रेलवे की परीक्षाओं को लेकर हुई हिंसा इस बात का प्रमाण है कि अपना न्यूज मीडिया हमारे समय की सबसे बड़ी समस्या- बेरोजगारी को लेकर किस तरह आंखें मूंदे हुए है। क्या आपको याद है कि 8-9 बजे के टीवी डिबेट में या प्रमुख पत्रिकाओं की कवर स्टोरी के तौर पर बेरोजगारी का ज्वलंत विषय कभी आया?
इस प्रसंग में रवीश कुमार को छोड़ दें क्योंकि वह उन सारे सवालों को उठाते हैं जो सरकार को चुभते हैं। लेकिन फैक्ट चेकिं गवेबसाइट AltNews के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबेर ने बिहार और उत्तर प्रदेश में हुए हिंसक विरोधों पर न्यूज एंकरों के ट्वीट्स की संख्या जुटाई और ‘गोदी मीडिया’ के तौर पर जाने जाने वाले आठ पत्रकारों के बारे में कहा कि इनमें से किसी ने इस बारे में कोई ट्वीट नहीं किया। हालांकि उन्होंने इस सूची में अरनब गोस्वामी को शामिल नहीं किया, पर अगर करते भी, तो शायद रिजल्ट यही आता। ये सभी अपने-अपने न्यूज चैनल के सितारे हैं और राजनीतिक गतिविधियों और दलबदल वगैरह को लेकर सोशल मीडिया पर खूब सक्रिय रहते हैं। ये गर्मागर्म चर्चा तो खूब करते हैं लेकिन किसी भी अवसर पर आपने इन्हें सरकार के कान उमेठते शायद ही देखा हो। आखिर ये रिश्ता क्या कहलाएगा?
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एक राय यह है कि ज्यादातर टीवी चैनलों का मालिकाना हक या उसमें बड़ी हिस्सेदारी मुकेश अंबानी के पास है जो भारत के सबसे धनी व्यक्ति हैं और जिनका भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को समर्थन जगजाहिर है। एक अन्य राय यह है कि मोदी सरकार ने विज्ञापन देने के मामले में निजी क्षेत्र को भी पीछे छोड़ दिया है और मीडिया सरकार को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकता इसलिए उसने सरकारी धुन पर खुद-ब-खुद नाचने का फैसला कर लिया है।
यह तथ्य तो है कि विज्ञापन देने के मामले में केन्द्र की भाजपा सरकार निजी बिजनेस हाउस से भी आगे हो गई है। नतीजतन, ऐसे समय में भी जब उत्पादन ठप था और अर्थव्यवस्था की उल्टी सांसें चलने लगी थीं, विज्ञापन उद्योग सालाना 13 फीसदी की दर से बढ़ा। विज्ञापन पर सरकारी खर्चे के बारे में आरटीआई के जरिये परस्पर विरोधी आंकड़े उपलब्ध कराए गए लेकिन मोटे तौर पर अनुमान है कि केन्द्र सरकार ने इस मद में 10 हजार करोड़ खर्च किए और पीएसयू तथा भाजपा शासित राज्यों ने भी 10-10 हजार करोड़ रुपये खर्चे। इनमें से लगभग सभी का इस्तेमाल प्रधानमंत्री की छवि चमकाने के लिए किया गया। 30 हजार करोड़ कोई छोटी रकम तो है नहीं और यह एक बड़ी वजह है जिसके आगे मुख्यधारा के मीडिया के बड़े हिस्से ने दिल हार दिया।
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मीडिया घराने कभी भी नोट छापने की मशीन नहीं रहे और ऐसे समय जब अर्थव्यवस्था की हालत बुरी है, ये किसी भी कीमत पर सरकार का समर्थन खोना नहीं चाहते। शायद यही वजह है कि मीडिया का एक वर्ग सरकारी नजरिये को आगे बढ़ाने के लिए बिछा जा रहा है। सरकार ने भी अपने पक्ष वाले या ‘गोदी मीडिया’ का भला करने के लिए दो कदम आगे बढ़ने में तत्परता दिखाई है तो वहीं सरकारी खेमे में शामिल होने से इनकार करने वालों के प्रति नाखुशी भी जताई है। एनडीटीवी, दैनिक भास्कर, न्यूजक्लिक वगैरह पर पड़े छापे अभी जेहन में ताजे ही हैं।
सरकारी वरदहस्त से वंचित कर देना और मीडिया इवेंट्स के बॉयकाट की धमकी भी, लगता है, काम कर रही है। इस तरह के इवेंट्स से पैसे तो आते ही हैं, कारोबार बढ़ाने का भी मौका मिलता है। इसलिए मीडिया को ‘रास्ते’ पर लाने के लिए इस तरह के कदम भी कारगर साबित हो रहे हैं।
प्रधानमंत्री मोदी की छवि को चमकाने में मीडिया ने सबसे बड़ी भूमिका निभाई है। सोचने वाली बात है कि प्रधानमंत्री के तौर पर अपने लगभग आठ साल के कार्यकाल के दौरान मोदी ने बिना पूर्व-निर्धारित पटकथा के एक बार भी प्रेस का सामना नहीं किया, अर्थव्यवस्था के गोते लगाने के मामले में एक बार भी जुबान खोलने की जहमत नहीं उठाई, स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया और नमामी गंगे परियोजनाओं के बुरी तरह फ्लॉप रहने के बावजूद न्यूज चैनलों ने इन पर परिचर्चा कराने की जरूरत नहीं समझी।
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अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने प्रधानमंत्री के कामकाज के सत्तावादी तरीके, देश के मानवाधिकार रिकॉर्ड, अर्थव्यवस्था के लगातार गिरने और मोदी सरकार के किन्हीं और मुद्दों पर अपनी वाहवाही करने में जुटे होने पर लगातार सवाल उठाए हैं। लेकिन अपने देसी मीडिया के बड़े धड़े के मुंह पर ताला ही लगा रहा। हमारा ज्यादातर टीवी और प्रिंट मीडिया प्रधानमंत्री के साथ ‘मखमली’ हाथों से पेश आता रहा है और उन्हें तब भी आड़े हाथों नहीं लिया गया जब गलवान में 20 भारतीय सैनिकों के मारे जाने के बाद उन्होंने दावा किया था कि चीन ने भारत के इलाके में कोई घुसपैठ नहीं की।
सवाल तो हाल में उस समय भी उठे जब टाइम्स नाऊ ने चुनावी राज्यों में इलेक्शन कवरेज के लिए रिपोर्टरों और तमाम उपकरणों से लैस बस (चुनाव रथ) को हरी झंडी दिखाने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को न्योता। लेकिन यह मौका किसी मुख्यमंत्री को क्यों? क्या राज्य सरकार ने किसी तरह बस या फिर कवरेज को प्रायोजित किया है?
पॉलिटिकल तरीके से करेक्ट होने की बात तो रहने दें, अब टीवी एंकर राजनीतिक पक्षधर की तरह बोलते-बतियाते लगते-दिखते हैं। हाल में कांग्रेस के एक नेता भाजपा में गए, तो संपादकों और टीवी एंकरों की प्रफुल्लता छिपाए न छिप रही थी। लेकिन उससे कुछ दिनों पहले उत्तर प्रदेश में ही तीन मंत्री भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में गए तो इस ‘दलबदल’ को अवसरवाद बताते हुए अनैतिक कहकर निंदा तक की गई। ऐसी हालत में, नेटवर्क 18 के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से जब बताया गया कि सपा-रालोद गठबंधन ने दूसरे चरण में 10 मुसलमानों को ‘चुपके से’ (साइलेंटली) मैदान में उतार दिया है, तो किसी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। क्या इसे महज भाषा की कमजोर जानकारी मान लेना चाहिए?
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अगर मीडिया जरा कम पक्षपाती होता, तो क्या राजनीतिक परिदृश्य में कोई फर्क पड़ता? शायद हां। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता और उनके इर्द-गिर्द जो प्रभामंडल रचा गया है, उसका बड़ा कारण मीडिया ही है। किसान आंदोलन, पुलवामा आतंकी हमला, चीनी घुसपैठ, लगातार बढ़ती गरीबी, कोविड के दौरान सरकारी आंकड़ों की तुलना में कहीं ज्यादा मौत, विभिन्न योजनाओं और इनमें भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर सरकार से सवाल कभी नहीं पूछे जाते जबकि मीडिया का यही दायित्व है। मुख्यधारा का मीडिया और खास तौर पर ये टीवी चैनल विपक्ष पर तीखे सवाल तो करते हैं लेकिन इनके पैनलिस्ट पर ध्यान दें, तो वे विपक्ष के किसी एक प्रतिनिधि को बुला लेते हैं और उसे भी बोलने का अवसर नहीं देते।
अभी इंडिया टुडे पत्रिका के कवर पर प्रधानमंत्री की जानी-पहचानी तस्वीर है। इसकी कवरलाइन हैः इन मोदी वी ट्रस्ट (मोदी में हमें यकीन है)। इसमें ‘मूड ऑफ दि नेशन’ सर्वेक्षण है जिसमें असंदिग्ध संदेश है कि लोग मोदी पर यकीन करते हैं। यह सर्वेक्षण और इसके नतीजे कितने सही हैं, नहीं मालूम लेकिन एक न्यूज स्टॉल पर हुई चर्चा में आई टिप्पणियां जरूर ध्यान खींचने वाली थीं। एक ने कहाः ‘मीडिया है ,तो मोदी हैं ’जबकि दूसरे ने कहाः ‘इस मोदी पर हम भरोसा नहीं करते’।
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