अपने ताजा साप्ताहिक धारावाहिक प्रसारण, ‘मनकी बात’ में इस बार प्रधानमंत्री जी ने भारतीय परंपरा में कथा सुनने-सुनाने के महत्व पर हमको काफी बताया। तो चलिए, हम भी आपको एक नेवले की कथा सुना दें जो आप जानते हैं सांप का दुश्मन होता है। और यह भी कि जब गद्दी नशीन युधिष्ठिर ने बड़ा भारी राजसूय यज्ञ कराया तो कहीं से आए एक नेवले ने ही यह कह कर कि वह यज्ञ भाइयों की हत्या से जुड़ा था इसलिए गुणहीन था, सबको चकित कर दिया। अक्सर हमारी कथाओं में छोटे जीव ही वह युग सत्य उजागर कर देते हैं जिसे कहने से दुनियादार बड़े लोग कतराते हैं।
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ऐसे ही एक और नेवले की एक कहानी हमको जैन ग्रंथ ‘रोहिणी जातक’ में भी मिलती है। किसी स्त्री ने एक नेवला पाल रखा था। उसे वह दूध और लप्सी खिला कर अच्छे से रखती थी। एक बार जब वह आंगन में अनाज बीनती थी, उसने अपने बच्चे को खाट से उतार कर जमीन पर लिटा दिया कि वह गिर न जाए और रखवाली को नेवले को बिठा गई। इतने में एक कोबरा को उस बच्चे की तरफ आते देख नेवले ने उसे मार डाला। और यह बात खुश-खुश अपनी मालकिन को बताने गया। नेवले के मुंह पर खून लगा देख कर स्त्री ने सोचा वह उसके बच्चे को मार आया है, सो उसने मूसल से नेवले को मार डाला। जब वह भीतर भागी तो उसने पाया कि बच्चा तो खेल रहा है। बगल में सांप मरा पड़ा है। जल्दबाज औरत सर पीट पछताती रह गई।
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घर-बाहर आलोचकों की उपेक्षा और जल्दबाजी के फैसले भारी पड़ते हैं। घर का मीडिया पालतू बनता गया तो इधर विदेशी मीडिया में मोदी सरकार की छवि प्रशासकीय तौर से शिथिल, विपक्ष तथा आलोचकों को लेकर खुद की और अल्पसंख्यक विरोधी की बनकर उभर रही है। यह चिंता का सबब है- खास कर राजनय और बाहरी निवेश के सिलसिले में। जनवरी, 2019 में लोकसभा चुनावों की पूर्व संध्या पर सरकार की खुद अपनी सांख्यिकीय संस्था ने राज्यवार रोजगार पर जो चौंकाने वाले आंकड़े जारी किए, वे भारत में लगातार बढ़ती बेरोजगारी की चिंताजनक तस्वीर दिखा रहे थे। कई दशकों से विदेशों में भी सराहे जाने वाले सुसंगत डेटा को सूक्ष्मता से गणना के बाद लगातार पेश करती आई संस्था की नकारात्मक रपट पर नीति आयोग ने कहा कि इस बार के सर्वेक्षण आंकड़े सरकार को विश्वसनीय नहीं लगते, अत: उनको खारिज किया जाता है।
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इसके बाद भी पिछली चौथाई सदी से भारत सरकार विश्व स्वास्थ्य संगठन की मदद से क्रमवार तैयार किए जाने वाले राष्ट्रीय सर्वेक्षण (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे) राज्यवार स्वास्थ्य सर्वे से मिली जानकारियों के आधार पर 4 बड़े राज्यवार सर्वेक्षण अब तक दे चुकी है जिनसे उजागर जन स्वास्थ्य विषयक, खासकर महिलाओं और बच्चों के प्रजनन और मृत्यु से जुड़ा डेटा सर्वमान्य है। 2015-16 के चौथे सर्वेक्षण के बाद इसको भी रोक दिया गया। जून की शुरुआत में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने कहा कि भारत में प्रति दस लाख कोविड मरीजों में मरने वालों की औसत दर समुन्नत देशों- यूरोप, रूस या अमरीका के बरक्स काफी कम (11 फीसदी) है। सितंबर के विश्व संगठन के ताजे डेटा से पता चला है कि जून के अंतिम सप्ताह में दक्षिण एशियाई देशों-नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और श्रीलंका, में भारत में कोविड से मरने वालों की दर सबसे अधिक हो गई है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने टेस्टिंग बढ़ाए जाने के बाद मिले आंकड़ों को आधार बना कर मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के सामने (शीर्ष संस्था आईसीएमआर के हवाले से) 23 जून की मीटिंग में रपट रखी जो सरकारी प्रवक्ताओं के, बस अभी खत्म हुई जाती है यह महामारी, वाले वादों को हद तक झुठलाती है।
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विपक्ष और विशेषज्ञों ने बार-बार बिना विचारे नीति बनाने के खिलाफ सरकार को आगाह किया था कि नीति-निर्माता बाबू गण नेतृत्व को खुश करने वाले फैसलों से अंधेरे में तीर फेंक सकते हैं। वही हुआ। जभी टीवी पर झेंपते प्रवक्ताओं और उनके पीछे देश भर में जारी किसानों से लेकर छात्रों तक के आंदोलन की छवियां स्क्रीन पर देख कर हमको लोक कथा के नेवले की याद आ गई। पिछले आधे दशक से किसान अपनी व्यथा सुनाने न जाने कितनी बार दिल्ली या प्रांतीय राजधानियों को भागे गए। पर उनकी कोई सुनवाई नहीं हुई। नोटबंदी ने जब उनका कचूमर बना दिया तो भारी तादाद में कर्ज के मारे किसान या तो किसानी छोड़कर शहर भागे या आत्महत्या करने लगे। पर उस पर ध्यान देने की बजाय मृतकों की राज्यवार तादाद पर डेटा संकलन और सरकार के आपराधिक सेल में अकाल मृत्यु दर्ज करने के पुराने नियम बदल दिए गए ताकि किसानी आत्महत्या के आंकड़े अलग से दर्ज न मिलें। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी! पर अब किसानों को महान कह कर मंदी के बीच भी अधिकाधिक अन्न पैदा करने के लिए महान योगदान देने पर भावुकता की चाशनी में लिपटे जुमले छोड़े जा रहे हैं। यह सच था तो बिना विपक्ष या किसान संगठनों से बातचीत किए मान्य सांसदीय व्यवस्थाओं को परे कर सारे किसानी पेशे को ही आमूलचूल कॉरपोरेट उपक्रम में बदलने वाले तीन महत्वपूर्ण कानून किस लिए आनन-फानन में पास कराए गए? बीजेपी शासित सूबों के किसान भी आज सरकारी नीति के विरोध में क्यों दिख रहे हैं? गुजरात, कर्नाटक, या मध्यप्रदेश के किसान क्यों बार-बार अपनी उपज को सड़कों पर फेंकने को मजबूर हैं?
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अपने वर्चस्व से अति आत्मविश्वासी सरकार संसद ही नहीं, लोकतंत्र के सभी पायों की बाबत अप्रिय सच सामने लाने वाले नेवलों पर कानूनी मूसल चलाती दिख रही है। ईमानदार लोकतांत्रिक प्रतिवाद या सार्वजनिक बहस को सोशल मीडिया, गोदी मीडिया तथा विज्ञापनों की मार्फत प्रति क्रांतिकारी, और देशद्रोह का प्रमाण बताया जा रहा है। इधर कोविड के नाम पर तलघर से निकाले गए औपनिवेशिक युग के महामारी निरोधी कानून के और कठोर बना दिए गए अवतार ने केंद्र को जो अतिरिक्त अधिकार दे दिए हैं उनसे संघीय लोकतंत्र के बावजूद राज्य सरकारों की लोकतांत्रिक हैसियत लगभग नगण्य है।
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नवीनतम नेवला इन दिनों बॉलीवुड का है। एक युवा स्टार की संदिग्ध मौत की जांच से शुरू हुई बात तो पीछे चली गई और मामला प्रतिबंधित मादक पदार्थों से जुड़ गया है। मजे की बात यह, कि इस सिलसिले में दिल्ली से आए राष्ट्रीय मादक द्रव्य निरोधी सरकारी प्रकोष्ठ के दस्ते की तोपें बॉलीवुड की चंद गरीब मक्खियों पर तनी हैं जिनके खिलाफ पुख्ता सबूत तो नहीं आए पर उनके निजी चैट मीडिया में लीक हो रहे हैं। उल्लेखनीय है कि आज देश अभिनेत्रियों के चरस पीने से कहीं भारी समस्याओं से जूझ रहा है। राजनय को ही लें। सच यह है कि अपने तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद चीन दुनिया के सब देशों की तुलना में लगातार हर मोर्चे पर बीस बन चला है। पर इस बाबत सरकारी जेम्स बांडों ने काफी पहले से सच बोलने वाले विशेषज्ञों को ठिकाने लगा दिया। और अब क्रांतिकारी कदमों के फलों की डिलेवरी का काम उनकी कृपा कांक्षी ‘कमिटेड’ नौकरशाही पर छोड़ दिया गया है, जो इधर रिटायरमेंट के बाद राजभवनों या पार्टी टिकट पाने को कुछ ज्यादा ही आतुर दिखती है। पद पर रहते ऐसे सरकारी बड़े बाबुओं से अधिक स्वार्थी, जड़ और गतिहीन आज के भारत में कुछ नहीं। पर हर नए कानून से उनकी पावर बढ़ती जाती है। हर बार चार चक्करदार मुद्दे निकाल कर अपने दफ्तर के सामने जनता को एड़ियां रगड़ते देख (खासकर उसमें यदि स्टार या पूर्व राजनेता भी हों) उनको अनिर्वचनीय सुख मिलता है। सेवानिवृत्त हो कर ऐसे बाबू या मीडियाकार अगर संसद सदस्य बन बैठें, तो बड़ी विडंबना और क्या होगी?
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