हाल में विशाखापट्नम की जिस कंपनी- एलजी पोलीमर्स में गैस का रिसाव हुआ और जिससे 12 से अधिक लोगों की मौत हो गई, सैकड़ों लोग अभी तक अस्पतालों में भर्ती हैं, वह बिना किसी पर्यावरण स्वीकृति के ही चल रहा था। और सबसे खास तो यह बात कि यह तथ्य राज्य सरकार और केंद्र सरकार के सभी संबंधित विभागों को पता भी था।
वैसे, इस तथ्य से कम से कम प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण संरक्षण से संबंधित सरकारी विभागों को नजदीक से जानने वाले लोगों को कतई आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि पूरे देश के बड़े उद्योग और परियोजनाएं ऐसे ही काम करते हैं। साल 2014 के बाद से लगातार पर्यावरण के कानूनों को खोखला करने की कवायद चल रही है और कोविड 19 के दौर में तो पर्यावरण की कब्र ही खोद डाली गई है। अब पर्यावरण स्वीकृति में से केवल स्वीकृति ही बचा है, पर्यावरण पूरी तरह से गायब हो गया है.
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
एलजी पोलीमर्स ने अपनी उत्पादन क्षमता को बढ़ाया और इसके बाद कानूनन उसे पर्यावरण स्वीकृति लेनी थी, पर यह ऐसे ही चलता रहा। अलबत्ता, आंध्रप्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड इसे सहमती देता रहा, पर कभी जानने का प्रयास भी नहीं किया गया कि उसने पर्यावरण स्वीकृति लिया भी है या नहीं। कानूनी तौर पर बिना पर्यावरण स्वीकृति के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड उद्योग चलाने की सहमती नहीं दे सकता, पर ऐसा होता रहा।
फिर, सर्वोच्च न्यायालय के किसी फैसले के बाद और पर्यावरण मंत्रालय की अधिसूचना के बाद दिसंबर 2017 में इस उद्योग ने केंद्रीय सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय में पर्यावरण स्वीकृति के लिए आवेदन किया। आश्चर्य यह है कि केंद्र सरकार ने इस आवेदन को अप्रैल 2018 में आंध्र प्रदेश की पर्यावरण स्वीकृति की संस्था, राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अथॉरिटी को भेज दिया, लेकिन उद्योग को पर्यावरण स्वीकृति तक अपने उत्पादन को स्थगित रखने का निर्देश नहीं दिया। पर्यावरण मंत्रालय का ही निर्देश यह कहता है कि जब तक पर्यावरण स्वीकृति स्वीकृत न हो जाए तब तक आप उद्योग नहीं चला सकते।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
सितंबर 2018 में एलजी पोलीमर्स ने संशोधित आवेदन राज्य के अथॉरिटी को भेजा, उसमें बताया कि उद्योग चल रहा है, फिर भी अथॉरिटी ने भी इसे बंद करने का कोई आदेश नहीं जारी किया। 10 मई 2019 को कंपनी की तरफ से डायरेक्टर ऑपरेशंस, पी पी चन्द्र मोहन राव के हस्ताक्षर से एक एफिडेविट (पत्र संख्या: S & E/EC/2019-01) राज्य पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन अथॉरिटी में जमा किया गया। इस एफिडेविट में कंपनी के इतिहास और उसके उत्पादन क्षमता का विस्तार से वर्णन है और साथ ही यह जानकारी भी है कि उद्योग में उत्पादन वर्ष 2001 से जारी है, पर पर्यावरण स्वीकृति नहीं है।
इस उद्योग से गैस लीक करने के बाद से स्थानीय निवासी इस उद्योग को रिहाइशी इलाके से हटाने की मांग कर रहे हैं और पुलिस की लाठियां भी खा रहे हैं। इस बीच मीडिया रिपोर्ट्स के आधार पर उद्योग के विरुद्ध राष्ट्रीय हरित न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया है, जिस पर एक सुनवाई 8 मई को हो चुकी है और कंपनी को हर्जाने के तौर पर 50 करोड़ रुपये डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के पास जमा करने को कहा गया है। इस आदेश में संबंधित सरकारी विभागों और संबंधित अधिकारियों की भी जिम्मेदारी तय करने की बात कही गई है।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
एनजीटी ने एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया है, जिसे अगली सुनवाई से पहले अपनी रिपोर्ट देनी है। इस कमेटी में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के अवकाशप्राप्त न्यायाधीश, आंध्र यूनिवर्सिटी के पूर्व उपकुलपति और केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रमुख, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सदस्य सचिव, इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ केमिकल टेक्नोलॉजी के निदेशक और नीरी के विशाखापत्तनम कार्यालय के प्रमुख हैं।
आश्चर्य यह है कि कमिटी के लिए जो एजेंडा एनजीटी की तरफ से तय किया गया है, उसमें इस उद्योग से केवल गैस लीक का मामला और उसका प्रभाव शामिल है। उद्योग में प्रदूषण नियंत्रण के उपकरण की उपलब्धता, पर्यावरण संरक्षण के उपाय और फिर प्रदूषण और पर्यावरण से संबंधित सभी नियम, कानूनों का अनुपालन, या फिर एक खतरनाक रसायनों वाला उद्योग उस जगह पर स्थापित रहने लायक है भी या नहीं इत्यादि विषय इस एजेंडा से गायब हैं।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
एनजीटी का यह एक तरीका है, जिससे लगना चाहिए कि उसे भी पर्यावरण की और लोगों की चिंता है। इस आदेश को खूब प्रचारित किया गया, जिससे एनजीटी पर जनता का विश्वास बना रहे। पर, यह सारी सख्ती एक-दो सुनवाई तक रहती है। फिर महीनों बाद जो अंतिम आदेश आता है, वह निश्चित तौर पर उद्योग के पक्ष में ही रहता है। तमिलनाडू के तूतीकोरिन स्थित वेदांता समूह के स्टरलाईट कॉपर पर एनजीटी के फैसले से सभी वाकिफ हैं।
स्टरलाईट कॉपर से प्रदूषण के खिलाफ आंदोलन कर रहे 13 लोगों को गोलियों से भून दिया गया था, पर एनजीटी, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को इस उद्योग से कहीं कोई प्रदूषण नजर नहीं आया और इस उद्योग को चलाने की अनुमति दे दी गई। इस बार भी ऐसा ही होने की उम्मीद है, गैस का रिसाव सबने देखा और इसके लिए 50 करोड़ वसूले गए, बस इतना ही होगा। इस उद्योग द्वारा पर्यावरण कानूनों की अवहेलना से संबंधित सवाल अब ना तो कोई पूछेगा और ना ही कोई जवाब मिलेगा।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
देशव्यापी लॉकडाउन के दौर में भी केंद्र सरकार के किसी एक मंत्रालय ने अपना नियमित से भी अधिक काम किया है, तो वह है पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय। सामान्य दिनों से अधिक काम इस मंत्रालय ने इसलिए नहीं किया कि उसे पर्यावरण की चिंता है, बल्कि इसलिए किया कि उसे उद्योगपतियों की चिंता है। जितनी भी बड़ी परियोजनाओं को सामान्य स्थितियों में पर्यावरण स्वीकृति के समय स्थानीय जनता और पर्यावरणविदों के विरोध का सामना करना पड़ता, उन सभी परियोजनाओं को आनन-फानन में मंत्रालय ने पर्यावरण स्वीकृति प्रदान कर दी, या फिर ऐसा करने की तरफ बढ़ रहे हैं।
मंत्रालय में पर्यावरण स्वीकृति के लिए जो एक्सपर्ट एप्रेजल कमेटी है, उसकी सामान्य स्थितियों में नियमित बैठक होती या न होती हो पर लॉकडाउन के दौर में विडियो कांफ्रेंसिंग द्वारा नियमित बैठकें की गईं और पर्यावरण का विनाश करने वाले लगभग सभी खनन परियोजनाओं, उद्योगों और जल-विद्युत परियोजनाओं को मंजूरी दे दी गई। इस दौर में तो न पब्लिक हियरिंग का झंझट है और न ही स्थल पर किसी विस्तृत अध्ययन का। कोविड-19 की आड़ में सब माफ कर दिया गया।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
पर्यावरण से संबंधित विशेषज्ञ कांची कोहली के अनुसार, इस दौर में मंत्रालय ने ऐसे काम किया मानो कोई हेल्थ इमरजेंसी नहीं हो, लगातार बैठकें होतीं रहीं और पर्यावरण का विनाश करने वाली अधिकतर परियोजनाओं को स्वीकृति दे दी गई। इस दौर में एक एलीफैंट रिजर्व में कोयला खदान को अनुमती दी गई, वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी में ड्रिलिंग की अनुमति दी गई और प्रधानमंत्री के पसंदीदा सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट, जिसके अंतर्गत नया संसद भवन और दूसरे भवन बनाने हैं को भी मंजूरी दे दी गई। वन्यजीवों और जनजातियों के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण दिबांग घाटी में 3097 मेगावाट के जल विद्युत् परियोजना और मध्य प्रदेश में टाइगर रिजर्व के बीच यूरेनियम के खनन परियोजना को भी जल्दी ही स्वीकृति मिलने वाली है।
साल 2014 से लगातार पर्यावरण कानूनों को पहले से अधिक लचर करने की कवायद लगातार की जा रही है। 23 मार्च को फिर से मंत्रालय ने पहले के पर्यावरण स्वीकृति के नियमों में ढील देने से संबंधित एक ड्राफ्ट प्रकाशित किया है, इसमें जन-सुनवाई का समय कम करने, अनेक उद्योगों को जनसुनवाई के दायरे से बाहर करने, इत्यादि का प्रस्ताव है। कुल मिलाकर एक ऐसी स्थिति बहाल करने का प्रयास किया जा रहा है, जिसमें जनता की भागीदारी खत्म की जा सके।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
इस ड्राफ्ट को प्रकाशित भी 23 मार्च को सोच समझ कर किया गया होगा, 22 मार्च को जनता कर्फ्यू था और 24 मार्च से लॉकडाउन का प्रथम चरण शुरू किया गया था। पर्यावरण मंत्रालय ने सोचा होगा कि परेशान जनता इसे नहीं देखेगी और फिर 60 दिनों बाद इसे ही कानून बना दिया जाएगा। पर, पर्यावरणविदों के विरोध के बाद अब इसपर सुझाव/शिकायत की तारीख बढ़ाकर 30 जून कर दिया गया है।
जाहिर है, इस सरकार के लिए पर्यावरण संरक्षण कोई मुद्दा नहीं है, जनता कोई मुद्दा नहीं है और वन्य जीव भी कोई मुद्दा नहीं हैं। यह सरकार पहले दिन से कुछ चुनिंदा उद्योगपतियों के हितों को साध रही है और निकट भविष्य में कोई बड़ा बदलाव होगा, ऐसी उम्मीद नहीं है।
Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST
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Published: 17 May 2020, 9:00 AM IST