अपने ही सरकारी आंकड़ों से भयभीत होना मोदी सरकार की नियति बन गई है और उनको दबाना उसकी मजबूरी। इसका ताजा उदाहरण है केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की 75वीं घरेलू उपभोक्ता सर्वेक्षण रिपोर्ट। इस रिपोर्ट को मोदी सरकार ने यह कहकर खारिज कर दिया कि यह ड्राफ्ट रिपोर्ट है और इस सर्वेक्षण के दौरान जुटाए आंकड़ों और प्रशासनिक स्तर के आंकड़ों में कई तरह की गड़बड़ियां पाई गई हैं। सरकार वित्त वर्ष 2021-22 के लिए इस सर्वेक्षण को पहले से बेहतर तरीके से करने की तैयारी कर रही है।
लेकिन एक बिजनेस अखबार में इस सर्वेक्षण के कुछ अंश छप जाने से काफी बखेड़ा खड़ा हो गया, जिसके कारण मोदी सरकार को इसका खंडन करना पड़ा। इस अखबार के मुताबिक, रिपोर्ट में कहा गया है कि 2011-12 के मुकाबले 2017-18 में हर महीने औसत घरेलू उपभोग में खर्च की गई राशि में औसतन 3.7 फीसदी की गिरावट आई है। 2011-12 में यह खर्च औसत 1,501 रुपये प्रति माह था जो 2017-18 में गिरकर 1,446 रुपये ही रह गया। वहीं ग्रामीण क्षेत्र में यह गिरावट ज्यादा तीखी है और इसमें 8.8 फीसदी की गिरावट आई है। साल 2011-12 में ग्रामीण क्षेत्र में मासिक घरेलू व्यय 1,217 रुपये था जो 2017-18 में गिरकर 1,110 रुपये प्रति महीने रह गया।
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इस घरेलू मासिक व्यय में खाद्य पदार्थों के उपभोग में आई गिरावट तमाम सरकारी दावों और उपलब्धियों की पोल खोल देती है। इस सर्वेक्षण को सरकार द्वारा खारिज कर देने का एक मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि मोदी सरकार ग्रामीण क्षेत्र में आय, मांग और खपत की चिंताजनक तस्वीर को मानने को तैयार नहीं है। यही कारण है कि आर्थिक मंदी से उबरने के लिए उसने कॉरपोरेट जगत को अनेक रियायतें देने की घोषणा की है लेकिन ग्रामीण भारत को कोई राहत अब तक नहीं दी है।
संभवतः यह आजाद भारत के इतिहास में पहली बार है कि इस सर्वेक्षण का डेटा जारी नहीं किया जा रहा है। इस विषय के जानकार लोगों का कहना है कि मोदी सरकार को आधार वर्ष बदलने से किसने रोका है। लेकिन जो सर्वेक्षण हो चुका है, उसका डेटा जारी करने में कौन-सा आसमान टूट रहा है। मतलब साफ है कि जो डेटा सरकार के माफिक नहीं है, उसे सरकार या तो दबा कर बैठ जाती है या खारिज कर देती है या उसके तौर-तरीकों में बदलाव कर देती है। सकल घरेलू उत्पाद में पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार से बेहतर नतीजे दिखाने के लिए उसकी गणना का तरीका ही मोदी सरकार ने 2015 में बदल दिया था, जिससे उत्पन्न विवाद अब तक मोदी सरकार का पीछा नहीं छोड़ रहे हैं।
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असल में प्रधानमंत्री मोदी आसमान से तारे तोड़ कर लाने जैसे असंभव चुनावी वादे करते रहे हैं। मनमोहन सिंह सरकार को नकारा साबित करने की भी उनकी जिद रही है। इन दोनों ने उन्हें अपने ही बुने जाल में फंसा दिया है। प्रधानमंत्री मोदी ने हर साल दो करोड़ नौकरियां देने का वादा 2014 में चुनावों के दौरान किया था जो आज भी उन्हें मुंह चिढ़ा रहा है। वह रोजगार का वादा निभाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। इससे भयभीत होकर उन्होंने रोजगार के आधिकारिक आंकड़ों को नकारना शुरू कर दिया और नौकरियों का वादा छोड़ स्वरोजगार का नया नारा उछाल दिया।
साल 2016-17 के दौरान श्रम ब्यूरो के तिमाही सर्वेक्षणों में मोदी राज में रोजगार की डरावनी तस्वीर उभर कर आई। वह रोजगार देने की होड़ में मनमोहन सिंह सरकार से पिछड़ गई। नतीजतन, मोदी सरकार ने इन सर्वेक्षणों से कन्नी काट ली। केंद्रीय सैंपल सर्वेक्षण संगठन की 2017-18 की रोजगार संबंधी रिपोर्ट बहुत पहले आ गई थी और जिसे उसी अखबार ने छाप दिया जिसने अब घरेलू उपभोग खर्चे के सर्वेक्षण की रिपोर्ट छापी है। उस वक्त भी सरकार ने इस रिपोर्ट को नकारा था जिसके चलते राष्ट्रीय सांख्यि की आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष पीसी मोहनन और एक अन्य सदस्य जे.लक्ष्मी ने इस्तीफा दे दिया था। पर मोदी सरकार ने 2019 के लोकसभा चुनावों के चलते इस रिपोर्ट को जारी नहीं किया क्योंकि उसको भय था कि इस रिपोर्ट से प्रतिद्वंद्वी दलों को मोदी सरकार के कामकाज पर हमला करने का एक बड़ा हथियार मिल जाएगा जो चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकता है।
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मोदी सरकार ने रोजगार पर अपनी उपलब्धियों को गिनाने के लिए कई तिकड़में भी बैठाईं और बढ़ती बेरोजगारी को नकारने की भरपूर कोशिश की। बीजेपी अध्यक्षअमित शाह ने 2017 में कहा कि मुद्रा योजना से 7.28 करोड़ रोजगार पैदा हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी 2019 के लोकसभा चुनावों के पहले दिए एक इंटरव्यू में मुद्रा योजना से 4 करोड़ रोजगार सृजित करने का दावा किया था। लेकिन अब इनकी हवा निकल गई है। संसद में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय कौशल मंत्री महेंद्र नाथ पांडेय ने बताया है कि मुद्रा योजना से 1.1 करोड़ स्वरोजगार पैदा हुए हैं।
मोदी सरकार ने रोजगार संबंधी रिपोर्ट जारी की जिसमें बेरोजगारी दर 6.1 निकली जो पिछले 45 सालों की सर्वाधिक बेरोजगारी दर है। गैर सरकारी अनुमानों के अनुसार, बेरोजगारी दर सरकारी रिपोर्ट से कहीं ज्यादा है। मनमोहन सरकार पर आरोप था कि तब विकास जॉबलेस था, पर मोदी राज में विकास जॉबलॉस साबित हुआ है। एक गैर सरकारी अनुमान के अनुसार, मोदी राज में चार करोड़ रोजगार के अवसर खत्म हुए हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग फॉर इंडियन इकॉनोमी के अनुसार, वर्ष 2018 में 1.10 करोड़ लोगों की नौकरियां चली गई हैं।
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इसके अलावा मोदी सरकार ने जनवरी, 2015 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) गणना का आधार वर्ष 2004-05 से बदल कर 2011-12 कर दिया था और जीडीपी गणना के तौर-तरीकों में बदलाव किया था। लेकिन तरकीब ने अब मोदी सरकार का साथ छोड़ दिया है और जीडीपी विकास दर वित्त वर्ष 2019-20 की पिछली तिमाही में गिरकर 5 फीसदी पर आ गई है जो पिछले पांच सालों में सबसे कम तिमाही विकास दर है। यह तब है जब जीडीपी गणना के तरीकों में मोदी सरकार ने अपने मन माफिक बदलाव किए हैं और कई नए क्षेत्रों को शामिल कर लिया, जिनसे जीडीपी विकास दर में तेज उछाल आने की उम्मीद उसे थी।
मोदी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम का कहना है कि जीडीपी की गणना प्रक्रिया बदलने के कारण जीडीपी आंकड़े ज्यादा हैं और यह वास्तविक तस्वीर नहीं है। सुब्रह्मण्यम का कहना है कि बैंक क्रेडिट की ग्रोथ नकारात्मक है, निर्यात दर भी नकारात्मक है, बेरोजगारी बढ़ रही है, उपभोग खर्च कम हो रहा है, तो जीडीपी दर सात फीसदी कैसे हो सकती है। उनका कहना है कि 2011 से 2017 के दौरान जीडीपी विकास दर को कम-से-कम 2.5 फीसदी बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया गया है। इस अवधि में विकास दर औसत 7 फीसदी की दर से बढ़ने के बजाय औसत 4.5 फीसदी की दर से आगे बढ़ी है।
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लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने फिर दोहराया है कि 2014 से 2019 के बीच औसत जीडीपी विकास दर 7.5 फीसदी रही है। लेकिन अन्य आंकड़े औसत 7.5 फीसदी विकास दर की पुष्टि नहीं करते हैं कि इतनी विकास दर के बावजूद बेरोजगारी 45 सालों के सर्वोच्च स्तर पर क्यों है? उपभोग स्तर क्यों नहीं बढ़ रहा? ग्रामीण क्षेत्र में उपभोग स्तर कम होने के क्या कारण हैं, निवेश दर और घरेलू बचत दर क्यों गिर रही है? आदि-आदि।
पर लगता है कि मोदी सरकार ने अपनी तमाम गलतियों से कोई सबक नहीं लिया है और अब भी उनके मंत्री गलतबयानी से बाज नहीं आ रहे हैं। केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया है कि नोटबंदी के चलते करदाताओं और प्रत्यक्ष कर संग्रह में दोगुनी से अधिक वृद्धि हुई है, जबकि आयकर विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 2016-17 (नोटबंदी का साल) में करदाताओं की संख्या 6.92 करोड़ थी, जो 2018-19 में बढ़कर 8.45 करोड़ हो गई यानी महज 22 फीसदी की वृद्धि। इसी तरह 2015-16 में (नोटबंदी साल के एक साल पहले) प्रत्यक्ष कर संग्रह 7.41 लाख करोड़ रुपये था जो 2018-19 में बढ़कर 11.37 लाख करोड़ रुपये हो गया यानी 53 फीसदी वृद्धि। असल में गलत और भ्रामक बयान मोदी सरकार के लक्षण बन गए हैं। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि लोकतांत्रिक भारत में मोदी सरकार पहली सरकार है जिसका आंकड़ों के नाम से ही दम फूल जाता है और अपने ही सरकारी संस्थाओं के आंकड़ों पर भरोसा नहीं करती है और उनसे भयभीत हो जाती है।
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