खाद्य तेलों की बढ़ती कीमतों और आयातों पर बढ़ती निर्भरता से देश परेशान रहा है। ऐसे में उम्मीद थी कि केंद्र सरकार इस मुश्किल से राहत दिलाने की कोई बड़ी कोशिश जल्द ही करेगी। अंत में 18 अगस्त को आखिर केंद्रीय मंत्रिमंडल ने खाद्य तेलों का घरेलू उत्पादन बढ़ाने की नई 11040 करोड़ रुपए की योजना सामने रख ही दी। पर यह घोषणा देश के तिलहन किसानों के लिए कोई बड़ी उम्मीद लेकर नहीं आई है। वजह स्पष्ट है कि यह परंपरागत तिलहनों पर आधारित नहीं है कि बल्कि पाल्म आयल के वृक्षों पर आधारित है।
जैसा कि सर्वविदित है भारत में अनेक प्रमुख तिलहनों की समृद्ध विरासत रही है। जैसे मूंगफली, सरसों, तिल, नारियल आदि। इनके और कपासिया तेल के अतिरिक्त पर्वतीय व आदिवासी क्षेत्रों के साथ ही अन्य क्षेत्रों के अपने अन्य विशेष तौर पर पौष्टिक तिलहन व तेल भी प्रचलित रहे हैं।
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सवाल यह है कि इतनी समृद्ध विरासत के बावजूद हम आयातों पर इतने निर्भर क्यों हो गए हैं। इसकी वजह है फसल-चक्रों में उल्टे-सीधे बदलाव व किसानों के प्रति अन्याय। खाद्य-तेल क्षेत्र का विकास इस तरह हुआ कि किसान से अन्याय होता रहा। सस्ते तेल आयात कर हाईड्रोजनेशन पद्धति से सस्ता तथाकथित वनस्पति तैयार किया गया जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक था व जिसका चलन बढ़ने से किसानों के लिए बाजार में उचित कीमत हासिल करना बहुत कठिन हो गया। तिस पर परंपरागत तिलहनों की विरासत के स्थान पर सरकार ने गैर परंपरागत, बाहरी तिलहनों पर अधिक जोर दिया व इस कारण देश के तिलहन किसानों की परंपरागत कुशलता व ज्ञान के उपयोग में बाधा उत्पन्न कर दी। जी.एम. या बीटी कपास को लाकर कपासिया तेल के लिए स्वास्थ्य समस्या उत्पन्न कर दी।
जहां जरूरत इस बात की थी कि इन सब विसंगतियों को दूर कर देश की तिलहन विरासत को समृद्ध किया जाए वहां केंद्र सरकार इन विसंगतियों को और तेजी से बढ़ाने वाली है। इस नई स्कीम में सबसे अधिक जोर पाल्म तेल देने वाले वृक्ष की खेती को बढ़ाने पर है। पाल्म फल से प्रति एकड़ अधिक तेल प्राप्त है व यह तेल सस्ता पड़ता है अतः सरकार का दावा है कि इससे आयात कम होंगे व उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी। यदि सरकार के दावे सही भी निकले तो अभी इन वृक्षों को लगाने व बड़े होने में समय लगेगा, जबकि परंपरागत तिलहन फसलों के उत्पादन को और शीघ्रता से बढ़ाना संभव है।
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मान लीजिए कि सरकार की योजना सफल होती है व पांच-छः वर्ष बाद पाल्म तेल की बहुत अधिक व सस्ती उपलब्धि देश में (घरेलू उत्पादन के स्तर पर) हो जाती है। जरूरी बात है कि जो तेल सबसे सस्ता होगा तो हाईड्रोजनेशन या वनस्पति उत्पादन वाले व स्नैक फूड बनाने वाले भी उसका ही अधिकतम उपयोग करेंगे। इस स्थिति में परंपरागत तिलहनों जैसे मूंगफली, तिल, सरसों और नारियल के तेल के बाजार पर क्या असर पड़ेगा?
इन तिलहनों के किसानों को जो पहले ही न्यायसंगत कीमत प्राप्त करने में कठिनाई होती है, उनकी स्थिति उस समय क्या होगी जब पाल्म आयल का देश में उत्पादन बहुत बढ़ जाएगा? जब सरकार का अधिक ध्यान पाल्म आयल व सोयाबीन आधारित खाद्य तेल व्यवस्था बनाने में लगा होगा, तो इन परंपरागत तिलहनों की विरासत बचाने में वह कितना ध्यान दे पाएगी?
यदि इन परंपरागत तिलहनों की प्रगति अवरुद्ध हो गई तो इसका देश के पोषण, खेती-किसानी व पशु-पालन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ेगा। इनमें पौष्टिक तत्त्वों से भरपूर खाद्य तेल ही नहीं मिलते हैं, मूंगफली, सरसों का साग, नारियल का पानी व गिरी, तिल जैसे अनेक अन्य पौष्टिक खाद्य मिलते हैं। शुद्ध रूप में प्राप्त इन तेलों के औषधि उपयोग भी हैं। इनसे पशुपालन व डेयरी के लिए पौष्टिक खली मिलती है। कुटीर व लघु स्तर पर तेल निकाला जाए तो इनसे जुड़ी आजीविकाएं और तेजी से बढ़ सकती हैं।
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अतः जरूरत तो इस बात की है कि इन परंपरागत तिलहनों व उनके किसानों को प्रोत्साहित किया जाए पर सरकार दूसरी ही राह पर चल पड़ी है। पाल्म आयल की प्रोसेसिंग बहुत बड़े प्लांटों व बड़ी मशीनों में होती है व खाद्य तेल की बड़ी कंपनियां इससे जुड़ी हैं। जैसा कि किसान आंदोलन ने भी बार-बार कहा है, मौजूदा सरकार किसानों के हितों की जगह एग्री बिजनेस यानि कृषि उत्पादों की कंपनियों को बढ़ावा देती है व तिलहन क्षेत्र में भी वह इसी राह पर चल पड़ी है। जिस पाल्म आयल की राह पर वह तेजी से बढ़ना चाहती है, अभी तक विश्व स्तर पर उसके दो मॉडल अधिक चर्चित रहे हैं।
पहले मॉडल में वन काट कर पाल्म आयल फल के पेड़ लगाए जाते हैं। इस कारण इंडोनेशिया जैसे देशों में वनों, पर्यावरण व मिट्टी की बहुत तबाही हुई है। दूसरे मॉडल में अधिक सिंचाई, रासायनिक खाद, कीटनाशक व अन्य दवाओं की मदद से इनके प्लांटेशन (मोनोकल्चर) बड़े क्षेत्र में लगाए जाते हैं। यहां पहले से लगाई जा रही खाद्य फसलों व उर्वरता का ह्रास हुआ है, जल व मिट्टी संकट बढ़ा है।
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एक तीसरा मॉडल अभी चर्चा में है कि इससे होने वाली पर्यावरण की क्षति को कैसे दूर किया जाए। यह अभी प्रयोगात्मक स्थिति में है। इसके पोषण गुण भी विवादों में रहे हैं। अतः अभी इसे तेजी से नहीं बढ़ाना चाहिए अपितु प्रयोगात्मक स्तर पर धीरे-धीरे परखना चाहिए। मुख्य ध्यान परंपरागत तिलहन फसलों विशेषकर मूंगफली, सरसों, तिल व नारियल पर केंद्रित करना चाहिए। इन पर भी बड़े बिजनेस की निगाह है व सरसों की जीएम फसल भारत में फैलाने का भरपूर कुप्रयास किया गया जिसे बड़ा अभियान चला कर रोका गया। आदिवासियों व पर्वतीय क्षेत्रों के तिलहनों, अन्य उपयोगी व विशिष्ट गुणों वाले तिलहनों की विरासत की भी रक्षा करनी चाहिए।
सरकार ने पाल्म आयल किसानों को वायदा किया है कि उन्हें न्यायसंगत कीमत हर स्थिति में सुनिश्चित होगी। उसे ऐसा वायदा सरसों, मूंगफली तिल व नारियल के किसानों से भी करना चाहिए। पाल्म आयल वृक्षों को सबसे अधिक उत्तर पूर्व राज्यों व अंडमान निकोबार द्वीप समूह में बढ़ाने के लिए सरकार ने कहा है। यह क्षेत्र पर्यावरण व जैव विविधता की दृष्टि से विशेष तौर पर संवेदनशील है। अतः यहां पाल्म आयल के वृक्ष को तेजी से फैलाने से पहले उसे इसके सभी पक्षों पर व्यापक विमर्श पर्यावरणविदों व स्थानीय किसानों से करना चाहिए।
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