भारतीय जनता पार्टी कई अलग-अलग तरीकों से अपनी चुनावी ताकत बढ़ाती रही है। पार्टी को मिलने वाले वोटों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है। परंतु वह इससे संतुष्ट नहीं है। वह अन्य पार्टियों के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को दलबदल कर BJP का सदस्य बनवाने के लिए हर तरह से कोशिश कर रही है। वह समाज के विभिन्न तबकों को भी अपने झंडे तले लाने के लिए प्रयासरत है। इस सबके बावजूद यह धारणा काफी मजबूती के साथ समाज में व्याप्त है कि मुसलमान BJP को वोट नहीं देते। यह बात पूरी तरह सही नहीं भी हो सकती है।
हाल में संपन्न BJP की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपनी पार्टी के नेताओं से कहा कि वे समाज के उन वर्गों को पार्टी से जोड़ें जो चुनावों में BJP को वोट नहीं देते क्योंकि विपक्षी दलों ने उनके मन में BJP के प्रति डर का भाव पैदा कर दिया है। BJP समाज के कुछ तबकों में अपने प्रति भय के भाव के लिए विपक्षी दलों को दोषी ठहरा रही है। परंतु इसमें विपक्षी दलों की शायद ही कोई भूमिका हो।
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BJP के नेता जिस तरह के नफरत भरे भाषण देते हैं और जिस तरह के संदेश शीर्ष नेतृत्व द्वारा अपने कार्यकर्ताओं को दिए जाते हैं उनके कारण कुछ तबकों में BJP के प्रति भय का भाव पैदा हो गया है। इनके कुछ उदाहरण हैं ‘उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है' (मोदी), ‘इव्हीएम मशीन का बटन इतने जोर से दबाओ कि उसका करेंट शाहीन बाग तक पहुंचे' (अमित शाह) और ‘देश के गद्दारों को गोली मारो सालों को' (अनुराग ठाकुर)। ऊपर से धर्मसंसदों में मुसलमानों के कत्लेआम का आव्हान किया जाता है।
मुस्लिम समुदाय अगर विरोध व्यक्त करता है तो उसे बुलडोजरों का सामना करना पड़ता है। राजनैतिक प्रेक्षक जैनब सिकंदर लिखती हैं, ‘‘मध्यप्रदेश के खरगोन में एक व्यक्ति, जिसके दोनों हाथ कटे हुए हैं, पर पत्थरबाजी करने का आरोप लगाया जाता है। उसकी आय की एकमात्र स्त्रोत, उसकी छोटी सी दुकान, पर बुलडोजर चला दिया जाता है। आप उसकी फोटो देखते हैं, शायद आपको थोड़ा बुरा लगता है, पर फिर आप आगे बढ़ जाते हैं। परंतु मुसलमान? यह उनके जीवन का दैनिक यथार्थ है। इस देश में मुसलमानों का क्या भविष्य है जब उन्हें षड़यंत्रकर्ता, आतंकवादी, घुसपैठिया, दंगाई और पत्थरबाज कहकर मानसिक रूप से तोड़ा जा रहा है।"
इसमें हम यह जोड़ सकते हैं कि साम्प्रदायिक हिंसा के शिकार होने वालों से अधिकांश मुसलमान होते हैं और दंगे करने के आरोप में जिन लोगों को जेल भेजा जाता है उनमें भी मुसलमानों का बहुमत होता है। पिछले कुछ समय से ऐसे मानवाधिकार कार्यताओं को भी जेल भेजा जा रहा है जो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों का आव्हान करते हैं या उनमें भाग लेते हैं। इनमें से अधिकांश आल्ट न्यूज के संस्थापक मोहम्मद जुबेर की तरह भाग्यशाली नहीं होते। जुबेर के विपरीत उन्हें महीनों जमानत नहीं मिल पाती।
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इस सिलसिले में हमें गोपाल सिंह आयोग, रंगनाथ मिश्र आयोग और सच्चर समिति के निष्कर्षों को भी याद रखना होगा। इन रपटों के अनुसार मुस्लिम समुदाय का आर्थिक और सामाजिक स्तर गिरता जा रहा है और अब वे समाज के पिरामिड के सबसे निचले पायदान पर हैं। एक ओर मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक हालात बदतर हो रहे हैं तो दूसरी ओर समाज में यह धारणा व्याप्त है कि उनका तुष्टिकरण किया जा रहा है। और अब हमें यह बताया जा रहा है कि यदि मुसलमान BJP से डरते हैं तो इसका कारण विपक्षी पार्टियां हैं।
इस पृष्ठभूमि में हमारे प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के नेताओं को यह सलाह दे रहे हैं कि वे स्नेह यात्राएं निकालकर पसमांदा मुसलमानों को पार्टी की ओर आकर्षित करें। प्रधानमंत्री एक तीर से कई निशाने लगाना चाह रहे हैं। वे मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से को BJP से जोड़ना चाहते हैं ताकि इस समुदाय को जातिगत और आर्थिक आधारों पर बांटा जा सके। BJP के पितृ संगठन आरएसएस ने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच का निर्माण किया है। यह मंच मुसलमानों से कह रहा है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं तब फिर केवल उपासना पद्धति के बदल जाने से मुसलमानों की राष्ट्रीयता कैसे बदल जाएगी। परंतु इस प्रचार का असर मुस्लिम समुदाय पर कुछ खास नहीं पड़ रहा है क्योंकि वह हिंसा की राजनीति का शिकार है और उसे आर्थिक दृष्टि से भी हाशिए पर धकेल दिया गया है।
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असल में तो भय, मुस्लिम समुदाय के प्रति पैदा किया गया है और यह सिलसिला कई दशकों से जारी है। अमरीकी मीडिया ने 9/11 के बाद से मुसलमानों का दानवीकरण और इस्लामिक आतंकवाद शब्द का प्रयोग शुरू कर दिया था। इसके बहाने कई तेल उत्पादक देशों पर हमले भी किए गए। पसमांदा एक फारसी शब्द है जिसका अर्थ है ‘पीछे छूटा हुआ'। इस शब्द का धर्म या जाति से कोई संबंध नहीं है। अतः अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों व अन्य पिछड़ा वर्गों को भी पसमांदा की श्रेणी में रखा जा सकता है।
मुसलमानों में एक अन्य सामाजिक पदक्रम भी है। अशरफ अपने आपको पैगम्बर मोहम्मद का वंशज मानते हैं। इसके बाद हैं अजलफ जो ओबीसी के समकक्ष हैं और सबसे नीचे हैं अरजल जो मुसलमानों की सबसे नीची जातियां हैं। भारत में नीची जातियों के कई लोगों ने जातिप्रथा के उत्पीड़न से बचने के लिए इस्लाम अपनाया परंतु विडंबना यह है कि मुसलमान बनने के बाद भी उन्हें जातिप्रथा से मुक्ति नहीं मिली। भारतीय समाज पर जातिप्रथा का इतना जबरदस्त प्रभाव है कि ईसाई और मुसलमान भी उससे बच नहीं सके हैं।
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मोटे तौर पर पसमांदा शब्द नीची जातियों के मुसलमानों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जिन्हें सकारात्मक भेदभाव की नीतियों और कार्यक्रमों, विशेषकर मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने, का लाभ नहीं मिला है। पसमांदा में दलित (अरजल) और पिछड़े (अजलफ) मुसलमान शामिल हैं। मंडल आयोग की रपट के आधार पर पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इनमें 79 मुस्लिम जातियां शामिल थीं जिनमें से अधिकांश पसमांदा थीं। पसमांदा मुसलमानों की जातियां उनके पेशों पर आधारित हैं। पसमांदाओं में शामिल हैं मलिक (तेली), मोमिन अंसार (जुलाहे), कुरैशी (कसाई), सलमानी (नाई) और हवारी (धोबी) इत्यादि।
मंडल आयोग ने कई मुस्लिम जातियों को ओबीसी का दर्जा नहीं दिया। इसके अतिरिक्त कुछ जातियों को उपयुक्त श्रेणी में शामिल नहीं किया गया है, जिसके नतीजे में वे सकारात्मक भेदभाव के कार्यक्रमों का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं। यह भी सही है कि मुस्लिम समुदाय के भीतर मुसलमानों की जो संस्थाएं और संगठन है उनमें से अधिकांश पर अशरफों का कब्जा है।
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पसमांदा लंबे समय से एकजुट होकर अपनी आर्थिेक-सामाजिक बेहतरी के लिए काम करने का प्रयास करते आ रहे हैं। ऐसे ही एक पसमांदा संगठन के संस्थापक अली अनवर कहते हैं, ‘‘सन् 1998 में हमने पसमांदा मुस्लिम महाज नाम के सामाजिक संगठन की स्थापना की थी। हम प्रधानमंत्री की कृपा के आकांक्षी नहीं हैं"। उन्होंने यह भी कहा कि "जब प्रधानमंत्री कहते हैं कि पसमांदा मुसलमानों को ‘स्नेह‘ की जरूरत है तब क्या वे यह नहीं कह रहे होते कि स्नेह पाने वाला निम्न और स्नेह देने वाला उच्च है। हमारी लड़ाई किसी जाति या समुदाय से नहीं है। हम तो सरकार और राजनीतिज्ञों से यह मांग भर कर रहे हैं कि हमें हमारी आबादी के अनुरूप संसाधनों में हिस्सा दिया जाए ताकि हम गैर-पसमांदा लोगों के बराबर बन सकें"।
स्नेह यात्रा से किसी को क्या आपत्ति हो सकती है परंतु इसके साथ-साथ मुसलमानों के खिलाफ विषवमन बंद होना चाहिए और इस समुदाय के कमजोर तबकों की भलाई के लिए उपयुक्त कदम उठाए जाने चाहिए।
(लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
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