इस बार का संसद का मॉनसून सत्र पिछले 20 साल में सबसे छोटा रहा। राज्यसभा का सत्र 14 सितंबर को शुरू होकर 23 सितंबर को संपन्न हुआ और 1952 के बाद यह इस सदन का दूसरा सबसे छोटा काल था। दस दिनों में रोजाना चार घंटे का सत्र रहा जबकि लोकसभा का सत्र 52 घंटे से भी अधिक चला और कई बार इसकी बैठक शाम 7 बजे के निर्धारित समयके बाद भी चली और दो बार तो मध्य रात्रि तक। बहरहाल, इस छोटे सत्र में 25 बिल पास किए गए। हर के हिस्से अमूमन एक घंटे का समय आया। 1.37 अरब लोगों की जिंदगी पर व्यापक प्रभाव डाले वाले इन कानूनों को बिना किसी सोच विचार के मंजूर कर लिया गया। राज्यसभा के आठ सदस्यों को निलंबित करने और उपसभापति द्वारा मत विभाजन की अनुमति नहीं दिए जाने के खिलाफ विरोध जताते हुए विपक्ष ने अंतिम कुछ सत्रों का बहिष्कार किया। स्थिति यह रही कि राज्यसभा में अंतिम दो दिनों के भीतर 15 बिल पास हुए और खाली सदन में एक बिल पर चर्चा की औपचारिकता प्रतिबिल लगभग आधे घंटे के समयमें पूरी कर ली गई।
मॉनसून सत्र को जून में शुरू होकर सितंबर तक चलना था। लेकिन कोविड के कारण इसमें देरी हुई और चूंकि संवैधानिक बाध्यता है कि संसद के दो सत्रों के बीच अधिकतम अंतराल छह माह ही हो सकता है, मॉनसून सत्र को सितंबर खत्म होने से पहले बुलाना ही था। प्रश्न काल को खत्म करके और शून्य काल को आधा करके इस संवैधानिक बाध्यता को पूरा किया गया। बहरहाल, सोचने वाली बात यह है कि इस संक्षिप्त संसद सत्र के दौरान प्रधानमंत्री के पास डिजिटल रैलियों को संबोधित करने का तो समय था, लेकिन देश के मन में उठ रहे अहम सवालों का जवाब देने का उनके पास समय नहीं था। जरा याद करें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के उस बयान को जिसमें उन्होंने स्वीकार किया कि चीन ने घुसपैठ करके वास्तविक नियंत्रण रेखा को बदल डाला है और उसके कब्जे में भारत का 38 हजार वर्गकिलोमीटर क्षेत्र है। वहीं प्रधानमंत्री मोदी ने जून में सर्वदलीय बैठक में साफ कहा था कि भारत की एक भी इंच जमीन पर किसी ने कब्जा नहीं किया है। फिर राजनाथ के बयान का मतलब? क्या प्रधानमंत्री को इस मामले पर संसद को बताना नहीं चाहिए था कि आखिर उनके कहने का मतलब क्या था? संसद को यह भी बताने की जहमत नहीं उठाई गई कि आखिर गलवान घाटी में कैसे 20 भारतीय सैनिक शहीद हो गए। चीन के साथ सीमा पर भारतीय आक्रामकता के आर्थिक दुष्प्रभावों और इसके कारण भारत-चीन व्यापार के भविष्य पर पड़ने वाले असर के बारे में भी संसद में कोई बात नहीं की गई।
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मॉनसून सत्र के दौरान ही देश में कोविड से मरने वालों की संख्या 91 हजार को पार करती है और संक्रमितों की तादाद 50 लाख से अधिक हो जाती है लेकिन इस आपदा पर भी चर्चा करने का सरकार के पास समय नहीं था। स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन ने बस एक बयान में सरकार के कदमों को सही ठहराते हुए यह दावा किया कि सरकार की कोशिशों के कारण 78 हजार मौतों को टाला गया और 20 लाख संक्रमण के मामलों को होने से रोका गया। लेकिन इसे छोड़कर और कोई बात नहीं हुई। संसद के पास इस बात पर चर्चा के लिए कोई वक्त नहीं था कि सरकार ने किस तरह महामारी और इसके प्रभाव को ठीक तरीके से हैंडल नहीं किया। यह भी आश्चर्यजनक ही है कि सरकार ने अहम आंकड़ों को दबा लिया और बड़ी ही ढीठता के साथ दावा किया कि उसके पास न तो इस बात का कोई आंकड़ा है कि कोविड के कारण कितने लोगों की नौकरियां गईं, न इस बात का कि लॉकडाउन के बाद जान बचाने के लिए पैदल ही अपने-अपने घरों के लिए निकल पड़ेप्रवासियों में से कितनों की मौत हो गई और न इस बात का कि कितने किसानों ने आत्महत्या कर ली। इसी के कारण कांग्रेस सांसद शशि थरूर को व्यंग्यात्मक लहजे में यह कहना पड़ा कि एनडीए का नया मतलब तो स्पष्टतः ‘नो डाटा एवलेबेल’ हो गया है।
गौर करने वाली बात है कि एक सवाल के लिखित जवाब में सरकार ने कहा था कि अप्रैल से जून के दौरान सड़क हादसों में 29 हजार लोगों की मौत हुई। लेकिन यह तो वो समय था जब पूरी तरह लॉकडाउन था और शहरी सड़कों समेत राजमार्ग सूने पड़े थे। फिर सड़क हादसों में मरने वाले ये लोग कौन थे? कहा जा सकता है कि इस मॉनसून सत्र को संसद की दुर्बलता, लोकतंत्र की हत्या के लिए याद किया जाएगा। प्रधानमंत्री ने तो सत्र में भाग लगभग नहीं ही लिया।
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इस मॉनसून सत्र को इस बात के लिए भी याद किया जाएगा कि सरकार ने विपक्ष के अस्तित्व को सिरे से नकार दिया। मार्च, 2020 के बाद से सरकार 11 अध्यादेश लेकर आई थी और उसे कानून बनाने की प्रक्रिया में विपक्ष को कोई जगह नहीं दी गई और इन्हें प्रवर समिति के पास समीक्षा के लिए भेजने तथा सुझाव मंगाने की विपक्ष की मांग को ठुकरा दिया गया। और तो और, कृषि क्षेत्र में 60 साल पुरानी व्यवस्था को खत्म करने वाले तीन विधेयकों को पास कराने में सरकार को एक दिन की भी देरी मंजूर नहीं थी। सरकार के इस हठ का ही नतीजा था कि 20 सितंबर को जब उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह द्वारा मत विभाजन की अनुमति नहीं देने के कारण राज्यसभा में अप्रिय स्थिति बनी। सोचने की बात है कि अगर उपसभापति ने नियमों का पालन करते हुए मत विभाजन की अनुमति दे दी होती तो विपक्षी सांसद आसन तक नहीं जाते, नियम पुस्तिका को नहीं उछालते, नारेबाजी नहीं करते। उपसभापति ने राज्यसभा टीवी को बंद कर दिया और दावा किया कि उनके साथ अभद्र व्यवहार किया गया। निलंबित सांसदों में से एक डेरेक ओ ब्रायन ने ट्वीट करके इस बात से इनकार किया कि उन्होंने नियम पुस्तिका को फाड़ा। एक वीडियो संदेश में उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि अगर सदन का एक सदस्य भी मत विभाजन की मांग करे तो सभापति उसकी बात मानने को बाध्य है। डेरेक ने कहा कि अगर वोटिंग हुई होती तो प्रस्ताव गिर जाता क्योंकि सरकार के पास जरूरी संख्या बल नहीं था। इसी कारण वोटिंग नहीं कराई गई और बिलों को सर्वसम्मति से पास घोषित कर दिया गया।
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कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने हंगामे के बाद ट्वीट किया, “राज्यसभा के उपसभापति लंबे समय तक मेरे बड़े करीबी मित्र रहे। जुलाई, 2017 तक वह प्रधानमंत्री मोदी के बड़े आलोचक रहे जब तक उनकी पार्टी बिहार में महागठबंधन से अलग नहीं हुई। लेकिन उसके बाद से वह रबर स्टांप बन गए हैं। बहुत अफसोस की बात है।” कांग्रेस नेता केसी वेणुगोपाल ने कहाः “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि तमाम मंत्री उपसभापति के फैसले को उचित बता रहे हैं। हम स्वीकार करते हैं कि संसदीय लोकतंत्र में वही होता है जो सरकार चाहती है लेकिन विपक्ष की भी तो आखिर कोई भूमिका होती है?” जयराम रमेश कहते हैं, “सारी दुनिया ने देखा कि उपसभापति ने वही किया जो उन्हें सरकार ने करने के लिए कहा। जब बीजेडी और टीआरएस ने किसान विरोधी बिलों को प्रवर समिति को भेजने की मांग की तो सत्तापक्ष में बेचैनी साफ देखी जा सकती थी।”
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भाजपा सहित सभी दल राज्यसभा में दो कृषि विधेयकों पर चार घंटे की चर्चा पर सहमत हो गए थे। लेकिन इसमें इकतरफा तरीके से 45 मिनट की कटौती कर दी गई और इसी कारण विरोध शुरू हुआ। एक भावनात्मक वीडियो संदेश में डेरेक ओ ब्रायन ने कहा: “आज, विपक्ष से मत विभाजन का अधिकार छीन लिया गया... आपको यह तो उम्मीद नहीं ही करनी चाहिए कि विपक्ष बैठकर लॉलीपॉप खाता रहेगा और यह सब होने देगा। इसलिए, हमने विरोध किया। दिलचस्प बात यह है कि टीआरएस और बीजद, जो आम तौर पर सरकार के पक्ष में मतदान करते हैं, वे भी चाहते थे कि बिल प्रवर समिति को भेजे जाएं। तो, क्या सरकार अपने संख्या बल को लेकर आश्वस्त नहीं थी? अगर वे आश्वस्त होते तो हमें वोट डालने की अनुमति दे सकते थे।”
उन्होंने कहा, हां, ऐसा नियम है कि राज्यसभा के अंदर शूट नहीं किया जाए। लेकिन हम आपको वैसे करने देना नहीं चाहते थे.... आप मुझे निलंबित करना चाहते हैं, कर दीजिए। ...हां, विपक्ष ने वीडियो बनाया। आपने संसद के नियमों को नए सिरे से लिखने की कोशिश की ... हमने आज आपका मुकाबला किया- अपने लिए नहीं, बल्कि भारतीयसंसद, किसानों और विपक्ष के लिए।
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पिछले कुछ वर्षों के दौरान संसद को सोचे-समझे तरीके से कमजोर किया गया है। केंद्रीय बजट को बिना चर्चा के मंजूरी दे दी गई है। कई बिलों को मनी बिल के रूप में वर्गीकृत किया गया था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि राज्यसभा उन्हें न रोक सके। एक साल से अधिक समय बीत चुका है और लोकसभा ने उपसभापति को नहीं चुना है, जो पद परंपरागत रूपसे विपक्ष को जाता रहा है। विधेयकों को अब समीक्षा के लिए संसदीय समितियों को नहीं भेजा जाता और तमाम बड़े-बड़े संशोधन राज्यों अथवा विपक्ष को भरोसे में लिए बिना किए गए हैं।
संसद पर कभी भी देश के भीतर से ऐसे हमले नहीं हुए। 2001 में आतंकवादियों के हमले को सफलता पूर्वक निष्फल कर चुकी संसद के लिए कार्यकारिणी से हो रहे हमले का मुकाबला करना मुश्किल सबित हो रहा है।
नोटे: इस लेख के लेखक एजे प्रबाल हैं।
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