भारत भले दुनिया का सबसे बड़ा प्रजातंत्र कहलाता हो, पर यह एक उदाहरण है कि किस तरह एक चुनी सरकार देश को निरंकुश शासन और असहिष्णुता के हवाले कर देती है- यह प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस की वेबसाइट पर 'मोदीज इंडिया– हिन्दू नेशनलिज्म एंड द राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी' के परिचय में लिखा है। इस पुस्तक को मूल रूप से फ्रांस के राजनैतिक शोधार्थी और भारतीय मामलों के विद्वान क्रिस्टोफ जाफरलोट ने फ्रेंच भाषा में लिखा है और इसका अंग्रेजी अनुवाद सिंथिया स्कोक ने किया है, जिसे प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस ने प्रकाशित किया है।
क्रिस्टोफ जाफरलोट ने इस पुस्तक के लिए नरेंद्र मोदी के 20 वर्षों के राजनीतिक जीवन का गहन अध्ययन किया है और हमारे देश में हजारों लोगों से बातचीत और साक्षात्कार के बाद इसे तैयार किया है। इस पुस्तक के परिचय में लिखा है, "पिछले दो दशकों के दौरान मोदी ने हिन्दू राष्ट्रीयता को राष्ट्रीय लोकवाद से जोड़ा, फिर इसके सहारे पहले गुजरात के चुनावों में और बाद में केंद्र में सत्ता पर काबिज हो गए। मोदी ने पहले तो विकास का झांसा दिया और फिर जातीय-धार्मिक उन्माद को हवा दी, जिससे बड़ी संख्या में जनता का ध्रुवीकरण हो गया और झुकाव उनकी तरफ हुआ और वे चुनाव जीतते रहे। इन सबके कारण देश में सरकार के काम करने के तरीके में बदलाव आया और पूरी सत्ता केवल एक हाथ में सिमट गई और मोदी के लगातार सोशल मीडिया और दूसरे तरीकों से जनता से सीधे संवाद के कारण केवल एक व्यक्ति पर टिकी सत्ता और मजबूत होती गई।"
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इस पुस्तक के अनुसार हमारे देश का लोकतंत्र धार्मिक लोकतंत्र बन गया है, जिसमें बहुसंख्यक जातियों और धर्म के लिए ही लोकतंत्र रह गया है और शेष आबादी दूसरे दर्जे का नागरिक रह गई है। इस पुस्तक में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह हिन्दू राष्ट्रीयता के विस्तार के बाद धर्मनिरपेक्ष लोगों, बुद्धिजीवियों, विश्विद्यालयों और गैर-सरकारी संस्थानों पर हमले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इन सबने मिलकर देश को एक निरंकुश शासन के हवाले कर दिया है।
केवल केंद्र में ही नहीं बल्कि हरेक राज्य में सत्ता हड़पने की लालसा में पूरी सत्ता और अधिकार का केन्द्रीकरण होता गया और इससे देश का संघीय ढांचा बिखर गया। इसी तरह निरंकुशता पर लगाम लगाने वाली सारी संवैधानिक संस्थाओं, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय भी शामिल है, को भी पूरी तरह से सरकारी कर दिया गया और इन संस्थाओं का स्वतंत्र अस्तित्व मिट गया। इस पुस्तक में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह एक जीवंत प्रजातंत्र में विरोध के स्वर दबाकर और धर्म की आड़ में एक निरंकुश शासन और धार्मिक लोकतंत्र में बदला जा सकता है। इस पुस्तक पर लेखक शांति प्रसाद चटर्जी ने कहा है, “शानदार और सामयिक। यह उन लोगों की आंख खोलने का काम करेगी जिनकी आंखें बंद हैं और हिन्दू तालिबानी का सपना देखते हैं।”
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इस पुस्तक में बताया गया है कि भारतीय मीडिया की आजादी खत्म करने के लिए सरकार तरह-तरह के हथकंडे अपनाती है, जिसमें सरकारी विज्ञापन नीति, आयकर और दूसरी जांच एजेंसियों के छापे और प्रमुख मीडिया घरानों का सरकार के नजदीकी उद्योगपतियों के हाथों में चले जाना शामिल है। दूसरी तरफ भारतीय मीडियाकर्मियों में साहस की और अपने पेशे के प्रति गंभीरता की कमी है, जिसके कारण अधिकतर पत्रकार अपनी मर्जी से सरकार के पक्ष में ही खबरें करते हैं। इस पुस्तक के अनुसार चुनाव आयोग अपनी पूरी आजादी खो चूका है। सर्वोच्च न्यायालय अपने पिछले चार प्रधान न्यायाधीश के दौरान सरकार के विरुद्ध कोई फैसला नहीं सूना पाया है, जिसका कारण सरकार द्वारा कुछ न्यायाधीशों का ब्लैकमेल, कुछ न्यायाधीशों का सरकार के धार्मिक भावना के साथ खड़े होना और पदमुक्त होने के बाद सरकारी नियुक्ति या फिर राज्यसभा में नामांकन का लालच है।
धार्मिक निरंकुशता के दौर में सरकारों में उच्चवर्गीय राजनीतिज्ञों का दबदबा बढ़ गया है और आरक्षण अब हाशिये पर है। आर्थिक तौर पर देश पूंजीवादियों के हित साध रहा है। इन सबसे धार्मिक उन्माद और सत्ता की निरंकुशता बढ़ती जा रही है। धार्मिक उन्माद की हालत यह है कि संघ से जुड़े बजरंग दल जैसे हिन्दू गिरोह अल्पसंख्यकों के साथ मारपीट, धमकी और हत्या खुले आम कर रहे हैं। दूसरी तरफ पुलिस जो राज्यों के नियंत्रण में है, वह भी केंद्र के धार्मिक उन्माद में अपनी पूरी भागीदारी निभा रही है।
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पिछले वर्ष, यानि 2020 में दुनिया के दस सबसे बड़े खतरों में से एक मोदीमय भारत भी था। इस सूची में यह पांचवें स्थान पर था। इन खतरों का पूर्वानुमान यूरेशिया ग्रुप ने किया है, जो 1998 से लगातार इस तरह के वार्षिक रिपोर्ट तैयार करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2020 में पूरी दुनिया के लिए दस सबसे बड़े खतरे थे- अमेरिका (डोनाल्ड ट्रंप) की सरकार, अमेरिका और चीन के बीच टेक्नोलॉजी और आर्थिक युद्ध, अमेरिका और चीन के बीच राजनैतिक मतभेद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बढ़ता वर्चस्व, मोदीमय भारत, यूरोप का भौगोलिक राजनैतिक परिवेश, राजनीति बनाम जलवायु परिवर्तन का अर्थशास्त्र, मध्य पूर्व के शिया साम्राज्य को कुचलने की साजिश, लैटिन अमेरिका की राजनैतिक और आर्थिक अराजकता और राष्ट्रपति एरदोगान के शासन में तुर्की।
मोदी जी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार अति-हिंदूवादी एजेंडा लागू किया जा रहा है। पहले कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाया गया, फिर असम में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स के माध्यम से 19 लाख लोगों की नागरिकता छीनी गई, फिर आनन-फानन में जातिवादी संभावनाओं से परिपूर्ण सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट आ गया। इसके बाद जब देशभर में आन्दोलनों का दौर शुरू हुआ तब सरकार ने किसी सार्थक बात के बदले नेशनल पोपुलेशन रजिस्टर को स्वीकृत कर दिया। इन सबके बीच मानवाधिकार का इतना हनन किया गया कि लोग इमरजेंसी के दौर को भूल गए।
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देश में ऐसी पहली सरकार होगी जो देश को बांटने के लिए इतनी तत्पर दिखती हो। इन सबके बीच अर्थव्यवस्था ऐसी स्थिति में आ गयी जैसी पहले कभी नहीं रही। दरअसल पिछले कुछ दशकों से दुनिया वैश्वीकरण की तरफ बढ़ रही है, इसलिए एक देश में कुछ होता है तो उसका असर पूरी दुनिया पर पड़ना लाजिमी है। वैश्वीकरण से लोगों के बढ़ने के अवसर बढे हैं, दुनिया की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है, दुनिया में समानता, संपन्नता, लैंगिक समानता, स्वास्थ्य इत्यादि की हालत अच्छी हो गई है, पर अपने देश की सरकार तो इन सब मामलों में देश को पीछे ले जा रही है। जाहिर है, दुनिया के लिए मोदीमय भारत एक बड़ा खतरा बनकर उभरा है।
द साउथ एशिया कलेक्टिव नामक संस्था ने “साउथ एशिया स्टेट ऑफ माइनॉरिटीज रिपोर्ट 2020” को प्रकाशित किया था और इसके अनुसार भारत लगातार अल्पसंख्यक मुस्लिमों के लिए खतरनाक बनता जा रहा है और इन पर हिंसा और अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं। कुल 349 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, विशेष तौर पर मुस्लिम कार्यकर्ताओं की दयनीय स्थिति की भी चर्चा की गई है।
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इस रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों के मामले में दक्षिण एशिया के हरेक देश भारत, श्रीलंका, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान सबकी स्थिति एक जैसी है और अल्पसंख्यकों के उत्पीडॉन के सन्दर्भ में मानो इन देशों में ही आपसी प्रतिस्पर्धा रहती है। साउथ एशिया फ्री मीडिया एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल इम्तियाज आलम के अनुसार इन सभी देशों में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों का लगातार उत्पीड़न किया जाता है और भारत की स्थिति इस सन्दर्भ में पाकिस्तान या अफगानिस्तान से किसी भी स्थिति में बेहतर नहीं है। दक्षिण एशिया के लगभग सभी देशों में लोकतंत्र के नाम पर फासिस्ट सरकारों का कब्जा है जो विशेष तौर पर जनता के अभिव्यक्ति और आन्दोलनों के संवैधानिक अधिकारों का हिंसक हनन करने में लिप्त हैं।
सवाल यह है कि इस पुस्तक, 'मोदीज इंडिया- हिन्दू नेशनलिज्म एंड द राइज ऑफ एथनिक डेमोक्रेसी' की विशेषता क्या है, क्योंकि इस सत्ता की निरंकुशता और समाज में फैलता धार्मिक उन्माद तो सामाजिक सरोकारों से जुड़े हरेक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट और इंडेक्स में बताया जाता है। इस पुस्तक की विशेषता है कि इसमें नरेंद्र मोदी के सत्ता में रहते 20 वर्षों का सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुतीकरण है, न कि किसी एक वर्ष या एक घटना के बारे में। दूसरी विशेषता यह है कि यह पुस्तक हमें भविष्य के लिए सचेत करती है। इसके अनुसार धार्मिक उन्माद्ता और कट्टरता समाज के निचले तबके तक पहुंच चुकी है, इसलिए अब सरकार भी बदल जाए तब भी यह कट्टरता, धार्मिक उन्माद और हिंसक आचरण खत्म नहीं होगा।
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