विचार

आकार पटेल का लेख: क्या राजनीतिक विजय को सरकार की सफलता माना जा सकता है? मोदी सरकार की बात करें, तो जवाब है नहीं...

केंद्र में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार की सफलता का पैमाना क्या राज्यों में राजनीतिक विजय को माना जा सकता है। सरकार की सफलता तो देश की आर्थिक, सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी हुई है। इन मोर्चों पर तो सरकार के कामकाज को लेकर ही सवालिया निशान हैं।

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इस महीने इस बात को पूरे दो साल हो जाएंगे जब सरकार अपने रास्ते से भटक गई। दिसंबर 2019 से दिसंबर 2021 के बीच एक अजीब सी बात यह भी हुई कि मोदी सरकार को लगता रहा कि वह बहुत अच्छा काम कर रही है और अपने चरम पर है।

सरकार ने इन दो सालों में उन तीन मुद्दों को या कहें कि अपने एजेंडा के उन तीन तत्वों को मूर्तरूप दिया जिसके लिए वह दशकों से प्रचार-प्रसार कर रही थी। पहली अगस्त 2019 में सरकार ने तीन तलाक को अपराध घोषित कर दिया। हालांकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही तीन तलाक को अवैध घोषित कर चुका था, और सरकार को इसके लिए कानून बनाने की जरूरत नहीं थी, लेकिन फिर भी सरकार ने ऐसा किया।

चार दिन बाद ही 5 अगस्त 2019 को सरकार ने कश्मीर से बची-खुची स्वायत्ता भी छीनते हुए अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया। वैसे इसी साल कुछ समय पहले बालाकोट एयर स्ट्राइक के नाम पर सरकार ने मान लिया था कि राष्ट्रीय सुरक्षा की उसकी समस्या खत्म हो गई है।

9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विवाद में तीन दशक पुराने मुकदमे में हिंदु समूहों के पक्ष में फैसला सुना दिया। 11 दिसंबर को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद को बताया कि सरकार देश में एनआरसी यानी नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर बना रही है और इससे पहले सरकार ने सीएए यानी नागरिकता संसोधन कानून पास कर दिया।

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दिसंबर 2019 की ही 15 तारीख को शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन शुरु हुआ जो इस पक्षपात करने वाले कानून के खिलाफ देश भर में विरोध का प्रतीक बना।

इस सबके बाद भी सरकार अपने एजेंडा को लागू नहीं कर पाई, और यह अजीब सी बात थी। तो फिर यह देखना दिलचस्प है कि शाहीन बाग से महीनों पहले के हालात से इसकी तुलना की जाए। निस्संदेह वापसी का पहला कदम सरकार ने यह उठाया कि एनआरसी को ठंडे बस्ते में डाल दिया। देश भर की तमाम विधानसभाओं ने एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव पास किए थे। इसमें सबसे आखिर में बिहार विधानसभा थी जिसने फरवरी 2020 में इसे खिलाफ प्रस्ताव पास किया। ध्यान रहे कि बिहार विधानसभा में बीजेपी विधायकों ने भी अमित शाह के उस वादे खिलाफ प्रस्ताव पारित किया जो उन्होंने संसद में किया था।

शाहीन बाग का प्रदर्शन अगले महीने खत्म हो गया, लेकिन जीत हासिल हो चुकी थी। दिल्ली में हुए दंगे और अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा जैसे नेताओं के बयानों से स्पष्ट था कि इस सबसे बीजेपी को अंदर ही अंदर कितनी तकलीफ हुई है। मार्च आते-आते देश में कोरोना महामारी शुरु हो गई और बिना पूर्व तैयारियों और विचार-विमर्श के लगाए गए देशव्यापी लॉकडाउन ने देश की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया। प्रति व्यक्ति जीडीपी बांग्लादेश से भी पीछे हो गई, वित्ती घाटा बेकाबू हो गया और घबराई सरकार ने शासन चलाने की भरपाई के लिए आम लोगों पर पेट्रोल-डीजल में बेतहाशा एक्साइज ड्यूटी का बोझ डाल दिया।

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वित्त वर्ष 2020-21 में पूरे साल देशव्यापी लॉकडाउन का असर नजर आया और अर्थव्यवस्था अभी भी इससे पूरी तरह उबर नहीं सकी है।

महामारी के दौरान 23 करोड़ भारतीय गरीबी में गिर गए और बेरोजगारी ने अपने चरम पर पहुंचते हुए 1947 के बाद के सबसे निचले आंकड़े 6 फीसदी को छू लिया। वैसे यह आंकड़ा 2018 में ही पहुंच चुका था।

जून 2020 में सरकार ने बिना चर्चा और बिना मत विभाजन के संसद से तीन कृषि कानून पास करा लिए। इसके खिलाफ किसान दिल्ली की सरहदों पर पहुंच गए और नवंबर से शुरु हुआ उनका आंदोलन आज भी जारी है। हालांकि सरकार ने इन कानूनों को वापस ले लिया है, लेकिन एमएसपी की गारंटी का मुद्दा अभी भी इसके सामने समस्या बनकर खड़ा है। सरकार के लिए परेशानी का सबब यह भी है कि किसानों का विरोध प्रदर्शन पश्चिम उत्तर प्रदेश में अधिक मुखर रहा, और अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं।

इसी साल यानी 2021 में जो बाइडेन ने नरेंद्र मोदी के मित्र डोनल्ड ट्रम्प को हराकर अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली। इस दौरान जापान के शिंजो आबे जैसे मोदी के अन्य मित्रों की भी विदाई हो चुकी थी।) कुछ दिन बाद भारत ने कश्मीर में 17 महीने से जारी इंटरनेट प्रतिबंध को खत्म किया, माना जा रहा है कि ऐसा बाइडेन की लोकतांत्रिक मूल्यों वाली राजनीति के दबाव में किया गया।

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मई 2020 में भारत को बताया गया कि चीन ने आक्रामक रुख अपना लिया है और उसकी सेना लद्दाख में घुस आई है। पिछले साल 15 जून को दोनों तरफ के सैनिकों के बीच खूनी झड़प हुई और इसमें 20 भारतीयों की जान गई। सीमा पर तनाव के हालात के बीच ही भारत ने पाकिस्तान की तरफ नियंत्रण रेखा पर अचानक शांति जैसी स्थिति पैदा और दसियों हजार सैनिकों को चीन की तरफ शिफ्ट किया। और सरकार ने बालाकोट एयरस्ट्राइक के बाद राष्ट्रीय समस्या को खत्म मान लिया था, वह वहीं की वहीं खड़ी रही। भारतीय नौसेना की अमेरिका और अन्य दो देशों के साथ साझा अभ्यास को भी कम कर दिया गया। ऐसा तब हुआ जब अमेरिका ने यूके और ऑस्ट्रेलिया के साथ पूर्ण अभ्यास का ऐलान किया।

कश्मीर समस्या भी अभी तक पूरी तरह सुलझा हुई साबित नहीं हुई है। राज्य में ज न तो लोकतंत्र है और वहां के नागरिक बिना किसी सरकार के रह रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक वहां हिंसा में भी कोई कमी नहीं आई है। इसके उलट वहां की आबादी पहसे अधिक दबाव में रह रही है। दरअसल पाकिस्तान के साथ सीमा पर तनाव और कश्मीर में घुसपैठ रोकने के लिए तैनात सेना को अब चीन के साथ भी लोहा लेना पड़ रहा है।

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प्रधानमंत्री और उनकी सरकार मौजूदा आर्थिक नर्मी से कैसे उबरेगी, इसका कोई अतापता नहीं है। इस साल माना जा रहा है कि अर्थव्यवस्था में 8 फीसदी की वृद्धि होगी, तो भी यह अपने उसी स्तर पर पहुंचेगी जहां महामारी से पहले थी और सुस्त पड़ी थी।

हो सकता है कि बीजेपी यूपी चुनाव जीत जाए लेकिन वह सिर्फ एक राजनीतिक जीत होगी और देश अर्थव्यवस्था से लेकर राष्ट्रीय सुरक्षा और परेशान किसानों और अल्पसंख्यकों की समस्या से दोचार ही रहेगा।

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