जब नरेंद्र मोदी सरकार ने दो केंद्रीय विश्वविद्यालयों दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ के अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस को भेजा तो उसका ख्याल यही था कि पुलिसिया बर्बरता के प्रति बहुसंख्यक छात्र और आम लोग उदासीन ही रहेंगे क्योंकि इन संस्थानों के नाम में ‘मुस्लिम’ शब्द है और यहां ज्यादातर मुस्लिम छात्र पढ़ते हैं। मोदी-शाह की जोड़ी के लिए बेशक यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा हो कि कभी उनके विभाजनकारी एजेंडे को जमीन मुहैया कराने वाले छात्रों ने जब देखा कि उनके अपने साथियों को पुलिस निहायत बेदर्दी से कैंपस, हॉस्टल, लाइब्रेरी और उपासना स्थलों के भीतर मार रही है, तो वे उदासीन नहीं रह सके। लेकिन यह भारत के लिए शर्तिया अच्छी बात है। छात्रों ने इस घटना को ऐसे नहीं देखा कि मुस्लिम छात्रों पर पुलिस अत्याचार कर रही है, बल्कि उन्होंने इसे साथी छात्रों पर पुलिसिया कहर के तौर पर देखा।
इन दो संस्थानों में छात्रों के धार्मिक खांचे में नहीं बंटने का जो परिणाम हुआ, उसे कोई भी देख सकता है। पूरे देश में जगह-जगह हजारों की तादाद में छात्र सड़कों पर उतर आए हैं। जिस रात जामिया में छात्रों पर पुलिसिया कहर बरपा, हजारों लोगों ने दिल्ली की कड़कड़ाती ठंड में आईटीओ पर पुलिस मुख्यालय की घेराबंदी कर दी, जिसकी वजह से पुलिस को तड़के 3 बजे मजबूर होकर हिरासत में लिए गए छात्रों को छोड़ना पड़ा। और फिर अगली सुबह से ही पूरे देश में छात्र जामिया में अपने साथियों पर हुई पुलिसिया बर्बरता के खिलाफ सड़कों पर उतर आए।
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जामिया की घटना को लेकर छात्रों में किस कदर उबाल है, इसका अंदाजा देश भर के उन शिक्षा संस्थानों की सूची से लगाया जा सकता है जिसके छात्र आजकल सड़कों पर हैं। ये संस्थान रहे- पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय, पंजाबी विश्वविद्यालय (पंजाब); दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, आम्बेडकर विश्वविद्यालय, साउथ एशियन विश्वविद्यालय, आईआईटी दिल्ली, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज (दिल्ली); बीएचयू, एएमयू, लखनऊ विश्वविद्यालय, दारुल उलूम नदवातुल उलमा, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, आईआईटी कानपुर (यूपी); पटना विश्वविद्यालय (बिहार); जादवपुर, कलकत्ता, प्रेसिडेंसी, आलिया, विश्वभारती विश्वविद्यालय (पश्चिम बंगाल); हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, उस्मानिया, हैदराबाद विश्वविद्यालय (तेलंगाना); आईआईटी मद्रास, मद्रास विश्वविद्यालय, लोयला कॉलेज, न्यू कॉलेज, वेल्लोर गवर्नमेंट लॉ कॉलेज, सेंट्रल यूनिवर्सिटी ऑफ़ तमिलनाडु (तमिलनाडु); टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई विश्वविद्यालय, डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय, आईआईटी- पोवई, फर्ग्यूसन कॉलेज (महाराष्ट्र); केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय, कस्तूरबा गांधी, कन्नूर, कालीकट, केरल विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी विश्वविद्यालय (केरल); भारतीय विज्ञान संस्थान, जैन विश्वविद्यालय, आईआईएम बंगलोर, मैसूर विश्वविद्यालय, (कर्नाटक); आईआईएम अहमदाबाद, राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान, अहमदाबाद विश्वविद्यालय, निरमा विश्वविद्यालय, एमएस विश्वविद्यालय (गुजरात)।
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बंगाल, बिहार, केरल, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश में विशाल रैलियां की गईं और बड़ी तेजी से और इलाके भी इनकी चपेट में आते जा रहे हैं। पूर्वोत्तर और पश्चिम बंगाल तो लंबे अरसे से जल ही रहा है। असम में पुलिस की गोलियों से कम से कम चार लोगों की जान जा चुकी है। बंगाल और असम, दोनों राज्यों में ट्रेनों और रेलवे स्टेशनों को आग लगा दी गई है। हिंसक झड़प की खबरें देश भर से आ रही हैं। और तो और, लोग अब मजाकिया लहजे में कहने लगे हैं जिस पार्टी ने कश्मीर का ‘भारतीयकरण’ करने के लिए वहां से अनुच्छेद 370 खत्म किया, उसने पूरे देश को कश्मीर बना दिया।
गौर करें तो पिछले छह साल के दौरान सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खेल से केंद्र की बीजेपी सरकार को फायदा ही हुआ है। यह सही है कि साल 2014 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन और विकास के वादे के कारण केंद्र में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार बनी, लेकिन उसके बाद से हर चुनाव के दौरान, चाहे विधानसभा चुनाव हो या फिर आम चुनाव, इसने हिंदू-मुस्लिम, श्मशान-कब्रिस्तान, मंदिर-मस्जिद को मुद्दा बनाया और मोटे तौर पर उसे सफलता भी मिली। साल 2019 का आम चुनाव तो बीजेपी पुलवामा में आतंकवादी हमले के बाद पाकिस्तान के बालाकोट में हवाई हमले के कारण देशभर में उठे भावनाओं के ज्वार के कारण जीत गई। लेकिन अर्थव्यवस्था गर्त में डूबती चली गई, विकास दर न्यूनतम स्तर तक गिर गई, नौकरियां खत्म हो गईं और मांग तलहटी पर जा बैठी। युवाओं में पहले से गुस्सा था कि पीजी करने के बाद भी उन्हें हाथ से कचरा उठाने तो पीएचडी किए लोगों को चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन करने को मजबूर होना पड़ा है। जब विवादास्पद नागरिकता संशोधन बिल संसद से पास होकर कानून बन गया तो गैर-मुस्लिमों समेत समाज का बड़ा वर्ग इसके विरोध में आ गया। और तब मोदी-शाह की जोड़ी ने इसका भी वही हल निकाला जिसमें उन्हें महारत हासिल थी।
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यह साफ है कि मोदी और शाह को इस बात का अंदाजा नहीं कि उन्होंने क्या कर दिया है। उन्हें शायद इल्म नहीं कि दुनिया भर में हुई तमाम क्रातियां सबसे पहले कैंपस से ही शुरू हुईं और फिर उस चिन्गारी ने ऐसी विकराल शक्लअख्तियार की कि पूरा देश इसकी चपेट में आ गया और एक से एक बड़े शूरमा तानाशाह इसकी भेंट चढ़ गए। मोदी और शाह ने जिस चिन्गारी को हवा दी है, वह तेजी से पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले रही है। पहली बार ऐसा लग रहा है कि इस फासीवादी सरकार ने अति-विश्वास में उतना बड़ा निवाला मुंह में डाल लिया है, जिसे वह चबा नहीं पा रही।
यह सही है कि छात्र गुणा-भाग करके सड़क पर नहीं निकलते कि इसका परिणाम क्या होगा। दुनिया भर में छात्र राजनीति परिणाम के लिए नहीं बल्कि विचारधारा और गलत को गलत कहने की हिम्मत के लिए होती है। पूरे देश में छात्रों के बीच बेचैनी शायद गांधीजी के उस उपदेश के अनुकूल है कि कर्म महत्वपूर्ण है, न कि कर्म का फल। आपको वही करना चाहिए जो सही है। हो सकता है कि आपके समय में इसका फल न भी मिले। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि आप उचित कर्म करना छोड़ दें। हो सकता है कि आपको कभी पता नहीं चले कि आपके कर्म का फल क्या रहा। लेकिन अगर आपने कुछ नहीं किया तो निश्चित है कि कोई फल नहीं निकलेगा।
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