जिस महत्वपूर्ण तथ्य की संघ परिवार अनदेखी करना चाहता है, वह यह है कि कश्मीरी इस्लाम शेष उपमहाद्वीप में सुन्नियों के देवबंदी और बरेलवी इस्लाम से पूरी तरह अलग है। (ऋषि के नाम पर) रेशी इस्लाम फारस और मध्य एशिया के सूफी इसे कश्मीर लाए और इसे ब्राह्मण अनुयायियों ने घाटी में फैलाया जिनमें सबसे प्रसिद्ध लालदेड़ उर्फ लालेश्वरी देवी थीं जिनके नाम पर आज पूरी घाटी में स्कूल, काॅलेज और अस्पताल हैं। अगर मोदी कश्मीर के इतिहास से परिचित होते, उन्होंने समझा होता कि वीर सावरकर ने 1923 में जिस हिंदुत्व को प्रतिपादित किया था और जिसका सपना देखा था, उसे कश्मीर ने पहले ही हासिल कर लिया है- ऐसी सभ्यता जिसमें (मुस्लिम) आबादी पूरी तरह स्वीकृत हो और उसे पूरी तरह स्वीकृति दी गई हो, उसकी (हिंदू) सांस्कृतिक जड़ें हों। सिर्फ उन्होंने इसका जो नाम दिया था, वह भिन्न थाः उन्होंने इसे कश्मीरियत कहा।... मोदी चाहते तो पिछले 42 साल में कश्मीरियत को पहुंचाए गए नुकसान को समाप्त करने के लिए कोई प्रयास नहीं छोड़ते।
अनुच्छेद 370 हटाए जाने की घोषणा के बाद इस मुद्दे पर भारत विभाजित है। भगवा खेमा उल्लास में है कि- हमारी सरकार के पास वह करने की हिम्मत है जो कांग्रेस और सेकुलरिस्ट नहीं कर सके। कश्मीर समस्या खत्म हो गई। अशांति का कुछ वक्त रहेगा, पर जब यह खत्म हो जाएगा, यह नासूर, इतिहास से यह विषमता हटा दी जाएगी। आधुनिक भारतीय राष्ट्र पूरा हो जाएगा।
वे इससे अधिक गलत नहीं कह सकते। मोदी ने नवंबर, 2016 में नोटबंदी की, तो भारतीय अर्थव्यवस्था को महीनों तक के लिए लकवा मार गया था। इसने किसानों और ग्रामीणों को गंभीर नुकसान पहुंचाया था, जिससे वे अब तक नहीं उबर पाए हैं। लेकिन मोदी निकल गए। इस बार उन्होंने उससे भी बड़ी गलती की है। लेकिन इस दफा वह इससे बच नहीं सकते क्योंकि उनके काम की प्रतिक्रियाएं होना तय हैं, इनमें से कुछ देश से बाहर होंगी, जिसपर वह नियंत्रण नहीं कर पाएंगे।
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पहली प्रतिक्रिया गहरे ढंग से गहरे रूप से पहले से ही विमुख कश्मीरी युवाओं की है। मोदी ने ठीक ही आकलन किया है कि अनुच्छेद 370 हटाने से उनमें उससे भी ज्यादा गुस्सा फूटेगा, जितना 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद उनमें आया था। इसे पहले ही रोकने के लिए उन्होंने घाटी में केंद्रीय सशस्त्र बलों के 75,000 जवानों को भेज दिया, अमरनाथ यात्रा बीच में ही रोक दी, सभी स्कूल-काॅलेज बंद कर दिए, इंटरनेट सेवाएं रोक दी और मोबाइल लैंडलाइन फोन बंद करवा दिए। सिर्फ ’अलगाववादी’ नेताओं को ही नहीं बल्कि कश्मीर के इतिहास में पहली बार मुख्यधारा की पार्टियों के उन नेताओं को भी घर में नजरबंद कर दिया, जिन्होंने भारत में कश्मीर के विलय पर कभी सवाल नहीं उठाए।
लेकिन वह और अमित शाह जिस बात पर ध्यान नहीं दे रहे लगते हैं, वह धोखे का भयानक भाव है जिसने शेष कश्मीरी लोगों में भर दिया है- कि 80-90 फीसदी आबादी जो भारत से पूरी तरह अलगाव कभी नहीं चाहती रही है और जिनके लिए आजादी का मतलब शेष भारत के साथ कश्मीर के रिश्ते की जुदाई के बिना पूर्ण राजनीतिक स्वायत्तता है। यह बड़ी आबादी है जिसके साथ सरकार ने धोखा किया है। ऐसा एक विचारधारा के प्रति निष्ठा की वजह से किया गया है जो इतिहास के प्रति आदर नहीं रखती और ऐसे तथ्यों को कुचल डालती है जो उसके उद्देश्यों को पूरा नहीं करती है। ’हिन्दुत्व’ की यही विचारधारा है।
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जिस महत्वपूर्ण तथ्य की संघ परिवार अनदेखी करना चाहता है, वह यह है कि कश्मीरी इस्लाम शेष उपमहाद्वीप में सुन्नियों के देवबंदी और बरेलवी इस्लाम से पूरी तरह अलग है। (ऋषि के नाम पर) रेशी इस्लाम को फारस और मध्य एशिया के सूफी कश्मीर लाए और इसे ब्राह्मण अनुयायियों ने घाटी में फैलाया जिनमें सबसे प्रसिद्ध लालदेड़ उर्फ लालेश्वरी देवी थीं जिनके नाम पर आज पूरी घाटी में स्कूल, काॅलेज और अस्पताल हैं।
परिणामस्वरूप, कश्मीरी मुसलमानों में हिंदू आदतें इतनी अधिक घुली-मिली हैं कि 1946 में कश्मीर मुस्लिम काॅन्फ्रेंस के अध्यक्ष चौधरी गुलाम अब्बास ने मोहम्मद अली जिन्ना को यह कहते हुए पत्र लिखा कि उनकी पार्टी को मुस्लिम लीग में शामिल कर लिया जाए, तो उन्होंने इसलिए मना कर दिया कि उनके सचिव खुर्शीद अहमद ने उन्हें श्रीनगर से लिखा है किः ‘‘ये लोग विचित्र इस्लाम का पालन करते हैं... ये इस्लाम के चारों स्कूल ऑफ थाॅट को लेकर चलते हैं, जिन्हें हमलोग पवित्र मानते हैं... मुझे भय है कि सच्चे मुसलमान बनने के लिए हमें इनलोगों को लंबे समय तक पुनर्शिक्षा देनी होगी।’’
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इतिहास इस बात की पुष्टि करेगा कि कश्मीर एकमात्र शाही राज था जिसके सिर्फ महाराजा ने नहीं, बल्कि लोगों ने भी नेशनल काॅन्फ्रेंस के जरिये भारत के साथ विलय के लिए फैसला किया। यह इसकी भी पुष्टि करेगा कि जब पाकिस्तान से किसानों के वेश में सशस्त्र घुसपैठिये 1965 युद्ध की शुरुआत में अगस्त, 1965 में कश्मीर में घुसे और एक किसान से श्रीनगर की तरफ का रास्ता पूछा, तो उसने गलत रास्ते पर उन्हें भेज दिया और सरकार को घुसपैठियों की उपस्थिति के बारे में बताने श्रीनगर तक साइकिल से आया। यही वह आदमी था जिसे 1990 में आईएसआई ने आतंकवाद के दौरान पहला निशाना बनाया।
अंत में, इतिहास यह भी पुष्ट करेगा कि 1989 में आतंकवाद शुरू होने के बाद से हर उस कश्मीरी नेता की आईएसआई के इशारे पर हत्या कर दी गई जो शांति के लिए नई दिल्ली के साथ बातचीत को इच्छुक था या कहता था कि अगर आतंकवाद को समाप्त करना है, तो दिल्ली को क्या कदम उठाने चाहिए। सूची लंबी हैः यह मीरवाइज मौलवी फारूक से शुरू होती है और अब्दुल गनी लोन पर खत्म होती है, जो सज्जाद लोन के पिता थे जिन्होंने 2015 में बीजेप के साथ गठबंधन किया, काफी दिनों तक मंत्री रहे और अब उस सरकार ने उन्हें घर में नजरबंद कर दिया, जिसका उन्होंने साथ दिया। अगर ये नेता वाकई में भारत से सचमुच पूरी तरह अलग होना चाहते थे, तो पाकिस्तान की आईएसआई को उन्हें मार डालने की जहमत क्यों उठानी पड़ती?
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दुर्भाग्य से, नियंत्रण रेखा से परे बस की शुरुआत होने के बावजूद आतंकवाद खिंचता रहा, क्योंकि मोदी के दो पूर्ववर्तियों में से किसी को पता नहीं था कि इसे कैसे समाप्त करना है। इसके बावजूद, कश्मीरियों ने यह आशा नहीं छोड़ी कि दिल्ली एक दिन समझ जाएगा कि वे क्या चाहते हैं और उनके लिए शांति आएगी। यह आशा इतनी बलवती थी कि आतंकवाद के 20 साल बाद 2009 में भी ब्रिटेन की राॅयल इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज की ओर से कराए गए सर्वेक्षण में बताया गया कि घाटी के सबसे ज्यादा प्रभावित आतंकग्रस्त जिलों में सिर्फ 2.5 से 7.5 फीसदी कश्मीरियों ने कहा कि वे चाहते हैं कि कश्मीर पाकिस्तान के पास रहे।
अगर मोदी कश्मीर के इतिहास से परिचित होते, तो उन्होंने समझा होता कि वीर सावरकर ने 1923 में जिस हिंदुत्व को प्रतिपादित किया था और जिसका उन्होंने सपना देखा था, उसे कश्मीर ने पहले ही हासिल कर लिया है- एक ऐसी सभ्यता जिसमें (मुस्लिम) आबादी पूरी तरह स्वीकृत हो और उसे पूरी तरह स्वीकृति दी गई हो, उसकी (हिंदू) सांस्कृतिक जड़ें हों। सिर्फ उन्होंने इसका जो नाम दिया था, वह भिन्न थाः उन्होंने इसे कश्मीरियत कहा।
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जैसा कि जेकेएलएफ नेता यासीन मलिक ने अपनी किताब ‘द रीयल ट्रुथ’ में लिखा है, यह कांग्रेस थी जिसने जमात-ए-इस्लामी पर से प्रतिबंध हटाया। यह प्रतिबंध महाराजा हरि सिंह ने लगाया था। यह प्रतिबंध हटने से घाटी में कश्मीरियत का क्षरण आरंभ हुआ। अगर मोदी कश्मीर को एकताबद्ध करना चाहते, तो पिछले 42 साल में कश्मीरियत को पहुंचाए गए नुकसान को समाप्त करने के लिए कोई प्रयास नहीं छोड़ते।
लेकिन उन्होंने ठीक इसका उलटा कियाः कश्मीर पर से सशस्त्र बलों का शिकंजा हटाने की जगह उन्होंने इसे और अधिक कस दिया; उन कश्मीरी आतंकवादियों की नई पीढ़ी जो पुलिस द्वारा उनके परिवारों को लगातार पीड़ा देने की वजह से हताशा में इस ओर जा रही थी, की तरफ माफी का प्रस्ताव रखने की जगह उन्होंने बिना शर्त समर्पण की बात की और आईबी के हाल में हासिल की गई साइबर-जासूसी क्षमताओं को उन्हें खत्म करने और उन्हें मार गिराने में तैनात किया।
अंत में, 2015 में पीडीपी के साथ गठबंधन के एजेंडे के दस्तावेज में उन्होंने हुर्रियत और जेकेएलएफ नेताओं के साथ बातचीत पर सहमति के बाद हस्ताक्षर किए थे। इस पर अमल कर बातचीत की शुरुआत करने की जगह उन्होंने उन लोगों को लगभग लगातार घर में नजरबंद रखा और घाटी के युवाओं पर अपनी पकड़ के अंतिम चिह्न को नष्ट कर दिया। और जैसा इतना ही काफी नहीं था, मुख्यधारा की पार्टियों के नेताओं को घर में नजरबंद कर उन्होंने कश्मीरियों को नेताविहीन कर दिया है और उन्हें घाटी में आवेश और क्रोध के हर ज्वार की मर्जी पर उन्हें छोड़ दिया है।
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कश्मीर में आतंकवाद की समाप्ति के शांतिपूर्ण अंत के हर रास्ते को बंद कर मोदी ने कानूनी इंद्रजाल की समस्या को छू मंतर करने के लिए तैनात कर दिया है। दुर्भाग्यवश, यह अदृश्य होने वाला नहीं है। कश्मीरी तब तक सांस रोके रखेंगे जब तक सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 370 हटाने के खिलाफ दायर की गई याचिका पर अपना आदेश नहीं देती है। राष्ट्रपति के आदेश को बरकरार रखने पर कोर्ट की मुहर लगने की संभावना नहीं है, क्योंकि ऐसा कर वह 2017 और 2018 में दिए अपने इन फैसलों के विपरीत जाएगी कि अनुच्छेद 370 संविधान का अस्थायी अनुच्छेद नहीं है।
कश्मीर और संविधान के सभी गंभीर विश्लेषक जानते थे कि ’अस्थायी’ शब्द का उपयोग सिर्फ इस तथ्य को बताने के लिए किया गया था कि अनुच्छेद 370 के दायरे को पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर की वापसी के बाद पुनर्परिभाषित किया जाएगा। उसी नजरिये से, 1956 में कश्मीर विधानसभा के खुद को संविधान सभा के तौर पर घोषणा करने के अधिकार की समाप्ति यह अंतर्निहित स्वीकारोक्ति थी कि भारत के साथ कश्मीर के संबंधों को शासित करने वाले प्रावधान सब दिन के लिए सुरक्षा परिषद के 1948 के प्रस्ताव को पाकिस्तान की तरफ से पूरा नहीं करने पर नहीं छोड़ा जा सकता।
मोदी सरकार ने अनुच्छेद 367 के तौर पर संविधान में समाहित किए गए साधारण उपनियम (भारत) काननू का उपयोग किया है। यह 1897 में ब्रिटिश संसद ने विभिन्न विवादों को सुलझाने के लिए उन विभिन्न अधिनियमों में शब्दों को बताने के लिए पारित किया था जब वह भारत पर शासन कर रही थी और उस वक्त कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं था। इसलिए इसे भी सुप्रीम कोर्ट में पसंद किए जाने की संभावना नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)
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