कोरोना की महामारी न हुई होती तो झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ नवंबर में जोरशोर से अपनी स्थापना की 20वीं वर्षगांठ मना रहे होते। जब इन राज्यों की मांग हुई तो इसके मूल में क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान थी। विकास का नारा तो बाद में जुड़ा। झारखंड और छत्तीसगढ़ के बारे में कहा गया कि ये आदिवासी बहुल इलाके हैं। लेकिन यह सच नहीं। छत्तीसगढ़ में आदिवासी 30.62% और झारखंड में 26.21% हैं। दोनों ही राज्यों में अन्य पिछड़ा वर्ग की बहुलता है। उत्तराखंड में सवर्ण जातियां अधिक हैं।
बहुत लोगों को लगता था कि विकास के लिए ज़रूरी है कि राज्य छोटे हों। अब इस बात का आकलन करना चाहिए कि इन तीन राज्यों का कितना विकास हुआ? छोटे राज्यों को लेकर बहसें होती रही हैं। डॉ बी आर आंबेडकर खुद छोटे राज्यों के पक्ष में थे। जब भाषायी आधार पर राज्यों के गठन के लिए राज्य पुनर्गठन आयोग बना, तो वे बड़े राज्यों का विरोध कर रहे थे। लेकिन आज यह कहना मुश्किल है कि विकास का कोई एक पैमाना हो सकता है। यदि हरियाणा, पंजाब और केरल-जैसे छोटे राज्यों के उदाहरण हैं तो कर्नाटक और तमिलनाडु-जैसे बड़े राज्यों के भी उदाहरण हमारे सामने हैं।
Published: undefined
यह कतई जरूरी नहीं कि छोटे राज्य उन सपनों को पूरा कर सकें जिनको लेकर उनका गठन हुआ। जिस समाज या समूह के विकास को आधार बनाया गया था, उसका इस राह पर चलकर भला ही होगा, यह भी सुनिश्चित नहीं है। तीनों राज्यों के मानव विकास सूचकांक चुगली करते हैं कि छोटे राज्य बनने से उनका भला नहीं हुआ। हालांकि ‘विकास’ के ऐसे ढेर सारे आंकड़े हैं जिससे विकास का भ्रम पैदा हो जाए। उदाहरण के तौर पर, जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े। छत्तीसगढ़ जब बना तो प्रति व्यक्ति आय 10,744 रुपये थी जो 2019-20 में बढ़कर 92,413 रुपये हो गई थी। ऐसे ही आंकड़े झारखंड और उत्तराखंड के लिए भी उपलब्ध हैं। लेकिन इसका कोई जवाब नहीं है कि यदि प्रति व्यक्ति आय में इतनी बढ़ोतरी हो रही थी तो फिर छत्तीसगढ़ में गरीबी क्यों बढ़ती रही? क्यों छत्तीसगढ़ 39.9% गरीबों के साथ देश का सबसे गरीब राज्य है? वहां सबसे अधिक 18% लोग झुग्गियों में क्यों रहते हैं? यही हाल झारखंड का है। हालांकि उत्तराखंड ने गरीबी के मामले में अपनी स्थिति सुधार ली है।
Published: undefined
झारखंड और छत्तीसगढ़ आदिवासियों के नाम पर बने थे। लेकिन तथ्य बताते हैं कि इन दोनों राज्यों में आदिवासी समुदाय ने ही सबसे अधिक पीड़ा झेली है। झारखंड पिछले दो दशकों में ‘खदानों के नरक’ में बदल गया है। आदिवासी लगातार विस्थापित हुए हैं और अपनी जीवन शैली के साथ उन्हें बहुत समझौता करना पड़ा है। छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद पनपने की वजह आदिवासियों का शोषण थी तो अलग राज्य बनने के बाद उनका भला होना चाहिए था और नक्सली गतिविधियां सिमट जानी थीं। लेकिन हुआ इसका एकदम उलट। जब राज्य बना तो तीन विकास खंडों में नक्सली गतिविधियां थीं लेकिन 15 बरस के बीजेपी शासनकाल में राज्य के 14 जिलों में नक्सल समस्या फैल गई।
नक्सलियों से लड़ने के नाम पर सलवा जुडुम की शुरुआत हुई। लेकिन इसके असर से बस्तर में आदिवासियों का सबसे ज्यादा पलायन हुआ। आदिवासियों के 650 से अधिक गांव खाली करवा दिए गए। लगभग तीन लाख आदिवासियों को पलायन करना पड़ा। फर्जी एनकाउंटर, आदिवासियों की प्रताड़ना और गांव जलाने आदि की अनगिनत घटनाएं हुईं।
Published: undefined
समस्या यह है कि विकास का नया विमर्श सिर्फ ‘विकास’ के इर्दगिर्द घूमता है। इस नए विमर्श में खनिज और खदान, रियल एस्टेट और भवन निर्माण विकास के पैमाने हो गए हैं। इसकी आड़ में आदिवासियों और किसानों से जमीन छीनकर उद्योगों के हवाले कर दिया गया। जिन मूल निवासियों को राज्य के निर्माण का लाभ मिलना था, वे इस विकास की दौड़ के चलते हाशिये पर चले गए। वे भूल ही गए कि नए राज्य का निर्माण उनके लिए भी हुआ था।
छोटे राज्य बनाने का चाहे जो तर्क दे दीजिए- क्षेत्रीय विकास का असंतुलन, आंतरिक सुरक्षा और जनभावनाएं आदि, लेकिन सच यह है कि नया राज्य बनाने के साथ अगर उस राज्य के विकास का कोई ब्लू- प्रिंट नहीं बना, कोई रोड मैप नहीं बना तो राज्य का हित संभव ही नहीं है। छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड इसके अप्रतिम उदाहरण हैं।
Published: undefined
यह कहना गलत होगा कि कुछ हुआ ही नहीं। कुछ तो होना ही था। केंद्र से पैसा सीधे पहुंचा, फैसले लखनऊ, भोपाल और पटना की जगह देहरादून, रायपुर और रांची में होने लगे, परियोजनाओं के लिए बेहतर संसाधन मिले, खनिजों के लिए रॉयल्टी की राशि सीधे मिलने लगी, कुछ उद्योग लगे, थोड़ा रोजगार बढ़ा। लेकिन ये तीनों ही उन राज्यों में तब्दील नहीं हो सके जिसका सपना दिखाया गया था।
तीनों ही राज्यों के शासकों ने कोई ठोस रणनीति या कोई ब्लू प्रिंट नहीं बनाया जिससे राज्य एक सुनिश्चित दिशा में आगे बढ़ सके। एक बार नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा था कि 50 के दशक में केरल सरकार ने जिद पकड़ ली कि वे अपनी योजना का सबसे अधिक पैसा शिक्षा और स्वास्थ्य पर लगाएंगे और उसी जिद का परिणाम है कि केरल आज सबसे संपन्न राज्यों की सूची में है।
झारखंड और उत्तराखंड तो राजनीतिक अस्थिरता से भी जूझते रहे। छत्तीसगढ़ में राजनीतिक अस्थिरता अब तक नहीं है लेकिन इससे राज्य का भाग्य बदला नहीं है।
Published: undefined
वैसे, छत्तीसगढ़ में अब बदलाव के आसार दिख रहे हैं। नई सरकार ठोस और दूरगामी परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम कर रही है। वह आदिवासियों और किसानों की सुधले रही है। नए मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य की सांस्कृतिक विरासत को भी राजनीति का हिस्सा बनाकर लोगों के मन में एक नई आस जगाई है। उन्होंने बस्तर के लोहांडीगुड़ा में उद्योग के नाम पर ली हुई 1,700 आदिवासी किसानों की जमीन लौटा दी। किसानों को प्रति क्विंटल धान के लिए 2500 रुपये मिल रहे हैं।
तेंदूपत्ता मजदूरों को प्रति मानक बोरा 2500 रुपये की जगह 4000 रुपये मिल रहे हैं। सरकार ने वनोपज खरीद की नीति बदली है जिससे आदिवासियों को लाभ मिला है। नई सरकार छत्तीसगढ़ को बिजली बनाने वाले राज्य से बिजली खपत करने वाले राज्य में बदलना चाहती है।
Published: undefined
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ‘नरवा गरुवा घुरुवा बारी’ नाम की महत्वाकांक्षी योजना शुरू की। इसका उद्देश्य वर्षाजल का संचयन कर नदी नालों को पुनर्जीवित करना, गौधन का संवर्धन और घर-घर में पौष्टिक फल सब्जी के उत्पादन को बढ़ावा देना है। इसी के अंतर्गत छत्तीसगढ़ सरकार ने देश में पहली बार गोबर खरीदना शुरू कर दिया है और गांव-गांव में गोशालाएं बन रही हैं। अगर ठीक से अमल हुआ तो छत्तीसगढ़ अगले दशकों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था के दम पर चलने वाला इकलौता राज्य होगा।
लेकिन, सवाल अकेले छत्तीसगढ़ का नहीं है। यह सवाल झारखंड और उत्तराखंड का भी है। साथ ही देश के उन सभी राज्यों का है जो ठोस और दूरदर्शी योजनाओं के अभाव में पिछड़ रहे हैं। राजनीति चलती रहेगी। चुनाव आते-जाते रहेंगे। सरकारें बनती-बिगड़ती रहेंगीं। लेकिन योजनाएं ऐसी होनी चाहिए जिससे राज्य की जनता का भाग्य बदले, राज्य की अर्थव्यवस्था बदले और इस तरह बदले कि उसका सकारात्मक असर दूर तक दिखाई दे। ये बदलाव हर सूरत में क्रांतिकारी होने चाहिए। तभी बात बनेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और वर्तमान में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार हैं)
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined