द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के दौर में मध्य-पूर्व का क्षेत्र विश्व के सबसे तनावग्रस्त क्षेत्रों में रहा है। इस समय भी यहां यमन में युद्ध की तबाही जारी है, सीरिया इससे उभर नहीं पाया है, जबकि ईरान पर युद्ध की संभावना गहरा रही है। इससे पहले इराक पर संयुक्त राज्य अमेरिका और सहयोगी देशों के दो हमले और 1980 के दशक का इराक-ईरान युद्ध इस क्षेत्र के लिए सबसे अधिक विनाश लेकर आए।
तमाम शांति प्रयासों के बावजूद फिलीस्तीनियों की स्थिति बहुत चिंताजनक दौर में है। सीरिया, लेबनान, इराक जैसे कई गृह-युद्धों में भी बहुत विनाश हो चुका है। कुर्द अल्पसंख्यकों की समस्याओं का बहुत हिंसा के बावजूद चार देशों में संतोषजनक समाधान नहीं मिला है। कुल मिलाकर द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के दौर में मध्य-पूर्व में लगभग पचास लाख लोग युद्धों और गृह-युद्धों में मारे गए हैं, जबकि इससे कई गुणा अधिक घायल हुए, विस्थापित हुए या उनकी आजीविका तबाह हुई।
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मध्य-पूर्व में पहले भी धार्मिक कट्टरवाद के बड़े केन्द्र थे, पर हाल के अमेरिकी हमलों के बाद आतंकवादी समूह बनने की प्रक्रियाओं ने अधिक तेजी पकड़ी और इनके आतंक के विश्व के अन्य क्षेत्रों में फैलने का खतरा भी बढ़ा है। मध्य-पूर्व में खतरनाक हथियारों का आयात बहुत बड़े पैमाने पर होता है और इन हथियारों के आतंकवादियों तक पहुंचने की संभावना भी है। यहां के एक देश (इजराइल) के पास परमाणु हथियार है, जबकि तीन अन्य देश परमाणु हथियार निकट भविष्य में प्राप्त कर सकते हैं। मध्य-पूर्व क्षेत्र में पश्चिम एशिया के देशों के अतिरिक्त मिस्र व तुर्की भी शामिल किए जाते हैं।
मध्य-पूर्व में फाॅसिल फ्यूल (तेल और गैस) के सबसे बड़े भंडार होने के कारण बहुत शक्तिशाली और साधन संपन्न शक्तियों की नजर इस क्षेत्र पर रही है। इन ताकतों ने यहां से बहुत कमाने, तेल और गैस पर नियंत्रण करने और इन क्षेत्रों में और ज्यादा हथियार निर्यात करने के प्रयास निरंतर किए। इन बाहरी ताकतों की अतिसक्रियता से यहां की समस्याएं और विकट होती रही हैं।
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मध्य-पूर्व के अनेक देशों के लिए तेल और गैस का निर्यात आय का सबसे बड़ा स्रोत रहा है और इसकी सरल उपलब्धि के कारण संतुलित विकास और विविधतापूर्ण आजीविकाओं पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया। आगामी वर्षों में बहुत बड़ी जरूरत है कि विश्व में ग्रीन हाऊस गैसों का उत्सर्जन करने वाले फाॅसिल फ्यूल का उपयोग तेजी से कम किया जाए। कोयले के साथ तेल और गैस मुख्य फॉसिल फ्यूल है। अतः मध्य पूर्व के लिए एक अन्य बड़ा सवाल यह है कि अगर विश्व फाॅसिल फ्यूल का उपयोग तेजी से कम करने में सफल हुआ, जैसा कि उसे धरती के पर्यावरण की रक्षा के लिए अवश्य करना चाहिए, तो इसका मध्य पूर्व के तेल और गैस निर्यातों पर क्या असर पड़ेगा।
वैसे युद्ध पर्यावरण के लिए सदा घातक होता ही है, पर मध्य-पूर्व में युद्ध से अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक पर्यावरण क्षति होती है क्योंकि यहां तेल और गैस के विश्व के सबसे बड़े भंडारों में आग लग सकती है और इसका प्रदूषण विश्व में बहुत दूर-दूर तक फैल सकता है।
इस तरह मध्य पूर्व में अमन-शांति की स्थापना के साथ एक अन्य बड़ी चुनौती यह है कि संतुलित और विविधतापूर्ण विकास की ओर बढ़ा जाए। इस नई राह को तलाशने का काम लोकतांत्रिक विमर्श और पहलों के बीच ही हो सकता है, पर मध्य-पूर्व में लोकतंत्र बहुत बुरी हालत में है और अरब स्प्रिंग की जो भी संभावनाएं रही हों वे कुम्हला चुकी हैं। सऊदी अरब में ही नहीं, ईरान, तुर्की, इराक, सीरिया, इजराइल, मिस्र जैसे अन्य देशों में भी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं कमजोर स्थिति में हैं और विभिन्न-स्तरों पर संकटग्रस्त हैं।
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धर्मनिरपेक्षता तो अधिकांश देशों के एजेंडे पर है ही नहीं। धर्म का कट्टरवादी रूप अनेक स्तरों पर हावी है और यह यहूदी-मुस्लिम, ईसाई-मुस्लिम और शिया-सुन्नी जैसे कई स्तर के टकरावों में प्रकट होता रहता है। अतः लोकतंत्र की मजबूती को भी मध्य-पूर्व के एजेंडे पर रखना जरूरी है। धर्म-निरपेक्षता सही रूप में आगे न बढ़ सके तो कम से कम विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के आपसी भाईचारे को तो आगे बढ़ाया जा सकता है।
इस एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए जन-शक्ति में बड़ा उभार आना जरूरी है। इस राह में बड़ी बाधाएं हैं। दूसरी ओर विभिन्न सार्थक प्रयासों के अन्तर्संबंधों की समझ के आधार पर बड़ी जन-शक्ति बनाने की संभावनाएं भी हैं।
जिन समाजों में युद्ध और दुश्मनी अधिक हो वहां यह सोच आंतरिक हिंसा जैसे घरेलू हिंसा, लैंगिक हिंसा, अल्पसंख्यक विरोधी हिंसा आदि में भी प्रकट होती है। अतः यदि अमन-शांति के प्रयासों में यह सभी प्रयास साझे रूप से जुड़ें तो अमन-शांति का आधार अधिक व्यापक बन सकता है। आंतरिक हिंसा को कम करने के प्रयास अधिक व्यापक बन कर युद्ध और गृह युद्ध की संभावना को भी कम कर सकते हैं और इसके अनुकूल माहौल बना सकते हैं।
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अतः मध्य पूर्व के समाधानों की राह लोकतंत्र, अमन-शांति, संतुलित विकास, सामाजिक, लैंगिक और आर्थिक समानता की राह है और इन सब के आपसी संबंधों को मजबूत करने की राह है। यह राह स्थानीय लोगों को ही निकालनी है, पर सच्ची भावना से किए गए बाहरी प्रयास भी इसमें मददगार सिद्ध होंगे।
आज मध्य-पूर्व में गुटबाजी का दौर चरम पर है और विभिन्न देश एक दूसरे को क्षति पंहुचा रहे हैं या हानि पहुंचाना चाहते हैं। सऊदी अरब और ईरान के नेतृत्व में दो मुख्य गुट उभर रहे हैं, जबकि इजराइल का रुख पहले से ही ईरान और सीरिया के प्रति आक्रामक रहा है। मिस्र और तुर्की जैसे देश इस गुटबाजी से कुछ अलग चाहे दिखें, पर उनकी आंतरिक समस्याएं अधिक विकट होती जा रही हैं और लोग आपस में बंटते जा रहे हैं।
मिस्र में ‘अरब बसंत’ के बाद आज लोकतंत्र की संभावना पहले से भी कम है और तानाशाही प्रवृत्तियां बढ़ी हैं। अतः सभी देशों के हितों में सामंजस्य बनाते हुए पूरे मध्य-पूर्व क्षेत्र की संतुलित प्रगति के लिए जरूरी बदलाव लाने की सोच का प्रसार इस क्षेत्र में बहुत जरूरी है। बाहरी तत्वों द्वारा आक्रामक या भड़काने वाली कार्रवाइयों पर भी अंकुश लगाना होगा जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्तर पर अमन-शांति का आंदोलन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
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इस समय मध्य-पूर्व में दो सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- यमन को बर्बाद कर रहे युद्ध को शीघ्र से शीघ्र रोकना और ईरान पर अमेरिकी हमले की संभावना को न्यूनतम करना। यमन का गृह-युद्ध अपने आप में बहुत विनाशक रहा है, पर जब से सऊदी अरब के लड़ाकू विमानों द्वारा यमन में बमबारी आरंभ हुई है तब से वहां पर सामान्य नागरिकों के मारे जाने की संख्या बहुत बढ़ गई है। एक तो यहां पहले भी युद्ध या गृह युद्ध होते रहे हैं। तिस पर जिस तरह की भयानक बम वर्षा हुई है, उससे न केवल बहुत से लोग प्रत्यक्ष तौर पर मारे जा रहे हैं बल्कि स्वास्थ्य और अन्य बुनियादी सुविधाओं का ढांचा क्षतिग्रस्त होने से बहुत से लोग अप्रत्यक्ष रूप से भी मारे जाते हैं।
हाल ही में यूएई ने तो स्पष्ट संकेत दिए हैं कि वह यमन में अपनी सेनाओं की भूमिका तेजी से कम करना चाहता है। अतः अब मुख्य जरूरत सऊदी अरब की आक्रमकता को रोकने की है। ईरान को भी चाहिए कि वह दखलंदाजी न करे। इस तरह बाहरी दखलंदाजी कम होगी तो संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख में यमन में शांति स्थापित करना अपेक्षाकृत आसान हो जाएगा।
इससे भी बड़ी चुनौती है ईरान पर अमेरिका के हमले की संभावनाओं को विभिन्न स्तरों के प्रयास से न्यूनतम किया जाए क्योंकि यदि यह हमला हुआ तो फिर यह पूरा क्षेत्र ही हिंसा और तनावों के नए दलदल में फंस जाएगा। हालांकि, यह स्पष्ट है कि इस हमले से लाभ तो किसी पक्ष का नहीं होगा, पर इसके बावजूद युद्ध की संभावना आगे बनी हुई है।
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अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप के कुछ सलाहकार तो उन्हें याद दिला रहे हैं कि युद्धों में अमेरिका के फंसने की संभावना को कम करने के वायदे से ही चुनाव जीते थे। पर ईरान के प्रति बहुत समय से आक्रमक नीति अपनाने वाले सलाहकार इस समय अधिक असरदार भूमिका में नजर आ रहे हैं।
जब ट्रंप ने ईरान से हुए परमाणु युद्ध समझौते को एकतरफा ढंग से निरस्त किया, तो दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव का ऐसा दौर आरंभ हुआ जो अब बिगड़ता ही जा रहा है। ईरान ने कुछ समय इंतजार किया ताकि इस समझौते से जुड़े अन्य देश ट्रंप के निर्णय से राहत दिलवा सकें, पर जब ऐसा नहीं हुआ और अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध कसते गए तो ईरान ने भी अपने परमाणु कार्यक्रम के बारे में कुछ नई घोषणाएं कर दीं। दूसरी ओर अमेरिका और सहयोगियों ने पास के समुद्री क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ा दी और ड्रोन विमान व तेल टैंकरों को लेकर आपसी झड़पें भी हो चुकी हैं।
ऐसे में अब स्थिति और न बिगड़े इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ और अमन-शांति आंदोलन को शीघ्र ही इस क्षेत्र के लिए अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी।
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