भारतीय गणतंत्र 71 साल पुराना हो चुका है। यह हमारे लिए गौरव का समय है। लेकिन आज हम इस सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ सकते कि हमारे संप्रभु समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के सामने तमाम चुनौतियां हैं। आज के भारत में संपत्ति के मामले में हम जिस तरह की असमानता देख रहे हैं, वह एक समाजवादी गणराज्य होने के हमारे दावों को मुंह चिढ़ा रही है। विडंबना है कि हमारे समाज का वह समुदाय आज आर्थिक तौर पर सबसे ज्यादा असुरक्षित है जो देश को खाद्य सुरक्षा देता है।
वैसे ही, एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होने के हमारे दावे को संघ परिवार से गंभीर चुनौती मिल रही है। संघ परिवार भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने पर आमादा है और अगर वह कामयाब हो गया तो इस देश में गैरहिंदुओं का दर्जा गैर-बराबरी वाला हो जाएगा और भारत की शक्ल इतनी बदल जाएगी कि उसे पहचानना भी मुश्किल हो जाएगा।
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लेकिन इसके अलावा भी एक गंभीर चुनौती है जिसकी कहीं कोई चर्चा नहीं होती। वह है पड़ोसियों को लेकर हमारे गणतंत्र की बुरी तरह विफल रणनीति। पड़ोसियों से हमारी नीति मोटे तौर पर टकराव वाली ही है। किसी से कम, तो किसी से ज्यादा। दक्षिण एशिया दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला इलाका है। यहां दुनिया की सबसे ज्यादा गरीब आबादी रहती है। देशों के बीच परस्पर सहयोग का स्तर न्यूनतम है। दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) कॉमा में है। भारत और पाकिस्तान के बीच दुश्मनी के कारण 2014 के बाद इस मंच की बैठक नहीं हो सकी है और अब चीन के साथ रिश्तों में आई कड़वाहट के कारण नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका, भूटान और मालदीव के साथ हमारे संबंधों में भी तनाव की स्थिति है।
अफसोस की बात है कि दक्षिण एशिया प्रगति, संपन्नता और मानव कल्याण के मामले में अपनी क्षमताओं के आसपास भी नहीं पहुंच सका है। हमारी आबादी दुनिया में दूसरे नंबर पर है और कुछ दशकों के भीतर हम पहले स्थान पर पहुंच जाएंगे। इस लिहाज से हमें दक्षिण एशिया, एशिया और दुनिया में जो अहम भूमिका निभानी चाहिए थी, हम वह नहीं कर पा रहे हैं। इसकी एक ही वजह है- पड़ोसियों से हमारे संबंधों में समस्याएं ही समस्याएं हैं।
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लेकिन हमें इसकी फिक्र क्यों करनी चाहिए? दुनिया जब 21वीं शताब्दी के तीसरे दशक में प्रवेश कर रही है, विश्व व्यवस्था में बड़ा बदलाव हो रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद कभी इतना बड़ा बदलाव नहीं हुआ। पश्चिम जगत का आर्थिक और राजनीतिक दबदबा तेजी से घट रहा है और नई विश्व व्यवस्था एशिया केंद्रित होती जा रही है। चीन का दुनिया की दूसरी ऐसी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के तौर पर उभरना और जल्दी ही उसका अमेरिका को धकेलकर नंबर-1 की कुर्सी पर काबिज होने की स्थितियों को एशिया केंद्रित विश्व व्यवस्था के ही अंग के तौर पर देखा जाना चाहिए।
ऐसा नहीं कि भारत कुछ भी नहीं। पिछले कुछ दशकों के दौरान हमने तमाम क्षेत्रों में शानदार प्रगति की और आकार ले रही बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में भारत अपने आप में एक महत्वपूर्ण ध्रुव बनता जा रहा है। इसके बावजूद क्षमताओं और जरूरतों के मुकाबले भारत का प्रदर्शन अपेक्षित स्तर से काफी नीचे रहा है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद हमारी आर्थिक वृद्धि धीमी और अनियमित हो गई है। असमानता बढ़ी है। साफ है कि हमारा अपने दो पड़ोसियों के साथ समस्याओं को नहीं सुलझा पाने और उनसे संबंधों को सामान्य बनाने में असफलता का असर हमारे विकास पर तो पड़ा ही, इससे एशिया और दुनिया का विकास भी बाधित हुआ।
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इसमें संदेह नहीं है कि इन समस्याओं में पाकिस्तान और चीन की बड़ी भूमिका है लेकिन हम अपने कंधे उचकाकर सारी जिम्मेदारियों से पल्ला भी तो नहीं झाड़ सकते! भारत के राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग की प्राथमिकताओं में इन समस्याओं की जड़ तक पहुंचने की सार्थक चर्चा और फिर समस्याओं का शांतूपिर्ण समाधान नहीं रहे। राष्ट्रवाद की गलत व्याख्या, विदेश नीति पर आंतरिक सामाजिक-राजनैतिक एकजुटता और बदलती विश्व व्यवस्था में भारत की जगह और उद्देश्यों को लेकर रणनीतिक राष्ट्रीय दृष्टि के अभाव ने इन समस्याओं से निपटने में हमारी सोच और क्षमता को प्रभावित किया है।
यह एक ऐसा विषय है जिस पर राहुल गांधी ने 19 जनवरी की अपनी प्रेस कांफ्रेंस में बड़ी स्पष्टता और प्रभावपूर्ण तरीके से बात रखी थी। हमें यह बात याद रखनी होगी कि भारत, पाकिस्तान और चीन के बीच आज के विवादों की जड़ विरासत में, औपनिवेशिक काल में है। चूंकि तब हमारा नियंत्रण हमारे ही मामलों पर नहीं था, इसलिए समय के साथ तीनों देशों की परस्पर समस्याएं बढ़ती चली गईं।
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पाकिस्तान के साथ हमारी समस्याएं 1947 में अंग्रेजों के जाने और विभाजन से शुरू हुई। दोनों देशों के बीच वैमनस्य का मुख्य कारण कश्मीर है, जो विभाजन का अधूरा एजेंडा बनकर रह गया। कश्मीर विभाजन का अधूरा एजेंडा क्यों है, इसके बारे में भारत और पाकिस्तान की अपनी-अपनी सोच है, जो एक-दूसरे से एकदम अलग है। दोनों ही पूरे कश्मीर को अपना मानते हैं और कोई भी यह समझने को राजी नहीं कि कश्मीर को दोनों देशों के रिश्तों का पुल बनाकर समस्या को हल किया जा सकता है।
हमारे राष्ट्रवाद में यही आधारभूत दोष है। स्वस्थ राष्ट्रवाद को किसी दुश्मन की दरकार नहीं होती। लेकिन दोनों ही देशों में राष्ट्रवाद के तथाकथित ठेकेदारों ने एक-दूसरे को दुश्मन के तौर पर पेश किया है और इन्होंने कश्मीर को इसकी खूनी युद्धभूमि बना दिया है। इसके बावजूद कि हम सदियों से एक ही भू-भाग पर रहे, समान विविधता को सहेजा, अब हम यह सोचने लगे हैं कि भारत और पाकिस्तान की सोच मूलतः एक-दूसरे के विपरीत है। यह मुस्लिम लीग की विषैली सोच थी कि हिंदू और मुस्लिम शांतिपूर्ण तरीके से साथ नहीं रह सकते और उनके लिए अलग-अलग देश होना ही चाहिए।
भारत में आज जो हिंदुत्ववादी ताकतें कर रही हैं, वह बिल्कुल वैसी ही है जो मुस्लिम लीग ने विभाजन के समय किया था। जिस दिन हम यह समझ लेंगे कि भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रवाद समेकित और परस्पर सहयोगी हो सकते हैं, यह भी समझ जाएंगे कि हम दोनों अलग-अलग देश होते हुए भी अच्छे पड़ोसी के तौर पर रह सकते हैं। कश्मीर मामले का हल ऐसा होना चाहिए जो भारत, पाकिस्तान और कश्मीर के लोगों को स्वीकार्य हो।
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चीन और भारत के बीच तनाव का मुख्य कारण सीमा विवाद है, जो एक बार फिर इतिहास का अधूरा बचा काम है। दोनों देशों के सामने 1950 के दशक और 1960 के शुरुआती समय में परस्पर समझ-बूझ से विवाद को सुलझाने का मौका आया लेकिन अफसोस की बात है कि ऐसा हो नहीं सका। जब किसी रोग को बिना उपचार छोड़ दिया जाता है तो यह कभी भी उभरकर सामने आ खड़ा होता है। लद्दाख में दोनों देशों के बीच सैन्य गतिरोध इसका उदाहरण है। पिछले साल जून में 20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने और दोनों देशों में सैन्य टकराव की आशंकाओं ने सीमा विवाद को सुलझाना और भी मुश्किल बना दिया है।
दोनों देशों के नेतृत्व को ठंडे दिमाग से सोचना चाहिए कि क्या सीमा विवाद का सैन्य हल हो सकता है? न तो भारत को युद्ध में हराकर चीन अपने भौगोलिक दावे को हासिल कर सकता है और न ही भारत ऐसा कर सकता है। एक ही रास्ता है, दोनों देश आपस में लगातार बातचीत करके न केवल सीमा विवाद को सुलझाएं बल्कि ऐसा हल निकालें जिसमें दोनों की जीत होती हो।
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किसी भी विदेश नीति की मजबूती की कसौटी पड़ोसियों के साथ विरासत में मिली ऐतिहासिक समस्याओं का समाधान होती है। अफसोस की बात है कि इस मोर्चे पर नरेंद्र मोदी सरकार की नीतियां सिरे से विफल रही हैं। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से भारत-पाकिस्तान और भारत-चीन के रिश्तों में बड़ी गिरावट आई है। यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और मनमोहन सिंह सरकार के दौरान हुई तमाम प्रगति पर पानी फिर गया। मोदी सरकार की अकेली उपलब्धि यही है कि उसने पाकिस्तान और चीन को अपने खिलाफ मजबूती से एकजुट होने का मौका दिया।
इसके अलावा मोदी ने ट्रंप के अमेरिका को क्षेत्रीय मामलों में टांग अड़ाने का भी मौका दिया। हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि मोदी अपनी नीति बदलकर ‘टू फ्रंट पीस’ की पहल करेंगे। दक्षिण एशिया और एशिया के लिए तीनों देशों के बीच शांति जितनी भी जरूरी हो, मोदी तो इन दोनों देशों से शत्रुता की आंच में घोर-राष्ट्रवाद के हथियार पर सान चढ़ाना जानते हैं। इसलिए सभी गैर-भाजपाई ताकतों का यह दायित्व है कि वे भारत-पाकिस्तान-चीन में परस्पर सहयोग के नए दौर के लिए मिलजुलकर काम करें। गांधीजी भी तो यही मानते थे कि इसी से पूरी दुनिया में अमन, शांति और उम्मीद की किरण निकलेगी।
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