हाल ही में नोटबंदी का दो वर्ष पूरा होने पर इसकी पुनः समीक्षा हुई तो सरकारी पक्ष को छोड़ व्यापक सहमति इसी निष्कर्ष पर बनी कि नोटबंदी पूरी तरह विफल रही। जनसाधारण को महीनों तक तरह-तरह से परेशान करने के साथ यह और भी कई अधिक दीर्घकालीन समस्याएं देश और अर्थव्यवस्था के लिए छोड़ गई, जिन्हें हम आज तक भुगत रहे हैं।
इस बारे में एक व्यापक सवाल यह बना हुआ है कि एक बहुत बड़े और अपेक्षाकृत परिपक्व लोकतंत्र में, जहां विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की कोई कमी नहीं है, एक इतने अधिक दुष्परिणामों की संभावना वाला ऐसा कदम उठाया गया जिसका अर्थशास्त्रीय सोच में कोई आधार ही नहीं नजर आ रहा है। 125 करोड़ लोगों की अर्थव्यवस्था में 86 प्रतिशत मूल्य की मुद्रा को एक झटके में रद्द कर देना कोई मामूली बात नहीं है, और यह घोर आश्चर्य की बात है कि इतने विशेषज्ञों के होते हुए इतना बड़ा कदम इसके अल्पकालीन और दीर्घकालीन दुष्परिणामों के उचित आकलन के बिना उठा लिया गया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यदि पहले से उचित और निष्पक्ष अध्ययन और आकलन करवाया जाता तो इस तरह की नोटबंदी के विरुद्ध विशेषज्ञों को स्पष्ट राय अवश्य मिल जाती, पर इसकी जरूरत ही नहीं समझी गई और चंद व्यक्तियों के बहुत अधूरे, अधपके, तथ्यविहीन और जल्दबाजी के विमर्श के आधार पर यह निर्णय ले लिया गया।
एक परिपक्व लोकतंत्र और शासन-व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान यह होती है कि इसमें बड़ी गलतियों को रोकने की स्थापित क्षमता होती है। किन्तु यदि इस स्थापित क्षमता की अवहेलना की जाए तो बड़ी गलतियों को रोका नहीं जा सकता है। नोटबंदी की निर्णय प्रक्रिया में ऐसा ही हुआ और उसके गंभीर दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं।
अर्थव्यवस्था के मामले में इस तरह की गलतियां होने की संभावना उस समय और बढ़ गई जब योजना आयोग को बहुत जल्दबाजी में, बिना पर्याप्त विमर्श के भंग कर दिया गया। इससे और पंचवर्षीय योजनाओं की प्रक्रियाओं को रोकने से देश की अर्थव्यवस्था की बहुत बड़ी क्षति हुई है और अर्थव्यवस्था को उचित दिशा देने की क्षमता को बहुत नुकसान पंहुचा है। यह उन ताकतों के हित में है जो निर्णय प्रक्रियाओं को चंद व्यक्तियों में केन्द्रित कर देना चाहती हैं। इससे शक्तिशाली स्वार्थों को लाभ पहुंचता है और अर्थव्यवस्था ‘क्रोनी कैपिटेलिज्म’ अथवा याराना पूंजीवाद की ओर बढ़ती है।
एक अन्य प्रवृत्ति हाल के समय में यह देखी गई है कि चाहे देश और दुनिया के स्वतंत्र अध्ययन और विशेषज्ञ कुछ भी कहें, अपनी किसी गलती को सीमित रूप में भी स्वीकार करने के लिए केन्द्र सरकार तैयार नहीं है। पर यदि गलती को स्वीकार ही नहीं किया जाता है, तो सुधार कैसे होगा? सुधार के स्थान पर गंभीर गलती को सही सिद्ध करने के लिए नए-नए औचित्य खोजे जाते हैं, जैसा कि नोटबंदी के संदर्भ में भी हुआ। पर किसी भी हालत में गलती न मानने की प्रवृत्ति और गंभीर भूल को किसी तरह महान उपलब्धि सिद्ध करने की प्रवृत्ति का एक बहुत प्रतिकूल असर यह होता है कि गलती को ठीक करने की नीतियां उपेक्षित रह जाती हैं।
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अब यदि अर्थव्यवस्था से बाहर के क्षेत्र में आएं तो पर्यावरण रक्षा के नियंत्रण में जो व्यवस्थाएं पहले प्राप्त की गई थीं, उनसे देश मोदी सरकार के काल में आगे बढ़ने के स्थान पर कहीं पीछे हटा है। उचित नियोजन के अभाव में समस्याएं पहले तेजी से बढ़ती हैं और फिर अदालती आदेश आने पर या संकट की स्थिति उत्पन्न होने पर अचानक ऐसी कार्यवाही होती है जो अनुकूल परिणाम नहीं दे पाती हैं और कई बार तो नई समस्याएं भी उत्पन्न करती हैं।
भ्रष्टाचार नियंत्रण के तमाम वादों के बावजूद भ्रष्टाचार नियंत्रण और पारदर्शिता की व्यवस्थाएं मोदी सरकार के समय में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक कमजोर हुई हैं। जहां लोकपाल का चर्चित मुद्दा उपेक्षित रहा, वहां सूचना के अधिकार को तरह-तरह से कमजोर किया गया। उधर सीबीआई का जो हाल हुआ है, वैसा तो पहले कभी नहीं हुआ और न किसी ने ऐसा सोचा भी था कि गिरावट यहां तक आएगी। हालांकि यहां के सुलगते विवादों की जानकारी पूरी तरह सरकार के पास थी, तो भी समय रहते समाधान के कदम नहीं उठाए जा सके।
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