहीं होता। लेकिन जब हमारे लोग मरते हैं तो नुकसान तो होता ही है।

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उधर एलएसी पर, हम एक तरह का समर्पण जैसा कर रहे हैं, जोकि जमीनी स्तर पर हम लगभग कर ही चुके हैं। हमने फिंगर 8 पर पेट्रोलिंग स्थाई रूप से बंद कर दी है, और भगवान ही जाने कि हमने गुप्त रूप से और क्या-क्या छोड़ा है।

मोदी का इस बात से इनकार करना कि हमारी जमीन पर चीन नहीं आया और न ही उसने किसी जमीन पर कब्जा किया है, इससे साफ हो गया कि हमने समर्पण कर दिया है। इसके बाद से मोदी चीन के मुद्दे पर एकदम चुप हैं। आखिर बचा भी क्या है कहने को? भारत को इस बात की भी कोई सफाई नहीं दी गई कि आखिर मोदी के मित्र शी ने इतना आक्रामक रुख अपना क्यों लिया। इसके अलावा कश्मीर में संवैधानिक तौर पर हमने बिना किसी अंतरराष्ट्रीय समझ र इसके प्रभावों को ध्यान में रखते हुए जो किया है वह सबके सामने है ही।

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जैसा कि एक रक्षा विशेषज्ञ का कहना है कि मोदी ने तो नक्शे में लद्दाख की स्थिति बदली है, लेकिन चीन ने तो जमीनी स्तर पर लद्दाख का नक्शा बदल दिया है। ट्रंप के साथ हमारी झप्पियों का क्या नतीजा निकला और अब तो वह बाहर ही हो गए हैं। ट्रंप के रक्षा मंत्री जो पिछले सप्ताह ही सैन्य सहयोग का वादा कर रहे थे, उन्हें तो खुद ट्रंप ने ही बरखास्त कर दिया।

और क्या बचा है? हम कोविड की बात कर सकते हैं। इस मोर्चे पर हम दुनिया के दूसरे सबसे ज्यादा संक्रमित देश हैं। कोरोना मृत्यु के मामले में हम तीसरे नंबर पर हैं। सरकार की इसे नियंत्रित करने में क्या भूमिका रही है, किसी को नहीं पता। लॉकडाउन किया गया लेकिन इसका असर तो उलटा ही हुआ। आज भी रोज करीब 40,000 नए केस सामने आ रहे हैं और इस महामारी पर कोई नियंत्रण नहीं है। लॉकडाउन के चलते देश की दो तिहाई से ज्यादा महिलाएं बेरोजगार हो गई हैं। आंकड़े बताते हैं कि भारत में कामकाज में महिलाओं की भागीदारी में कमी आई है और यह दिसंबंर 2019 के 9.15 फीसदी से गिरकर अगस्त 2020 में 5.8 फीसदी पर पहुंच गई है। वहीं पुरुषों की भी कामकाज में भागीदारी दिसंबर में 67 फीसदी से गिरकर 47 फीसदी पहुंच गई है। अर्थात आधे से अधिक भारत के पास काम नहीं है। लेकिन क्या मोदी ने इस बारे में कुछ बोला, कुछ कहा। आखिर बोलें भी तो क्या?

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बस अच्छी बात यही है कि हम मोदी शासन के सातवें साल में हैं। इस वक्त उनके कहे शब्दों का कोई अर्थ ही नहीं है। हमें तो सिर्फ आंकड़ो को देखना चाहिए, जो साफ तस्वीर सामने रखते हैं। ऐसे में फिर भी अगर मोदी को समर्थन मिल रहा है, तो इसका कारण कुछ और ही है, कम से कम उनका कामकाज या सरकार का प्रदर्शन तो नहीं। और इस मोर्चे पर उनका रिकॉर्ड एकदम साफ है।

सत्ता बदलाव के लिए हासिल की जाती है। मोदी इसे कल्याणकारी रूप में प्रभावी बनाने में नाकाम साबित हुए हैं। अर्थव्यवस्था, सीमा, रोजगार महामारी, हर मोर्चे पर उनकी अक्षमता जाहिर हुई है। हैरानी है कि आखिर वह इस अक्षमता को कब तक छिपाए रहेंगे, लेकिन और सत्ता हासिल करने की कोशिशें लगातार जारी हैं।

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