यह शिकायत नहीं, हालात का प्रतिबिंब हैः मेरे 50 वर्षों के पत्रकारीय जीवन में नरेंद्र मोदी ही ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिनसे मैं कभी नहीं मिला। बीते वर्षों में जब भी मुलाकात की कोशिश की, आरएसएस के विनय सहस्रबुद्धे के पास भेज दिया गया। बहुत विनम्रता से वह यह संदेश देने में सक्षम थे- ‘मोदी के साथ मुलाकातों के लिए व्यवस्था नहीं हो सकती।’
कभी पत्रकारीय हंसी-ठट्ठा के लिए दुनिया का पसंदीदा ठिकाना रही नई दिल्ली सूचनाओं से सबसे कम अवगत राजधानियों में से एक हो सकती है। समाचारों के लिहाज से मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, लखनऊ जीवंत हो गए हैं। सूचना के अभाव में, एंकर और पत्रकार उपचुनाव, राज्य के चुनाव, गठबंधन या महागठबंधन, जाति या सांप्रदायिकता और अन्य मसलों पर अटकलों की नीरसता की गिरफ्त में फंस जाते हैं।
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अफगानिस्तान में अंतहीन युद्ध, जो 18वें साल में प्रवेश कर चुका है, के बारे में टीवी पर कोई बहस दिखा दीजिए या फिर प्रिंट में कोई बढ़िया लेख। धैर्य से तब तक प्रतीक्षा कीजिए जब तक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ‘द इकॉनोमिस्ट’ का मुख्य संपादकीय अपने यहां पुनर्प्रकाशित नहीं करता, जो हमें हमारे पीछे वाले हिस्से की वर्तमान स्थिति के बारे में विस्तार से समझाता है। अफगानिस्तान अपवाद नहीं है। कभी, नेपाल के हिंदू राष्ट्र के बारे में बीबीसी, सीएनएन, न्यूयॉर्क टाइम्स और रॉयटर द्वारा बताया-समझाया गया।
मुर्गों की लड़ाइयों के लिए जोशपूर्ण अखाड़ों वाले समाचार चैनलों के अफगानिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, मालदीव, श्रीलंका, म्यांमार, चीन, रूस, ब्रिटेन, अमेरिका सहित कहीं भी ब्यूरो नहीं हैं। केवल एक ही फॉर्मूला है- ‘उधर रकिब इधर हम बुलाए जाते हैं, कि दाना डाल के मुर्गे लड़ाए जाते हैं।
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प्रधानमंत्री ने मई 2014 में लोकसभा में पहले ही भाषण में देश को “गुलामी” या बौद्धिक दासता से मुक्त कराने की बात कही थी। अगर वह अपने शब्दों के समान ही सच्चे हैं, तो उन्हें तुरंत विदेशी मीडिया के एकाधिकार पर ध्यान देना चाहिए। गांधीजी सभी के लिए खिड़कियां खुली रखते थे ताकि सभी तरफ से प्रभाव आ और जा सकें। प्रधानमंत्री राष्ट्रवाद की कसमें खाते हैं- मैं इसे स्वाभिमान कहता हूं। अंतरराष्ट्रीय मामलों की कवरेज में जब भारत का संभ्रांत शासक वर्ग मात्र एंग्लो-अमेरिकन मीडिया का ही कैदी हो, तो दोनों ही (राष्ट्रवाद और स्वाभिमान) जख्मी हो जाते हैं।
रूस, चीन और ईरान उदार लोकतंत्र नहीं हैं, इसके बावजूद इनके दुनियाभर में ब्यूरो हैं। जब पश्चिमी मीडिया उनके खिलाफ कहानी गढ़ता है, वे प्रभावी हस्तक्षेप करते हैं। 2019 के चुनावों में विश्व का मीडिया “द डिवाइडर इन चीफ” के विरुद्ध उतर आया था। मोदी के साथियों ने इसे चुनौती देने की सोची? कोशिश की होती तो पता चलता कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के पास अपने तटों से परे श्रोताओं/दर्शकों तक पहुंचने के साधन नहीं हैं।
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मोदी का मीडिया के साथ सीमित अनुभव है। शुरुआत में उनका सामना हॉस्टाइल मीडिया से हुआ, जिसने उन पर 2002 के गजरात नरसंहार का आरोप लगाया। बाद में उनकी कोर टीम ने एपीसीओ जैसे समूहों, अंतरराष्ट्रीय परामर्शदाता, से इनपुट लेकर ब्रांड मोदी बनाने में मदद ली, जिसको मीडिया के अपने समाचार संग्रहण और कॉलम लिखने के सामान्य अवतार की आवश्यकता नहीं थी। ब्रांडिंग की प्रक्रिया में अर्थव्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता नहीं थी, उन्हें मालूम था कि वह पूर्ण रूप से ध्वस्त है।
उनके मार्केटरों ने सलाह दी कि सारा ध्यान “अमूर्त” विषयों पर लगाएं जिसमें बहुत अधिक भावपूर्ण ताकत है। पाकिस्तान को नफरत की वस्तु के रूप में सामने रखा गया और बालाकोट में उस पर सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाए गए; मोदी के शब्दाडंबर ने एक साउंड इफेक्ट पैदा किया जिसने उनका साथ दिया। “घर में घुस के मारा”, गैंगस्टर की भाषा है, फिर भी क्या कीजिए रॉबिन हुड भी तो बहुत लोकप्रिय डाकू था।
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क्या मोदी को मीडिया की आवश्यकता है? बिल्कुल है। मीडिया के बिना मोदी प्रोजेक्ट तो मृत पैदा हुए शिशु के समान है। उन्हें “बंदी” मीडिया चाहिए न कि “आलोचनात्मक” स्वतंत्र मीडिया। यह दो श्रेणियों की मीडिया नीति पर जोर देता है। मोदी को मीडिया की जांच-पड़ताल से दूर रखा जाएगा। वह केवल कोर टीम द्वारा हिसाब-किताब की हुई उपस्थिति देंगे ताकि करिश्मे को बढ़ा सकें और विशेष महत्व के काम को अंजाम दे सकें।
मीडिया से आमना-सामना जरूरी होगा तो वह विदेश मंत्रालय का होगा। अन्यथा फिल्टर नहीं की गई सामग्री वैकल्पिक मीडिया को तर कर देगी। मीडिया के साथ बातचीत के रिश्ते सामान्य रूप से वेंटिलेशन (वायु-संचार) को बढ़ाते रहते हैं। उदाहरण के रूप में मैं एक अहानिकारक मालूम होने वाली कहानी सुनाता हूं जिसने अनपेक्षित रूप से एक राष्ट्रीय उद्देश्य को पूरा किया था।
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बात उस समय की है जब मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे। उस समय मेरे एक सूचनादाता, विदेश मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेटरी थे, और प्रधानमंत्री की टीम में थे। एक बार उन्होंने मुझे टोका और अपने कमरे में कॉफी के लिए आमंत्रित किया। जैसलमेर और बाड़मेर के उनके शाही दोस्तों ने कुछ तस्वीरें भेजी थीं (जो उन्होंने मुझे दिखाई), जिनमें एयरफोर्स के रनवे पर सऊदी अरब, कतर और यूएई के कुछ प्राइवेट जेट उतर रहे थे। इनमें नकाब से ढके बाज (फॉल्कन) और रेगिस्तान में आलीशान टेंट लगाने के लिए उपकरण थे। इन शेखों ने जैसलमेर और बाड़मेर के आसपास के रेगिस्तान को गोडावण ( द ग्रेट इंडियन बस्टर्ड) के शिकार के लिए दुनिया के सबसे बेहतरीन स्थान के रूप में चुना था।
पर्यावरणविदों ने पाया कि गोडावण की संख्या गिर रही है। सूचनादाता किसी प्रकार से राजस्थान में जिला अधिकारियों का लिखित आदेश प्राप्त करने में कामयाब रहे। कहानी पहले पेज पर छपी। विदेश मंत्रालय के अफसर शिकार स्थल तक गए और उन्हें वहां से सामान समेटने का अनुरोध किया। गोडावण को बचा लिया गया।
यह एक ईमानदार आपत्तिकर्ता की वजह से हो पाया। प्रकृति प्रेमियों को उन्हें धन्यवाद देना चाहिए।जैसा कि वाटरगेट का सूचनादाता आखिरकार सबके सामने आया। मैं समझता हूं कि उस रक्षक को सामने लाने में कोई हानि नहीं है। वह आज बीमार हैं। विडंबना है कि उस सूचनादाता की आवाज ही चली गई है। उनका नाम है विनोद ग्रोवर, जो कभी अंकारा, हेग और नैरोबी में हमारे राजदूत थे।
(लेखक सईद नक़वी वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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